भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह में संबोधन
नई दिल्ली : 07.03.2024
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भवताम् विश्वविद्यालय: देववाणी-संस्कृतस्य, अस्माकम् संस्कृते: च, संरक्षणं प्रसारं च करोति। अतः अस्य विश्वविद्यालयस्य दीक्षान्त-समारोहे आगत्य अहं अति-प्रसन्नताम् अनुभवामि।
इस उच्च शिक्षण संस्थान को केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय का दर्जा मिलने के बाद आयोजित हो रहे प्रथम दीक्षांत समारोह में भाग लेकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। मैं आज उपाधि प्राप्त करने वाले सभी विद्यार्थियों को बधाई देती हूं। आज पदक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की मैं विशेष सराहना करती हूं। मुझे बताया गया है कि इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थी देश के विभिन्न क्षेत्रों तथा सामाजिक वर्गों से आते हैं इस प्रकार, यहां का विद्यार्थी समुदाय समावेशी भारत की झलक प्रस्तुत करता है।
आज Honorary D.Litt. से विभूषित किए गए विद्वानों को भी मैं बधाई देती हूं। इन विद्वानों ने देववाणी संस्कृत की लंबे समय तक सेवा और उपासना की है। इन विद्वज्जनों से प्रेरणा लेकर, हमारे युवा विद्यार्थियों को भी निरंतर स्वाध्याय और सृजन के प्रति उन्मुख होना चाहिए।
प्यारे विद्यार्थियो,
भारतीय संस्कृति के प्रति गौरव की भावना हमारी राष्ट्रीय चेतना का आधार है। हमारे देश की समृद्ध संस्कृति का बोध होने पर, सहज ही, गौरव का भाव जागता है। हमारी संस्कृति की विरासत, संस्कृत भाषा में संचित है, संरक्षित है। इसलिए, संस्कृत भाषा में उपलब्ध सांस्कृतिक चेतना का प्रसार करना राष्ट्र सेवा है। राष्ट्र सेवा के इस कार्य में निरत रहने के लिए मैं संस्कृत भाषा और उसमें उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान से जुड़े सभी आचार्यों, विद्यार्थियों और संस्कृत प्रेमियों की प्रशंसा करती हूं।
आपके विश्वविद्यालय के कुलगीत में प्राचीन-बोध-परंपरा के साथ-साथ नव-बोध-शोध-परंपरा को आगे बढ़ाने का संकल्प व्यक्त होता है। परंपरा को महत्व देते हुए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विद्यार्थियों को आगे बढ़ाना, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का एक प्रमुख उद्देश्य है। ऐसा करके हम अपनी समृद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा से लाभ उठाते हुए 21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम, युवा-पीढ़ी का निर्माण कर सकेंगे। राष्ट्र का स्थान केवल बुद्धि में नहीं बल्कि हृदय में भी होता है। राष्ट्र की अवधारणा जितनी बोधगम्य है, उससे अधिक भावगम्य है। राष्ट्र-प्रेम की भावना की सबसे उदात्त अभिव्यक्तियां संस्कृत भाषा में प्राप्त होती हैं। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जन्मभूमि अर्थात स्वदेश को अपनी अमर शब्दावली में स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बताया है:
जननी जन्म-भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
यह कहा जा सकता है कि संस्कृत भाषा में रचित रामकथाएं, भारतीय संस्कृति की आधारशिलाएं हैं। जब भारत-माता पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ी हुई थीं तब महर्षि ऑरोबिंदो ने संस्कृत भाषा में ही ‘भवानी-भारती’ नामक ग्रंथ की रचना करके अपने उत्कट राष्ट्र-प्रेम से सभी को प्रेरित किया था। महर्षि ऑरोबिंदो यह कामना करते हैं कि भारत-भूमि की पुरातन समृद्धि अचल रूप से शोभायमान हो।
वेद, वेदाङ्ग, रामायण, महाभारत तथा ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े अनगिनत संस्कृत ग्रन्थों में, भारतीयता के मूल विद्यमान हैं। भारत की लोक चेतना संस्कृत भाषा में स्पंदित होती है। इस भाषा ने हमारे विशाल भूखंड की विविधताओं को एकता के सूत्र में पिरोया है।
संस्कृत के शब्द भंडार से अनेक भारतीय भाषाओं को शक्ति मिली है और वे भाषाएं विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों में फलती-फूलती आगे बढ़ रही हैं। लेकिन, संस्कृत उन सभी भाषाओं की एकात्मता का आधार भी है, और प्रमाण भी। संस्कृत की इसी विशेषता के कारण हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश देते हुए यह प्रावधान किया है कि भारत सरकार द्वारा हिन्दी के शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से शब्द ग्रहण किए जाएं। इस प्रकार, संस्कृत भाषा देववाणी तो है ही, यह एक प्रकार से देशवाणी भी है।
