डॉ. डी.वाई. पाटिल विद्यापीठ के छठे दीक्षांत समारोह में भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

पुणे, महाराष्ट्र : 26.06.2015

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मुझे डॉ. डी.वाई. पाटिल विद्यापीठ के छठे दीक्षांत समारोह के लिए आपके बीच उपस्थित होने का अवसर मिलने पर वास्तव में बहुत खुशी हो रही है। यह हमारे देश के उच्च शिक्षा के मानचित्र पर एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा केंद्रों में से एक है।

इस विद्यापीठ की स्थापना ‘विभिन्न विधाओं में शिक्षा के माध्यम से विकसित ज्ञानवान, सुसंस्कृत तथा आर्थिक रूप से गतिशील भारत को साकार’ देखने के स्वप्न के साथ 2003 में की गई थी। इस संस्थान ने डॉ. डी.वाई. पाटिल तथा उच्च समर्पित शिक्षकों के प्रेरक नेतृत्व में पिछले बारह वर्षों के दौरान इस उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मैं आप सभी को इसकी शानदार उन्नति तथा उच्च प्रतिष्ठा की दिशा में की गई प्रगति के लिए बधाई देता हूं। यह जानकर खुशी हो रही है कि इस संस्थान को राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद द्वारा ‘ए’ श्रेणी प्रदान की गई है।

विश्वविद्यालय औपचारिक शिक्षा ढांचे में सर्वोच्च स्थान पर स्थित हैं। इसलिए यह विश्वविद्यालयों का दायित्व है कि वे समाज की प्रगति के लिए मार्गदर्शन दें। प्राचीन भारत में नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, वल्लभी, ओदांतपुरी तथा सोमापुरा जैसे प्रख्यात विश्वविद्यालय विश्व स्तरीय शिक्षा की परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे। यह ज्ञानपीठें छठी सदी ईसा पूर्व से लेकर अगले अठारह सौ वर्षों तक उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विश्व शिक्षा प्रणाली पर अपना प्रभुत्व बनाए हुए थी। इस प्रणाली में बारहवीं सदी ईस्वी से पतन आरंभ हुआ। दुर्भाग्यवश, भारतीय उच्च शिक्षा को अभी उस उच्च स्थान को प्राप्त करना है।

प्रख्यात एजेंसियों द्वारा किए गए श्रेणीकरण के अनुसार कोई भी भारतीय संस्थान विश्व के सर्वोत्तम 200 विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं है। मैं यह बात उच्च शिक्षा संस्थानों के समक्ष बार-बार कहता रहा हूं। मेरा उद्देश्य केवल विश्वविद्यालयों को यह समझाना है कि वे श्रेणीकरण की प्रक्रिया में और व्यवस्थित पद्धति अपनाएं तथा बेहतर शैक्षणिक प्रबंधन के लिए सर्वांगीण बदलाव लाएं। ऊंचे दर्जे से उन्नति के अवसरों में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ विद्यार्थियों और शिक्षकों का मनोबल बढ़ता है।

देवियो और सज्जनो,

हम अपने विश्वविद्यालयों को ज्ञान के महान केंद्रों में कैसे बदलें। सबसे पहले शिक्षा को अनुसंधान और नवान्वेषण के साथ बाधारहित तरीके से संयोजित करने की जरूरत है। शिक्षा ज्ञान का प्रचार करती है जबकि अनुसंधान नए ज्ञान का सृजन करता है। नवान्वेषण उस ज्ञान को संपदा तथा सामाजिक भलाई में बदलता है। इस दिशा में अंतर-विधात्मक अनुसंधान तथा स्नातक स्तर पर अनुसंधान को बढ़ावा देना, सहयोगात्मक अनुसंधान तथा संयुक्त अनुसंधान पत्रों को प्रोत्साहन देना तथा मेधावी विद्यार्थियों को अनुसंधान के क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहित करना जैसे प्रयासों की जरूरत है। इस विद्यापीठ में आरंभ से ही अनुसंधान पर जोर दिया जा रहा है। मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि यहां वर्ष 2009 में सभी विशेषज्ञताओं में पीएचडी कार्यक्रम शुरू किए गए थे तथा आज 22 पीएचडी उपाधियां प्रदान की जा रही हैं।

