भारत की माननीय राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का सीएलईए-कॉमनवेल्थ अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल सम्मेलन के समापन समारोह में संबोधन।

नई दिल्ली : 04.02.2024

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मुझे यहां अटॉर्नी और सॉलिसिटर जनरलों, कानूनी और न्यायिक संस्थान के अन्य सदस्यों और राष्ट्रमंडल देशों के कानूनी विद्वानों की गरिमामयी सभा में आकर प्रसन्नता हो रही है। आप में से अनेक लोग दूर-दूर से आए हैं, और आप सभी ने एक महत्वपूर्ण मुद्दे, अर्थात् न्याय प्रदान करने में सीमा पार की चुनौतियों पर विचार-मंथन के लिए दो दिन का समय निकाला है। मुझे आशा है कि सम्मेलन के दौरान आप सब ने औपचारिक और अनौपचारिक यादगार चर्चाएँ तथा विचारों और अनुभवों का उपयोगी आदान-प्रदान किया होगा।

आज मैं, दुनिया के कानूनी क्षेत्र के कुछ बेहतरीन दिमागों के समक्ष हूं। आप सब एजेंडे के विभिन्न विषयों पर सटीक बारीकियों और विस्तृत विवरण में विचार-विमर्श कर चुके हैं और मैं केवल एक सामान्य और आम अवलोकन कर सकती हूं जो आपकी जमीनी स्तर की जानकारी का पूरक है।

मैं एक मूल प्रश्न पूछती हूँ कि 'जस्टिस' से क्या अभिप्राय है? महान भारतीय ज्ञान परंपरा में इसके अनेक उत्तर हैं। 'जस्टिस' के सबसे निकट संस्कृत का शब्द 'न्याय' है, जिसका अर्थ है जो उचित है और सही है। 'न्याय' भारतीय शास्त्रीय दर्शन की छह प्रणालियों में से एक प्रणाली का नाम भी है, जो मूलतः पश्चिम में तर्क अध्ययन के समान है।

तो, जो सही और न्यायसंगत है वह तार्किक रूप से भी सही है। ये तीन गुण मिलकर किसी समाज की नैतिक व्यवस्था को परिभाषित करते हैं। इसीलिए आप, कानूनी पेशे और न्यायपालिका के प्रतिनिधि ही हैं जो व्यवस्था बनाए रखने में मदद करते हैं। यदि उस आदेश को चुनौती दी जाती है, तो आप ही हैं, जो वकील या न्यायाधीश, कानून के छात्र या शिक्षक के रूप में, इसे फिर से सही करने के लिए सबसे अधिक प्रयास करते हैं।

जैसा कि कानून के क्षेत्र के बहुत से शिक्षक और विद्यार्थी जानते हैं, 'न्याय' प्राचीन भारत में शिक्षा का मूलभूत तत्व रहा है। न्याय की यह सदियों पुरानी अवधारणा, आधुनिकता के आगमन तक भारत में ग्रामीण स्तर पर न्याय वितरण प्रणाली में दिखती रही है। आधुनिक समय में, असाधारण नेताओं की दो या तीन पीढ़ियों ने एक नई राष्ट्रीय जागरूकता लाने में मदद की है। उस समय बहुत ध्यान देने योग्य बात थी कि उनमें से अधिकांश ने कानून की पढ़ाई इंग्लैंड में की थी। मुझे विश्वास है कि उन दिनों राष्ट्रमंडल के कई अन्य सदस्यों के पास इसी पृष्ठभूमि वाले नेता थे। यह विरासत ही हमें एक परिवार के रूप में एकजुट करती है। इस सामान्य पैटर्न का स्पष्ट कारण यह है कि आधुनिक राष्ट्र की नींव के लिए किया जाने वाला कोई भी प्रयास न्याय की सामान्य समझ से शुरू किया जाना चाहिए।

औपचारिक रूप से यह प्रक्रिया, संविधान के लेखन की ओर चली। सौभाग्य से भारत ने डॉ. बी.आर. आम्बेडकर को संविधान सभा की प्रारूप समिति का प्रमुख नियुक्त किया। उन्होंने 'न्याय' की धारणा का विस्तार किया। मेरा मानना ​​है कि 'न्याय' की उनकी अवधारणा न केवल भारत में बल्कि दुनिया के सभी हिस्सों के लिए प्रासंगिक है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में "न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिकता" की बात कही गई है। इसलिए, जब हम 'न्याय प्रदान करने' की बात करते हैं, तो हमें सामाजिक न्याय सहित इसके सभी पहलुओं को ध्यान में रखना होता है।

आज जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना कर रही है, हमें न्याय की अवधारणा के विभिन्न पहलुओं में पर्यावरणीय न्याय को भी जोड़ देना चाहिए। जैसा कि हम देखते हैं पर्यावरणीय न्याय के मुद्दे अक्सर सीमा से पार की चुनौतियां पैदा करते हैं। 'न्याय प्रदान करने में सीमा पार की चुनौतियां' इस सम्मेलन का प्रमुख विषय रही हैं।'।

