भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का राष्ट्रीय जिला न्यायपालिका सम्मेलन के समापन समारोह में सम्बोधन(HINDI)

नई दिल्ली : 01.09.2024
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sp19082024

अपनी स्थापना के बाद के पिछले 75 वर्षों के दौरान भारत के उच्चतम न्यायालय ने विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र की न्याय-व्यवस्था के सजग प्रहरी के रूप में अपना अमूल्य योगदान दिया है। उच्चतम न्यायालय ने भारत के न्याय-शास्त्र यानी jurisprudence को बहुत सम्मानित स्थान दिलाया है। इसके लिए उच्चतम न्यायालय सहित भारतीय न्यायपालिका से जुड़े वर्तमान और अतीत के सभी लोगों के योगदान की मैं सराहना करती हूं।

उच्चतम न्यायालय के 75वें वर्ष के उपलक्ष में तैयार किए गए Flag और Insignia का विमोचन करके मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। इनमें उच्चतम न्यायालय का ध्येय वाक्य ‘यतो धर्म: ततो जय:’ अंकित है। महाभारत में इस काव्यांश का उल्लेख कई बार हुआ है। इसका भावार्थ है कि जहां धर्म है वहीं विजय है।

धर्म शब्द नैतिकतापूर्ण, आधारभूत नियामक सिद्धांतों के लिए प्रयुक्त होता है। ‘धारणात् धर्म इत्याहु:, धर्मो धारयति प्रजा:’ अर्थात जो सभी व्यवस्थाओं को धारण करता है यानी आधार देता है वह धर्म कहलाता है; धर्म ही प्रजाओं को आश्रय देता है।

यह कहा जा सकता है कि न्याय और अन्याय का निर्णय करने वाले सभी न्यायालय धर्म-क्षेत्र हैं। जिसकी तरफ धर्म अथवा न्याय हो उस पक्षकार की विजय सुनिश्चित कराना ही उच्चतम न्यायालय का ध्येय वाक्य है और इसीलिए, भारत की पूरी न्यायपालिका का आदर्श वाक्य भी है।  

मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि अपनी स्थापना के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर उच्चतम न्यायालय द्वारा ऐसे अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं जिनसे हमारी न्याय-व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास और जुड़ाव बढ़ा है। ऐसे आयोजनों के लिए मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में सक्रिय उच्चतम न्यायालय की पूरी टीम की सराहना करती हूं।

देवियो और सज्जनो,

न्याय के प्रति आस्था और श्रद्धा का भाव हमारी परंपरा का हिस्सा रहा है। हिन्दी के महानतम कथाकार मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी ‘पंच-परमेश्वर’,लगभग सभी भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध है। उस कहानी में गाँव के लोग जिस व्यक्ति को सरपंच बनाते हैं, उसके विचारों को मैं उद्धृत करना चाहूंगी। वह कहता है, “... मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं। मेरे मुंह से इस समय जो कुछ निकलेगा वह देव-वाणी के सदृश है – और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं।” मुंशी प्रेमचंद कहना चाहते हैं कि न्यायाधीश को न्याय करते समय निष्पक्षता की उच्चतम क्षमता विकसित करनी चाहिए।

हमारे देश के प्रत्येक न्यायाधीश, हर एक Judicial Officer पर सत्य, धर्म और न्याय की प्रतिष्ठा करने का नैतिक दायित्व है। जनपद के स्तर पर, यही नैतिक दायित्व न्यायपालिका का दीप-स्तम्भ है। दूध का दूध और पानी का पानी करने का ‘नीर-क्षीर विवेक’ आप सबसे अपेक्षित है।

देवियो और सज्जनो,

मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि उच्चतम न्यायालय ने 29 जुलाई से 3 अगस्त तक ‘विशेष लोक अदालत सप्ताह’ का संचालन किया। मुझे विश्वास है कि ऐसे उपयोगी कार्यक्रमों की शृंखला में आयोजित यह राष्ट्रीय जिला न्यायपालिका सम्मेलन ‘न्याय सबके द्वार’ तक पहुंचाने के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगा। मुझे लगता है कि इस तरह के आयोजन हर दो-तीन महीने में होते रहने चाहिए। शायद ऐसा करके हम pendency की समस्या को आहिस्ता-आहिस्ता दूर कर सकते हैं।

