मैसूर विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

मैसूर, कर्नाटक : 27.07.2015

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1. मैसूर विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के उद्घाटन करने के ऐतिहासिक अवसर पर यहां उपस्थित होना मेरे लिए प्रसन्नता की बात है। यह देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से है। मुझे मैसूर की यात्रा करने का अवसर प्राप्त करके भी प्रसन्नता हुई है। अपनी पृष्ठभूमि में चामुंडी पर्वत श्रृंखला के साथ इस शहर में जगह-जगह पर सुंदर महल और आकर्षक भारत-अरबी इमारतें स्थित हैं।

2. ॒मैसूर आज शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र है जिसमें आयुर्वेद से लेकर चिकित्सा,प्रबंधन से लेकर इंजीनियरी, विधि और वाणिज्य जैसे विविध विषयों के प्रतिष्ठित संस्थान शामिल हैं। मैसूर विश्वविद्यालय,जिसका यहां मुख्यालय है, कर्नाटक की उच्च शिक्षा में अग्रणी है। इसकी स्थापना1916 में दीवान सर एम. विश्वेश्वरैया, के सुयोग्य सहयोग से ‘राजर्षि’नालवाड़ी कृष्णराजा वडियार के संरक्षण में की गई थी।

3. राजर्षि वडियार और दीवान विश्वेश्वरैया दोनों इस राज्य के लोगों तक ज्ञान पहुंचाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थे।1918 में इस विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में महाराजा ने विश्वेश्वरैया के बारे में सारगर्भित रूप से कहा था, ‘मैं महसूस करता हूं कि मुझे इस सार्वजनिक अवसर पर अपनी और अपने लोगों की ओर से अपने राज्य के दीवान सर एम. विश्ववेश्वरैया का आभार मानना चाहिए। यह मुख्यतौर से उनका देशप्रेम, उनका उत्साह तथा उनका दृढ़ समर्थन है जिसने भविष्य के एक छोटे से स्वप्न को एक जीती जागती रचना में बदल दिया तथा उनका नाम उन सभी व्यक्तियों में सबसे पहले लिया जाएगा जिनका हमारा विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के लिए ऋणी है।’

देवियो और सज्जनो,

4. इस अवसर पर मैं, इसका भविष्य संवारने वाले कुछ महान व्यक्तियों प्रथम कुलपति श्री एच.वी.नजुनदैया,डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन,डॉ. ब्रजेंद्र नाथ सील,डॉ. सी.आर.रेड्डी,प्रो. थॉमस डेनहाम,प्रो. ए.आर. वाडिया,प्रो. एम.हिरियन्ना,डॉ. के.वी.पुटप्पा (कुवेंपु) तथा डॉ. डी.जवारे गोड़ा का उल्लेख करना चाहूंगा। इसके बाद आने वाले लोगों ने इस समृद्ध विरासत को आगे बढ़ाते हुए तथा उद्देश्यपरक कार्य के साथ अग्रसर होते हुए संस्थान का ध्वज ऊंचा बनाए रखा।1960 में, सभी स्नातकोत्तर विभागों को एक ही स्थान पर,इस सुंदर मन-सगन-गोत्री पर इकट्ठा कर दिया गया, जहां आज हम उपस्थित हैं। इस परिसर का नाम कुलपति कुवेंपू ने रखा था जो एक महाकवि थे। उन्होंने बातचीत के माध्यम के रूप में मातृभाषा के प्रयोग पर बल दिया तथा अनगिनत विद्वानों को उच्च शिक्षा की पाठ्यपुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया।

5. इसके शैक्षिक प्रमुखों की संकल्पना तथा उससे जुड़े दूसरे लोगों की मेहनत से मैसूर विश्वविद्यालय प्रगति की गाथा बन गया है। मुझे बताया गया है कि11 विभागों से शुरुआत करने के बाद अब यहां 54 स्नातकोत्तर विभाग, दो स्नातकोत्तर केन्द्र, एक उपग्रह केन्द्र, चार संघटक कॉलेज, 49 अनुसंधान केन्द्र तथा 38 दूरवर्ती केन्द्र हैं। 64 देशों के 1400 विद्यार्थियों सहित इसके 85000विद्यार्थी हैं। शुरुआत में एक छोटी सी धारा आज एक उफनती हुई नदी बन चुकी है। मैं आप सभी को बधाई देता हूं तथा आपसे कार्य जारी रखने का आग्रह करता हूं।

