मानवाधिकार दिवस समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
Vigyan Bhavan, New Delhi : 10.12.2012
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मुझे, आज भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा आयोजित मानवाधिकार दिवस समारोह में भाग लेकर बहुत खुशी हो रही है। मुझे इस सभा को संबोधित करते हुए बहुत खुशी हो रही है जो कि सार्वभौमिक महत्त्व तथा समसामयिक प्रासंगिकता के अवसर को मनाने के लिए यहां इकट्ठा हुई है। यह दिन विश्व के सभी नागरिकों के लिए मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए मनुष्य के प्रयासों में एक प्रमुख उपलब्धि का दिन है।
इस दिन वर्ष 1948 में, संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा पत्र अंगीकृत किया था जिसमें उद्घोषित किया गया है कि ‘‘सभी मनुष्य मुक्त पैदा होते हैं और उनकी गरिमा तथा अधिकार समान हैं।’’ तब से 64 वर्ष बीत चुके हैं। इस घोषणा पत्र ने बहुत से देशों का यह सुनिश्चित करने की दिशा में मार्गदर्शन किया है कि उनके कानून मानवाधिकारों की बुनियादी शर्तों के अनुरूप हों।
आज के विश्व में जहां आज भी विकसित तथा विकासशील देशों में मानवाधिकार चुनौती बने हुए हैं यह घोषणा पत्र अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा उन मानदंडों के लिए पथप्रदर्शक की भूमिका निभाता है जो उन्हें मानवाधिकार की रक्षा तथा उनको बढ़ावा देने के लिए स्थापित करने चाहिए। सार्वभौमिक घोषणा पत्र एक ऐसा संदर्भ दस्तावेज है जिसके अंदर से अन्याय तथा मनमर्जी के व्यवहार से, कमजोर तथा वंचितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी अनुवर्ती मानवाधिकार संबंधी कानूनी उपाय विकसित हुए हैं।
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आंदोलन से भारत का संबंध बहुत गहरा है। डॉ. हंसा मेहता, जो कि एक स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद् तथा समाज सुधारक थी, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत का प्रतिनिधि रहीं, जिसने इस घोषणा पत्र का मसौदा तैयार किया था। उन्होंने इस घोषणा पत्र के मसौदे को तैयार करने में, खासकर लैंगिक समानता के विषय पर, महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।
आजादी से पहले भी, भारत मानवाधिकारों को बढ़ावा देने और उसकी सुरक्षा को अपना समर्थन देने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहा। मानवाधिकारों के अनुपालन के प्रति इच्छा तथा मानवीय गरिमा के प्रति सम्मान हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने दुनिया के अन्य भागों में इसी प्रकार के आंदोलनों पर प्रमुख प्रभाव तथा प्रेरणा के रूप में कार्य किया।
वर्ष 1895 में ही, एक महान नेता बालगंगाधर तिलक ने स्वराज बिल प्रस्तुत किया था जिसमें, बोलने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता का अधिकार, मत देने का अधिकार जैसे अधिकार शामिल थे। माँटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बंबई के अपने विशेष अधिवेशन में यह मांग की थी कि गर्वनमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में बुनियादी मानवाधिकारों के प्रतीक के रूप में लोगों के अधिकारों संबंधी घोषणा पत्र शामिल होना चाहिए। वर्ष 1927 में मद्रास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में यह संकल्प पारित किया गया था कि भारत के भावी संविधान में मौलिक अधिकारों संबंधी घोषणा पत्र शामिल होना चाहिए। वर्ष 1928 में मोतीलाल नेहरू कमेटी तथा 1944-45 में तेज बहादुर सप्रू कमेटी, जिसने भारत के संविधान का मसौदा तैयार किया था, में भी मौलिक अधिकारों पर जोर दिया गया था।
हमारे राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी को उस समय विश्व के प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता था जब सार्वभौमिक घोषणा पत्र का मसौदा तैयार किया जा रहा था। इसलिए महात्मा गांधी से उन तत्त्वों पर विचार-विमर्श किया गया था जो कि सार्वभौमिक घोषणा पत्र में शामिल होने चाहिए। गांधी जी के राजनीतिक दर्शन का सार प्रत्येक व्यक्ति का सशक्तीकरण तथा प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा तथा आत्मसम्मान की रक्षा है। यही सार्वभौमिक घोषणा पत्र का केंद्रीय संदेश है। सार्वभौमिक घोषणा पत्र यह भी स्वीकार करता है कि अधिकार कर्तव्यों के साथ आते हैं और गांधी जी द्वारा इसी विचार को दृढ़ता से प्रोत्साहित किया गया था।