जनपद स्तर के न्यायालय ही करोड़ों देशवासियों के मस्तिष्क में न्यायपालिका की छवि निर्धारित करते हैं। इसलिए जनपद न्यायालयों द्वारा लोगों को संवेदनशीलता और तत्परता के साथ, कम खर्च पर न्याय सुलभ कराना हमारी न्यायपालिका की सफलता का आधार है।

देवियो और सज्जनो,

मुकद्दमों की pendency और backlog न्यायपालिका के समक्ष बहुत बड़ी चुनौती है। इस समस्या को प्राथमिकता देकर सभी हितधारकों को समाधान निकालना है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि इस सम्मेलन के एक सत्र में Case Management से जुड़े कई आयामों पर चर्चा हुई है। मुझे विश्वास है कि इन चर्चाओं के व्यावहारिक परिणाम सामने आएंगे।

हमारे संविधान में पंचायतों और नगरपालिकाओं के माध्यम से स्थानीय स्तर पर Legislative और Executive निकायों की शक्तियों और उत्तरदायित्वों के लिए प्रावधान किया गया है। क्या इन्हीं के समतुल्य स्थानीय स्तर पर न्याय-व्यवस्था के बारे में भी सोचा जा सकता है? स्थानीय भाषा तथा स्थानीय परिस्थितियों में न्याय प्रदान करने की व्यवस्था करके शायद ‘न्याय सबके द्वार’ तक पहुंचाने के आदर्श को प्राप्त करने में सहायता होगी।

मुझे लगता है कि इस सम्मेलन में जनपद न्यायाधीशों के साथ-साथ सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की भागीदारी से, जनपद स्तर पर  न्याय प्रक्रिया को बाधित कर रही समस्याओं के व्यावहारिक समाधान स्पष्ट हुए होंगे।

मुझे बताया गया है कि हाल के वर्षों में जनपद स्तर पर न्यायपालिका के infrastructure, सुविधाओं, प्रशिक्षण एवं मानव संसाधन की उपलब्धता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। लेकिन, इन सभी क्षेत्रों में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। मुझे विश्वास है कि सुधार के सभी आयामों पर तेजी से प्रगति होती रहेगी।

मैं एक अच्छे बदलाव का विशेष उल्लेख करना चाहती हूं। मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि हाल के वर्षों में Judicial Officers के चयन में महिलाओं की संख्या बढ़ी है। इस वृद्धि के कारण, कई राज्यों में कुल Judicial Officers की संख्या में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक हो गई है। मैं आशा करती हूं कि न्यायपालिका से जुड़े सभी लोग महिलाओं के विषय में पूर्वाग्रहों से मुक्त विचार, व्यवहार और भाषा के आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। हमारी न्यायपालिका के समक्ष ऐसी अनेक चुनौतियां हैं जिनके समाधान के लिए सभी हितधारकों को समन्वित प्रयास करना होगा। उदाहरण के लिए evidence और witnesses से जुड़े मुद्दों पर न्यायपालिका, सरकार और पुलिस प्रशासन को मिल-जुलकर समाधान निकालना चाहिए।

देवियो और सज्जनो,

यह हमारे सामाजिक जीवन का एक दुखद पहलू है कि, कुछ मामलों में, साधन-सम्पन्न लोग अपराध करने के बाद भी निर्भीक और स्वच्छंद घूमते रहते हैं। जो लोग उनके अपराधों से पीड़ित होते हैं, वे डरे-सहमे रहते हैं, मानो उन्हीं बेचारों ने कोई अपराध कर दिया हो। महिला पीड़िताओं की स्थिति और भी खराब होती है क्योंकि प्रायः समाज के लोग भी उनका साथ नहीं देते हैं।