6. इस विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य कुरुक्षेत्र के युद्ध में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए श्लोक से लिया गया है जिसमें कहा गया है, ‘न ही ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’जिसका अर्थ है, ज्ञान से पवित्र विश्व में कुछ नहीं है। उच्च शिक्षा के इस केन्द्र के संस्थापक शिक्षा को आम आदमी के द्वार तक पहुंचाना चाहते थे।1934 में कैम्ब्रिज में कुलपतियों के एक सम्मेलन में,महाराजा कॉलेज के प्रधानाचार्य प्रो. जे.सी रोल्लो ने ‘मैसूर प्रयोग’के बारे में बताया जिसमें अपनी विद्वता और ज्ञान युक्त विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपने ज्ञान को बांटने के लिए गांवों और सुदूर इलाकों में जाते थे। सम्मेलन में उपस्थित कुलपतियों ने इस मॉडल का अनुकरण करने की घोषणा की। आठ दशक के बाद भी ज्ञान के प्रचार-प्रसार की यह पद्धति हमारे देश में अभी तक प्रासंगिक है। इस संदर्भ में मैंने कहीं कहा है कि, ‘विश्वविद्यालय वट वृक्ष है जिसकी जड़ें मौलिक शिक्षा में,स्कूलों के विशाल नेटवर्क में निहित हैं, जो हमारे समुदायों के बौद्धिक कौशल को निर्मित करते हैं;हमें बीज, जड़ और शाखा से लेकर सबसे ऊंचे पत्ते तक इस ज्ञान वृक्ष के प्रत्येक भाग में निवेश करना होगा।’मैं आपके शैक्षिक प्रमुखों को ज्ञान के प्रसार के लिए संपूर्ण समाज के साथ जुड़े रहते हुए देखना चाहता हूं।

देवियो और सज्जनो,

7. भारत अपने 1.25 बिलियन लोगों में से 35 वर्ष की आयु से कम के दो तिहाई लोगों के कारण विश्व का एक अग्रणी राष्ट्र बन सकता है। अपने ऊर्जावान युवाओं की क्षमता के उपयोग के लिए,एक विश्वस्तरीय शैक्षिक प्रणाली आवश्यक है। यद्यपि भारत की विश्व में दूसरी सबसे विशाल उच्च शिक्षा प्रणाली है,परंतु20 प्रतिशत की प्रवेश दर युवाओं की भावी संभावनाओं को सुधारने अथवा ज्ञान प्रधान विश्व में अवसरों का लाभ उठाने के लिए पर्याप्त नहीं है। हमारे देश में श्रेष्ठ गुणवत्तापूर्ण संस्थानों के अभाव में बहुत से प्रतिभावान छात्र उच्च अध्ययन के लिए विदेश चले जाते हैं।

8. सरकार ने अन्य संस्थानों के अलावा,नए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों,राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों तथा केंद्रीय विश्वविद्यालयों को आरंभ करके उच्च शिक्षा क्षेत्र का विस्तार करने का उल्लेखनीय प्रयास किया है। निजी क्षेत्र ने भी उच्च शिक्षा के इस विस्तार में उल्लेखनीय योगदान देना शुरू किया है। तथापि,आज यदि हमारे देश की उच्च शिक्षा की स्थिति का उद्देश्यपूरक विश्लेषण किया जाए तो यह कहना आसान होगा कि केवल कुछ मुट्ठी भर उच्च शिक्षा संस्थान ही वैश्विक बाजार के लिए स्नातक तैयार करने की गुणवत्ता रखते हैं। प्रतिष्ठित एजेंसियों द्वारा प्रकाशित दुनिया की विश्वविद्यालयीय वरीयता में सर्वोच्च 200 स्थानों में भारतीय संस्थान अनुपस्थित हैं।

