सहकारी समितियों को छठे द्विवार्षिक पुरस्कार प्रदान करने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

राष्ट्रपति भवन आडिटोरियम : : 08.12.2012

डाउनलोड : भाषण सहकारी समितियों को छठे द्विवार्षिक पुरस्कार प्रदान करने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण(हिन्दी, 89.08 किलोबाइट)

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मुझे अंतरराष्ट्रीय सहकारिता वर्ष 2012 के दौरान, सहकारिता विकास निगम द्विवार्षिक सहकारिता उत्कृष्टता पुरस्कार 2012 प्रदान करते हुए बहुत खुशी हो रही है। शुरुआत में मैं, सभी पुरस्कार विजेताओं को बधाई देना चाहूंगा जिनकी उपलब्धियों को राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर सराहा गया है। वर्ष 2002 में शुरू किए गए ये पुरस्कार, जमीनी स्तर की सहकारी संस्थाओं में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ावा देते हैं तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में उनके विशिष्ट योगदान को मान्यता देते हैं। मैंने देखा है कि इस वर्ष राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम ने सहकारिता में उत्कृष्टता के लिए तीन नए राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार स्थापित किए हैं।

मैं उन समितियों को बधाई देता हूं जिन्हें सहकारिता में उत्कृष्टता के लिए राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम द्विवार्षिक पुरस्कारों के लिए चुना गया है। मुझे विश्वास है कि ये पुरस्कार नई आशा की भावना जगाने में और इन सहकारी संस्थाओं में नई जीवंतता और सजीवता लाने में देश की अन्य सहकारी समितियों को प्रेरणा देंगे और उन्हें आगे आने वाले समय में और भी बेहतर ढंग से कार्य करने के योग्य बनाएंगे।

भारत में सहकारिता आंदोलन का इतिहास एक सौ साल से अधिक पुराना है। औपचारिक सहकारी ढांचे के स्थापित होने से भी पहले भारत में सहकारिता और सहकारी क्रियाकलापों की परिपाटी मौजूद थी। ग्रामीण समुदाय, गांव में पानी की टंकियों, अथवा गांव के जंगलों जैसी साझा परिसंपत्तियों का निर्माण खुद मिलकर करते थे और बीजों को इकट्ठा रखते थे तथा अपनी साझा फसल का मिल बांटकर उपयोग करते थे। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में खेती के हालात तथा संस्थागत वित्तीय व्यवस्था की गैर-मौजूदगी के कारण भारतीय किसानों पर बहुत कर्ज हो गया। इस के समाधान के लिए सरकार ने बहुत से प्रयास किए, जिसमें 1904 का सहकारिता ऋण समिति अधिनियम भी था। अक्टूबर 1946 में दो प्राथमिक दुग्ध समितियों के पंजीकरण ने इतिहास रचा। इसके बाद उसी साल खेड़ा जिला सहकारिता दुग्ध उत्पादन संघ, जिसे अमूल के नाम से जाना जाता है, का पंजीकरण हुआ। 1947 में भारत के आजाद होने के बाद सहकारिता के विकास को विधिवत् मान्यता मिली और सहकारी संस्थाओं को, खासकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के रूपांतर के लिए भारत के योजना आयोग द्वारा तैयार की गई पंचवर्षीय योजनाओं में केंद्रीय भूमिका प्रदान की गई।

देवियो और सज्जनो,

सहकारी संस्थाएं, ग्रामीण क्षेत्रों में समावेशी विकास हेतु समाजिक-आर्थिक विकास लाने के लिए हमारे देश में प्रमुख संस्थाएं हैं। सहकारिता आंदोलन ने हमारे पूर्वजों की सहायता की जिन्होंने देश के आर्थिक विकास की प्रक्रिया में इसे प्रमुख स्थान दिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक ऐसे भारत की परिकल्पना की थी जिसमें, ‘‘ऐसा सहकारिता आंदोलन हो, जो कि मौटे तौर पर हर गांव तथा अन्य स्थान पर इसे बुनियानी गतिविधि बना दे तथा अंतत: सहकारिता भारत के सामूहिक चिंतन को प्रभावित करे। इसलिए भारत का संपूर्ण भविष्य करोड़ों लोगों के प्रति हमारे इस नजरिए की सफलता पर निर्भर करता है।’’ उन्होंने एक ऐसे भारत की परिकल्पना की थी जहां पर हर-एक गांव में एक पंचायत, एक सहकारी संस्था तथा एक स्कूल होगा।