प्रिय मित्रों,

हमारे पर्यावरण के मामले में हम सब आपस में जुड़े हुए हैं। व्यापार और वाणिज्य का वैश्वीकरण इस अंतरसंबंध का एक और उदाहरण है। इसके अलावा, हाल के दशकों में प्रौद्योगिकी के उपयोग से हमारी एक-दूसरे के निकटता बनी है। जब हम जटिल सीमा पार कानूनी चुनौतियों का पता लगाते हैं, तो हमें दो बातों को ध्यान में रखना होगा। सबसे पहले, मानव जाति का अंतर-संबंध और अंतर-निर्भरता का एक लंबा और समृद्ध इतिहास है। दूसरे, तकनीकी क्रांति से एक बार फिर वह अंतर-संबंध सामने आया है। इससे अक्सर कानून में चुनौतीपूर्ण स्थितियां पैदा होती हैं, लेकिन हमें हमेशा अपने साझा विषय मानवता और मानवीय मूल्यों का ध्यान रखना चाहिए।

मुझे खुशी है कि कॉमनवेल्थ लीगल एजुकेशन एसोसिएशन ने एक साझा भविष्य के लिए एक रोडमैप तैयार करने की जिम्मेदारी ली है जो सीमाओं से पार है और समानता और सम्मान पर आधारित प्राकृतिक न्याय के मौलिक सिद्धांतों पर आधारित है। मेरा मानना ​​है कि आवश्यक सहयोग के लिए यह एक आदर्श मंच है। राष्ट्रमंडल, अपनी विविधता और विरासत से विश्व को सहयोग की भावना से साझा चिंताओं को दूर करने का रास्ता दिखा सकता है।

जैसा कि बहुत से विदेशी पर्यवेक्षकों ने भी नोट किया है, भारत, वैश्विक विमर्श में एक प्रमुख हितधारक के रूप में उभरा है। मुझे विश्वास है कि जब न्याय प्रदान करने के बारे में अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की बात होती है तो भारत बहुत कुछ समाधान दे सकता है। भारत न केवल सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि इतिहास गवाह है कि यह सबसे पुराना लोकतंत्र भी है। इस समृद्ध और लंबी लोकतांत्रिक विरासत में हमने जो सीखा है उससे हम आधुनिक समय में न्याय प्रदान करने में मदद कर सकते हैं।

प्रिय मित्रों,

जब मैं इस सम्मेलन के एजेंडे को देख रहा थी, तो मुझे यह देखकर खुशी हुई कि उप-विषयों का सावधानीपूर्वक चयन किया गया है, इसका एक विषय मेरे दिल के करीब रहा है, वह है: 'न्याय तक पहुंच: अंतराल समाप्त करना'। मुझे खुशी होगी यदि राष्ट्रमंडल देश इस क्षेत्र में अपने अनुभवों और सबक का आदान-प्रदान करें।

सम्मेलन में विमर्श को, विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के डीन और कुलपतियों के साथ-साथ वरिष्ठ विद्यार्थियों और विद्वानो की भागीदारी से लाभ मिला होगा। युवा अधिक सोच सकते हैं और वे उन समस्याओं के लिए नवीन और आउट-ऑफ़-द-बॉक्स समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं जिन्हें सबसे अनुभवी पेशेवर नहीं सुलझा सकें। युवा नई तकनीकों की अधिक जानकारी रखते हैं और ये नए तरीके के समाधान भी प्रस्तुत कर सकती हैं।

उप-विषयों में, मुझे "कानूनी व्यवहार में नैतिकता और जवाबदेही" विषय देखकर खुशी हुई, जिसे देखकर मुझे महात्मा गांधी के जीवन की एक घटना का स्मरण हो आया। संयोग से उन्होंने लंदन में कानून का अध्ययन किया और उनकी किस्मत बदल गई साथ ही अनगिनत अन्य लोगों की किस्मत भी बदल दी। वह एक कानूनी विवाद में सहायता के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे और अंततः दोनों पक्षों को एक समझौते पर लाने का एक रास्ता ढूंढ लिया था। दोनों पक्षों ने उसके समाधान का ख़ुशी से स्वागत किया। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, जिसे मैं उद्धृत करना चाहूंगी, ‘मैं बहुत प्रसन्न था। मैंने सच्ची वकालत प्रैक्टिस सीख ली थी। मैंने मानव स्वभाव के बेहतर पक्ष का पता लगाना और लोगों के दिलों में प्रवेश करना सीख लिया था। मुझे यह एहसास हुआ कि वकील का असली कार्य टूटे हुए पक्षों को मिलाना है। यह पाठ मेरे अंदर इस कदर अमिट रूप से अंकित हो गया कि एक वकील के रूप में मेरी प्रैक्टिस के बीस वर्षों के दौरान मेरे समय का एक बड़ा हिस्सा सैकड़ों मामलों में निजी समझौते कराने में लगा। इससे मैंने कुछ भी नहीं खोया - पैसा भी नहीं, निश्चित रूप से अपनी आत्मा भी नहीं। कानूनों और विधानों की अंतहीन जटिलताओं के बीच, आइए हम अपने सामने मौजूद सरल और बुनियादी लक्ष्य को कभी न भूलें, वह लक्ष्य है मानव स्वभाव के बेहतर पक्ष का पता लगाना।

प्रिय मित्रों,

मैं, सभी प्रतिभागियों की हार्दिक सराहना करती हूं जिन्होंने इस कार्यक्रम के लिए अपना समय निकाला, अपना ज्ञान साझा किया और वार्ता को समृद्धि प्रदान की। मैं, सम्मेलन के आयोजकों को एक ऐसा मंच प्रदान करने के लिए भी बधाई देती हूं जो कानूनी और न्यायिक क्षेत्रों में साझा सरोकारों के मामलों पर इसी प्रकार की पहल शुरू करने के लिए साँचे के रूप में कार्य कर सकता है। आप सब को मेरी शुभकामनाएं।

धन्यवाद। 
जय हिन्द! 
जय भारत!

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