मित्रो,

9. उच्च शिक्षा क्षेत्र के बदलाव के लिए अनेक मोर्चों पर नवान्वेषी परिवर्तन की जरूरत होगी। श्रेष्ठ शिक्षकों की उपलब्धता उनमें से एक है। प्रतिभावान विद्यार्थियों के लिए रोजगार विकल्प के रूप में अध्यापन को और अधिक आकर्षक बनाना होगा। अध्यापन में नए विचार और विविधता पैदा करने के लिए विदेश से संकाय को भी बुलाया जाना चाहिए। आदान-प्रदान कार्यक्रमों,सेमिनारों और कार्यशालाओं में सहभागिता तथा शैक्षिक और उद्योग साझीदारों के साथ संयुक्त अनुसंधान और परियोजना कार्य अन्य क्षेत्र हैं जिसपर हमें जोर देने की आवश्यकता है।

10. यदि संकाय एक उच्च शिक्षा संस्थान की जीवन शक्ति है तो श्रेष्ठ संचालन ढांचा इसकी जड़ है। सुशासन को संस्थान की प्रगति में एक प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए शैक्षिक संस्थानों में सुविचारित निर्णय प्रक्रियाओं को सहयोग देने के लिए उद्योग और पूर्व छात्रों सहित विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की पहचान और समावेशन किया जाना चाहिए। शैक्षिक कार्यों में उद्योग को शामिल करने के संगठित प्रयास से अनुसंधान वृत्तियों के प्रायोजन,पीठों का निर्माण, इंटर्नशिप कार्यक्रमों का संचालन तथा विद्यार्थियों की रोजगार योग्यता में सुधार जैसे में लाभ लिए जा सकते हैं।

11. वर्तमान उच्च शिक्षा संस्थानों को गतिशील शिक्षण मॉडलों का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें अधिक से अधिक छात्रों में शैक्षिक सामग्री के कुशल प्रसार,ई-मंच के माध्यम से संसाधन व्यक्तियों को नियुक्त करने तथा अनुसंधान और अन्य शैक्षिक संस्थानों के साथ संबद्धता स्थापित करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना चाहिए। सहयोगात्मक साझीदारियों का लक्ष्य मानव कल्याण में वृद्धि की नई संकल्पनाओं के विकास में अग्रणी अनुसंधान तथा सहयोग होना चाहिए।

मित्रो,

12. दुर्भाग्यवश हमारे विश्वविद्यालयों में अनुसंधान सामान्यत: उपेक्षित है। इस प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए। हमारा देश बहुत सी सामाजिक आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है तथा उनमें से अधिकांश का समाधान अभी दूर है। हमें उन क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए जिसके लिए नवान्वेषी समाधानों की जरूरत है तथा अनुसंधान कार्यक्रम शुरू करने के लिए अपने विश्वविद्यालयों और संस्थानों की मदद करनी चाहिए। हमें बहुविधात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए क्योंकि विभिन्न अनुसंधान गतिविधियों के लिए विविध क्षेत्रों के प्रबुद्धजनों की बुद्धिमता की आवश्यकता होती है।

13. हमारे विश्वविद्यालयों को विद्यार्थियों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। एक कदम विद्यार्थियों तथा बुनियादी नवान्वेषकों के विचारों को साकार रूप देना हो सकता है। अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में नवान्वेषण क्लबों की स्थापना की पहल का अनुकरण अन्य भी कर सकते हैं। यह एक ऐसे मंच के रूप में कार्य करेगा जहां नवीन विचारों को प्रोत्साहन मिलेगा और नए उत्पादों के विकास के लिए नवान्वेषकों को प्रोत्साहित किया जाएगा। आपसे इस क्षेत्र में नवान्वेषण अभियान का नेतृत्व करने का आग्रह करता हूं।

14. अंत में, मैं लोगों की सार्थक सेवा के एक सौ वर्ष के आयोजन पर आपके संस्थान को बधाई देता हूं। कृपया अपने वर्ष भर के शताब्दी समारोहों,जिसके बारे में मुझे यह उल्लेख करते हुए प्रसन्नता हो रही है,कि इसमें एक थीम गीत, नाटक, वृत्तचित्र तथा आपके इतिहास पर फिल्म भी शामिल है, के सफल आयोजन के लिए मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें। भविष्य के लिए शुभकामनाएं!

धन्यवाद!

जयहिन्द।

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