जहां सार्वभौमिक घोषणा पत्र में भारत के विचारों को डॉ. हंसा मेहता के योगदान से स्थान मिला वहीं भारत के संविधान को भी इस घोषणा पत्र से प्रेरणा मिली। हमारे देश के संविधान का निर्माण करते हुए हमारे देश के संस्थापकों ने मौलिक अधिकारों पर संविधान के भाग-III में दिए गए प्रावधानों की रचना करते हुए सार्वभौमिक घोषणा पत्र का उपयोग किया था। परिणामस्वरूप, हमारे संविधान में शामिल मौलिक सिद्धांतों तथा मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेदों में कई एक जैसे प्रावधान हैं। उदाहरण के लिए, कानून के सामने समानता, धर्म, जाति अथवा लिंग के आधार पर भेदभाव न करना, बोलने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन और आजादी की स्वतंत्रता तथा अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध न्यायिक उपचार, इन दोनों दस्तावेजों में मौजूद है।
भारत, मानवाधिकारों संबंधी सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों का हस्ताक्षरकर्ता है जिनमें सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय संधि, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय संधि, तथा सभी प्रकार के जातीय भेदभावों की समाप्ति, महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभावों की समाप्ति, बाल अधिकार, विक्लांग जन अधिकार शामिल हैं।
आजादी के बाद, विश्व स्तर पर और देश के अंदर मानवाधिकारों की संरक्षा तथा रक्षा के प्रति हमारी प्रतिबद्धता के बारे में कोई दो राय नहीं रही है। भारत यह मानता है कि जीवन तथा स्वतंत्रता के अधिकार जैसे कुछ अधिकार इन्सान द्वारा सदैव मूल अधिकार माने गए हैं। यदि मानवाधिकार इन्सान से अभिन्न हैं तो उन्हें सभी स्थानों और सभी समय में सभी इन्सानों पर समान रूप से लागू होने चाहिए। ये अधिकार मानव के अपने अस्तित्व के लिए मौलिक अधिकार हैं और केवल समाज की किसी एक श्रेणी अथवा एक वर्ग के लाभ के लिए ही नहीं है। हमारे संविधान में यही स्थिति व्यक्त होती है। जीवन तथा वैयक्तिक स्वतंत्रता का अधिकार, इसके अधिकार क्षेत्र में सभी लोगों को उपलब्ध है न कि केवल इसके नागरिकों को।
देवियो और सज्जनो,
मानवाधिकार शांति एवं विकास की संकल्पना का केन्द्रीय तत्त्व है। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव श्री कोफी अन्नान ने एक बार कहा था : ‘‘हम बिना विकास सुरक्षा का आनंद नहीं उठा पाएंगे, हम बिना सुरक्षा विकास का आनंद नहीं उठा पाएंगे और हम बिना मानवाधिकारों का सम्मान किए इन दोनों में से किसी का भी आनंद नहीं उठा पाएंगे।’’ केवल राजनीतिक अधिकारों को बढ़ावा देने से ही मानवाधिकारों का पूरा आनंद नहीं उठाया जा सकता। इसी तरह आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकार भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजनीतिक तथा सामाजिक-आर्थिक, दो प्रकार के अधिकार परस्पर निर्भर हैं। सार्वभौमिक घोषणा में इसी विचार की प्रतिध्वनि मिलती है जिसकी भूमिका में ऐसे विश्व के सृजन की बात कही गई है जो कि भय और अभाव से मुक्ति को आम आदमी की सर्वोच्च आकांक्षा घोषित करता है।
संविधान को अंगीकृत करने के अवसर पर, हमारे संविधान के प्रमुख निर्माता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने कहा था, ‘‘26 जनवरी, 1950 को हम विरोधाभाषों से भरे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे जबकि सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे में लगातार एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकार रहे हैं। इस तरह के विरोधाभासों के जीवन को हम कब तक जीते रहेंगे। कब तक हम अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे। यदि हम बहुत दिनों तक इसे नकारते रहे तो ऐसा हम केवल अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डालकर करेंगे। हमें इस विरोधाभास को यथाशीघ्र समाप्त करना होगा वरना जो लोग इस असमानता से कष्ट उठा रहे हैं, वे लोकतंत्र के ढांचे को उखाड़ फेंकेंगे, जिसका निर्माण इस सांविधानिक सभा ने इतने परिश्रम से किया है।’’
आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों में निहित है जो कि हमारे संविधान के भाग-IV में मौजूद है। इन सिद्धांतों को देश के शासन के लिए मूलभूत कहा गया है। ये केंद्र और राज्य सरकारों के लिए दिशा निर्देश हैं जिन्हें कानून और नीतियों का निर्माण करते हुए ध्यान में रखा जाना है।
विकास के बारे में हमारे दृष्टिकोण में हमने निर्देशक सिद्धांतों से सहायता ली है तथा शिक्षा, रोजगार और खाद्य सुरक्षा के मामले में अधिकार पर आधारित नजरिया अपनाया है जो कि सम्मानजनक मानवीय अस्तित्व के लिए मौलिक आवश्यकता है। हमने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 तथा शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 बनाकर अपने नागरिकों की कानूनी हकदारियों से मजबूत करने का समर्थन किया है। खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के बारे में कानून भी आने वाला है।
सुशासन, लोगों द्वारा अपने अधिकारों को प्रयोग करने के लिए जरूरी है। पारदर्शिता तथा जवाबदेही की संकल्पनाओं को कार्य में परीणत करने की जरूरत है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 हर एक व्यक्ति को जन प्राधिकारियों के नियंत्रण के तहत सूचना को प्राप्त करने का अधिकार देता है।
देवियो और सज्जनो,
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 1993 में अपनी स्थापना के समय से ही देश में मानवाधिकारों के प्रोत्साहन और सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह लोगों के अधिकारों की सुरक्षा में प्रमुख भूमिका निभाता रहा है। यह मानवाधिकार के प्रति समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जागरूकता और चेतना फैलाने में जुड़ा रहा है। इस संस्थान की विश्वसनीयता इस बात से और बढ़ी है कि इस आयेग में विभिन्न पदों पर बेदाग छवि के लोग रहे हैं। संस्थान की इसी विश्वसनीयता के कारण देश के सबसे बड़े न्यायालय द्वारा इसे अत्यंत महत्त्व के मामले सौंपे जाते रहे हैं।
मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, जिसके तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन हुआ है, को एक मॉडल कानून माना गया है तथा इसका अनुकरण दुनिया के बहुत से देशों द्वारा किया गया है। हमारे आयोग के सफलतापूर्वक संचालन से बहुत से दूसरे देशों की इसी प्रकार के संस्थाओं को प्रेरणा मिली है। पिछले बहुत से वर्षों में इस आयोग ने अपने सम्मान तथा विशेषज्ञता के कारण व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता तथा उसकी गरिमा के अधिकार को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने देश में मानवाधिकार आंदोलन की प्र्रगति में भी योगदान दिया है।
देश के चहुंमुखी विकास के लिए राजनीतिक तथा सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के अनिवार्य संगम को मानवाधिकार आयोग ने बेहतर ढंग से समझा है। बाल-श्रम तथा बंधक श्रम के उन्मूलन, बच्चों, महिलाओं तथा समाज के सीमांत तबके के लोगों को अधिकार दिलाने तथा जन-स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में इसके द्वारा किया गया काम प्रशंसनीय है।
मानवाधिकार दिवस एक ऐसा अवसर है जब हम अपनी यात्रा के दौरान इस बारे में चिंतन कर सकते हैं कि एक देश के रूप में हम संविधान द्वारा निर्धारित रास्ते पर इतना दूर चल चुके हैं और मानवाधिकार तथा अपने सभी लोगों के जीवन को गरिमासंपन्न बनाने के लिए हमें अब आगे क्या प्रयास करने की जरूरत है।
मानवाधिकार दिवस के इस अवसर पर, मैं अपनी सरकार, न्यायपालिका, राष्ट्रीय आयोग जैसे सांविधिक निकायों और सिविल समाज से आग्रह करूंगा कि वे मानवाधिकार को बढ़ावा देने और उनकी सुरक्षा के लिए अधिकतम प्रयास करें। हमें मानवाधिकार को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करके उसके बारे में जागरूकता बढ़ानी होगी। मानवाधिकार की संस्कृति का हमारी राष्ट्रीय मानसिकता में समावेश होना चाहिए।
अंत में, मानवाधिकार के विभिन्न पहलुओं की रक्षा के लिए हमारा एक शानदार संविधान है और बहुत से अच्छे कानून एवं नीतियां हैं। तथापि मानवाधिकारों के प्रबंधन के लिए इतनी विशाल कानूनी अवसंरचना का कोई महत्त्व नहीं होगा यदि इसके कार्यान्वयन में खामी होगी। इसलिए हमें आम आदमी के लिए अपने कानूनों और सांविधानिक प्रावधानों को वास्तविकता में बदलने का प्रयास करना होगा।
धन्यवाद,
जय हिंद!