कभी-कभी मेरा ध्यान कारावास काट रही माताओं के बच्चों तथा बाल अपराधियों की ओर जाता है। उन महिलाओं के बच्चों के सामने पूरा जीवन पड़ा है। ऐसे बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए क्या किया जा रहा है इस विषय पर आकलन और सुधार हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। बाल अपराधी भी अपने जीवन के आरंभिक चरण में होते हैं। उनके चिंतन और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के उपाय करना, उन्हें जीवन-यापन हेतु लाभकारी कौशल प्रदान कराना एवं उन्हें निशुल्क कानूनी सहायता उपलब्ध कराना भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

मैंने देखा है कि गांव का गरीब आदमी कोर्ट-कचहरी जाने से डरता है। वह बहुत मजबूरी में ही अदालत की न्याय प्रक्रिया में भागीदार बनता है। प्रायः वह अन्याय को चुपचाप सहन कर जाता है क्योंकि उसे लगता है कि न्याय के लिए लड़ना उसके जीवन को और अधिक कष्टमय बना सकता है। उसके लिए एक बार गांव से दूर अदालत तक जाना ही बहुत बड़े मानसिक और आर्थिक दबाव का कारण बन जाता है। ऐसी स्थिति में बार-बार तारीख देने यानी ‘स्थगन की संस्कृति’ अर्थात ‘Culture of Adjournment’ से गरीब लोगों को जो कष्ट होता है उसकी कल्पना भी बहुत से लोग नहीं कर सकते। इस स्थिति को बदलने के हर संभव उपाय किए जाने चाहिए।

हम लोग White Coat Hypertension के बारे में जानते-सुनते हैं। बहुत सेलोगों का blood pressure, अस्पताल के वातावरण में बढ़ जाता है। मुझे लगता है कि, इसी तरह, सामान्य व्यक्ति का तनाव कचहरी के वातावरण मेंभी बढ़ जाता है। इसका अध्ययन करके इस स्थिति को शायद Black Coat Syndrome का नाम दिया जा सकता है। अदालत में, सामान्य लोग घबराहट में प्रायः अपने पक्ष में वे बातें भी नहीं कह पाते हैं जो वे अच्छी तरह जानते हैं और कहना चाहते हैं।

जब बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के मामले में न्यायालयों के निर्णय एक पीढ़ी के गुजर जाने के बाद आते हैं तो सामान्य व्यक्ति को लगता है कि न्याय प्रक्रिया में संवेदनशीलता की कमी है। मैंने एक बार कहा था कि गाँव के गरीब लोग अदालत के ऊपर से नीचे तक के सभी न्यायाधीशों को भगवान मानते हैं क्योंकि वहाँ न्याय मिलता है। एक कहावत है – भगवान के घर देर है लेकिन अंधेर नहीं। लेकिन कितनी देर? 32 साल? 20 साल? 12 साल? हम लोगों को सोचना चाहिए जब 32 साल बाद लोगों को न्याय मिलेगा तब तक उनके चेहरे से मुस्कान ही खत्म हो जाएगी।

मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि उच्चतम न्यायालय ने ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ के उस प्रावधान को retrospective effect से लागू करने का आदेश दिया है जिसके तहत पहली बार अभियुक्त हुए तथा नियत अधिकतम कारावास की एक-तिहाई अवधि काट चुके लोगों को जमानत पर रिहा करने की व्यवस्था की गई है। मैं आशा करती हूं कि आपराधिक न्याय की नई व्यवस्था को इसी तत्परता के साथ लागू करके, हमारी न्यायपालिका न्याय के एक नए युग का सूत्रपात करेगी।  

भारत के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने सभी नागरिकों के लिए न्याय तक पहुँच सुनिश्चित करने के संकल्प के साथ इस सम्मेलन का आयोजन कराया है। न्याय सुलभ कराने का यह संकल्प सिद्ध हो इसी शुभेच्छा के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देती हूं।

धन्यवाद!  
जय हिन्द!
जय भारत!

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