महात्मा गांधी ने संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के लिए बहुत परिश्रम किया था और वे लोगों को संस्कृत पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते थे। उन्होंने श्रीमद्भगवद् गीता का गहन अध्ययन किया था। गांधीजी ने ‘अनासक्ति योग’ नामक गीता की टीका भी लिखी है। गांधीजी ने कहा था कि, “हर राष्ट्रवादी को संस्कृत पढ़नी चाहिए। ... इसी भाषा में तो हमारे पूर्वजों ने सोचा और लिखा था। ... लड़के या लड़की को संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त किए बिना नहीं रहना चाहिए।”
गांधीजी के इस वक्तव्य के संदर्भ में तो आप सभी विद्यार्थी अत्यंत भाग्यशाली हैं क्योंकि आपके माता-पिता-अभिभावकों ने आपको संस्कृत का केवल प्रारम्भिक ज्ञान ही नहीं बल्कि विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया है। यह विश्वविद्यालय राष्ट्रपिता की आकांक्षाओं को व्यापक स्तर पर कार्यरूप दे रहा है। इसके लिए मैं विश्वविद्यालय से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति की सराहना करती हूं। विभिन्न प्रदेशों में स्थित इस विश्वविद्यालय के परिसरों में संस्कृत में उपलब्ध शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है तथा अनुसंधान कार्य भी किया जा रहा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय भाषाओं तथा उनके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान को प्रसारित करने पर ज़ोर दिया जा रहा है। इसके लिए मैं शिक्षा मंत्री श्री धर्मेन्द्र प्रधान जी और उनकी टीम के सभी सदस्यों की सराहना करती हूं।
मुझे बताया गया है कि इस विश्वविद्यालय के परिसरों में आदिवासी-वनवासी समुदायों के अनेक विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान की जा रही है। जिस भाषा में गार्गी, मैत्रेयी, अपाला और लोपामुद्रा जैसी महिला विभूतियों ने ज्ञान का अमर अवदान दिया हो उसके अध्ययन-अध्यापन में महिलाओं की भागीदारी अधिक से अधिक होनी ही चाहिए। मुझे यह देखकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि आज स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में छात्राओं की संख्या लगभग समान है। यह प्रसन्नता की बात है कि आज उपाधि प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में लगभग 47 प्रतिशत संख्या छात्राओं की है। यह महिला सशक्तीकरण के प्रयासों में इस केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय का सराहनीय योगदान है।
प्यारे विद्यार्थियो,
आदर्श जीवन-शैली के लिए योगसूत्र और घेरण्ड-संहिता जैसे अमूल्य ग्रंथ संस्कृत भाषा में सदियों पहले लिखे गए। आज का आधुनिक विश्व समुदाय उस जीवन-शैली की वैज्ञानिकता को मानता है और अपनाता है। इक्कीस जून के दिन प्रति वर्ष अंतर-राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाता है। योग दर्शन तथा योगानुशासन पर आधारित जीवन-शैली विश्व समुदाय को संस्कृत भाषा की अमूल्य सौगात है। आप जैसे संस्कृत के विद्यार्थियों से यह सहज अपेक्षा की जाती है कि आप सब योगानुशासन को अपने जीवन में ढालेंगे।
आध्यात्मिकता और नैतिकता से जुड़े विषयों पर अनगिनत उत्कृष्ट रचनाएं संस्कृत भाषा में उपलब्ध हैं। मुझे विश्वास है कि नीति ग्रन्थों और सुभाषितों में संचित जीवनोपयोगी उपदेशों को आप सब अपने आचरण का हिस्सा बनाएंगे। प्राचीन काल में आचार्यों द्वारा अंते-वासियों को जो उपदेश दिए जाते थे वे आज भी प्रासंगिक हैं और हमेशा उपयोगी रहेंगे। सत्य बोलना, नैतिकतापूर्ण आचरण करना, स्वाध्याय में प्रमाद न करना, कर्तव्य से विमुख न होना तथा मंगलकारी कार्यों के प्रति सचेत रहना आप सब का संकल्प होना चाहिए। ऐसा करके आप अपनी प्रतिभा के साथ न्याय कर सकेंगे और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में सफल होंगे।
संस्कृत भाषा का एक लोकप्रिय कथन मुझे अत्यंत प्रिय है और उसका उल्लेख मैं करना चाहती हूं:
भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतम् संस्कृतिस्तथा
अर्थात
भारत की प्रतिष्ठा के दो आधार-स्तम्भ हैं। प्रथम है देव-वाणी संस्कृत भाषा और दूसरा आधार-स्तम्भ है, हमारी संस्कृति।
मुझे विश्वास है कि केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के आप सभी विद्यार्थी-गण संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति की श्रीवृद्धि करते रहेंगे। संस्कृत भाषा में संचित हमारी अनमोल विरासत को मजबूत बनाते हुए, आप सब विकसित भारत के नवनिर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देंगे, इसी आशा के साथ मैं आप सबके स्वर्णिम भविष्य की मंगल-कामना करती हूं, और अपनी वाणी को विराम देती हूं।
धन्यवाद,
जय हिन्द!
जय भारत!