आज 24 करोड़ सदस्यों वाली छह लाख सहकारी संस्थाओं के साथ भारतीय सहकारिता आंदोलन समतापूर्ण तथा समावेशी विकास सुनिश्चित करने का एक कारगार आर्थिक उपाय सिद्ध हुआ है। भारत में सहकारी संस्थाओं ने हमारी अर्थव्यवस्था के समग्र आर्थिक विकास में नजर आने वाला तथा महत्वपूर्ण योगदान दिया है। खासकर कृषि ऋण, चीनी, डेरी, कपड़ा, मत्स्यपालन, खाद्य वितरण तथा कृषि निवेश, भंडारण और विपणन के क्षेत्रों में है। उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि विकास तथा प्रगति से फायदे का एक बड़ा हिस्सा छोटे तथा सीमांत किसानों को प्राप्त हो।

देवियो और सज्जनो,

पूरी दुनिया में, सहकारिता से प्राप्त होने वाले फायदे तथा इसके महत्व को स्वीकार करते हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ ने, सहकारिता के बारे में जनता में जागरुकता तथा सामाजिक आर्थिक विकास में उनके योगदान को बढ़ाने तथा सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने और सहकारी संस्थाओं के लक्ष्य तथा उनके विकास को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 2012 को अंतरराष्ट्रीय सहकारिता वर्ष घोषित किया है। यह वर्ष राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम की स्थापना का भी वर्ष है। इसलिए यह पुरस्कार समारोह सहकारी संस्थाओं के विकास के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। पिछले 50 उपलब्धिपूर्ण वर्षों के दौरान, राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम, जो कि विशिष्टतया सहकारी संस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने वाला एक वित्तीय संस्थान है, ने कई उपलब्धियां हासिल की है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास तथा देश के ग्रामीण अंचलों से पिछड़ापन दूर करने के अंतिम लक्ष्य को ध्यान में रखकर बहुत सी पहलें शुरू की है।

हमारे देश में सहकारी संस्थाओं को बहुत सी चुनौतियों और समस्याओं का सामना करना पड़ता है। विभिन्न सेक्टरों, गतिविधियों और क्षेत्रों में उनकी उपलब्धि अलग-अलग है, उन्हें अपनी कारगारता में सुधार लाने के लिए फिर से अपना अभिमुखीकरण करना होगा और अपने प्रमुख ग्राहकों-किसानों , फसल उगाने वालों, कारीगारों, उत्पादों तथा महिलाओं की जरुरतों को पूरा करने के लिए स्वयं को पेशेवराना ढंग से विकसित करना होगा तथापि, अभी सहकारी संस्थाएं देश के निर्धन तथा सीमांत तबकों वाले विस्तृत अंचलों तक पहुँचने का सबसे उत्तम तरीका हैं।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, सरकार ने 97वां संविधान संशोधन लाकर सहकारिता की दिशा में बड़ी पहल की है और इसके द्वारा सहकारिता के विकास के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया है। इससे सहकारी संस्थाओं को लोकतांत्रिक, स्वायत्त तथा व्यावसायिक ढंग से संचालित होने का मौका मिलेगा। इस संशोधन द्वारा सहकारी समिति गठन करने का अधिकार अब एक मौलिक अधिकार बन गया है। इस अधिनियम से मजबूत सहकारिता आंदोलन के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है। इस विकास को और जमीनी स्तर तक ले जाने के लिए संबंधित राज्य सरकारों को भी जरुरत के अनुसार राज्य के कानूनों आदि में संशोधन करके अनुकूल परिवेश बनाने की जरुरत है।

अंत में मैं एक बार फिर पुरस्कार विजेताओं को बधाई देता हूं। मैं श्री शरद पवार, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण मंत्री तथा उनके मंत्रालय को सहकारी संस्थाओं के माध्यम से हमारी अर्थव्यवस्था के सतत् आर्थिक विकास के लिए निरंतर प्रयास के लिए बधाई देना चाहूंगा।

मैं अपनी बात ऋग्वेद के एक सूक्त से समाप्त करना चाहूंगा जो कि सच्चे मायने में ‘सहकारिता’ की भावना का सटीक चित्रण करता है:

समानी व आकूति:  
समाना हृदयानि व:।  
समानमस्तु वो मन:  
यथा व: सुसहासति॥

जिसका अर्थ है:

हम सभी का एक उद्देश्य हो,  
हम सभी के हृदय एक हों  
हम सभी की सोच एक हो  
जिससे हम अपना काम दक्षता से और अच्छी तरह कर सकें।

धन्यवाद  
जय हिंद!

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