नवान्वेषी विचारों को बढ़ावा देने पर खास ध्यान दिया जाना जरूरी है। आम आदमी के लिए उपयोगी व्यवहार्य उत्पादों के विकास के लिए जमीनी नवान्वेषकों के कौशल पर नजर रखे जाने की जरूरत है। अकादमिक समुदाय तथा नवान्वेषकों के बीच सेतु का कार्य करने के लिए कई केंद्रीय संस्थानों में नवान्वेषण क्लबों की स्थापना की गई है। मैं चाहूंगा कि हमारे निजी संस्थानों में भी इसी तरह के मंचों की स्थापना हो।

मित्रो,

अकादमिक संस्थानों में बहुआयामी बदलावों की जरूरत है। अच्छे स्तर के संकाय को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। संकाय द्वारा शिक्षा को कारगर ढंग से प्रदान करने के लिए सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की सहायता से अद्यतन शिक्षा पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए। संकाय को पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों और संगोष्ठियों में भाग लेते हुए विषय के अपने ज्ञान को भी उन्नत करना चाहिए। संस्थानों को अनुसंधान साझीदारी तथा पाठ्यक्रम सामग्री और विषय विशेषज्ञों के आदान-प्रदान के लिए अन्य संस्थानों के साथ तालमेल रखना चाहिए। संस्थानों को परियोजनाओं, पाठ्यक्रम डिजायन तथा इंटरर्नशिप कार्यक्रमों में मार्गदर्शन के लिए उद्योग के साथ नेटवर्क भी स्थापित करना चाहिए।

हमारे विश्वविद्यालय सामाजिक-आर्थिक विकास के पथ-प्रदर्शक हैं। इसके शिक्षण की प्रासंगिकता कक्षाओं, समाज तथा देश से आगे तक पहुंचनी चाहिए। इसी के साथ उन्हें अपने उदाहरण के द्वारा सामाजिक-आर्थिक बदलाव भी लाने चाहिए। तेज आर्थिक विकास की दिशा में सरकार द्वारा शुरू किए गए स्वच्छ भारत, आदर्श ग्राम, डिजिटल भारत तथा भारत में निर्माण जैसी पहलों में देश को उन्नत देशों की श्रेणी में पहुंचाने की क्षमता है। उनके सफल कार्यान्वयन के लिए समाज के बड़े वर्ग की सहभागिता जरूरी है। हमारी शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुसंधान तथा नवान्वेषण को इन राष्ट्रीय उद्देश्यों में योगदान देना होगा।

देवियो और सज्जनो,

हमारे शिक्षा मॉडल से न केवल मस्तिष्क विकसित होना चाहिए वरन् इससे सकारात्मक मानसिकता भी बननी चाहिए। किसी भी विद्यार्थी की क्षमता का निर्माण तथा उसके दृष्टिकोण का निर्माण साथ-साथ होना चाहिए। सृजनात्मक मानसिकता तथा सकारात्मक नजरिया मिलकर कुपोषण, वहनीय स्वास्थ्य सेवा, कारगर ऊर्जा उपयोग, पेयजल तथा स्वच्छता जैसी समाज को परेशान करने वाली समस्याओं के समाधान को खोजने में सहायता दे सकते हैं।

शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान की प्राप्ति और सक्षम मानवशक्ति का सृजन ही नहीं है वृहत स्तर पर शिक्षा राष्ट्र निर्माण करती है। सूक्ष्म स्तर पर इसे विद्यार्थियों का चरित्र निर्माण करना चाहिए। इस पावन अवसर पर में चाणक्य नीति शास्त्र से एक संस्कृत सुभाषित को उद्धृत करना चाहूंगा-

न चौर हार्यम न च राजहार्यम

न भ्रात्रभाज्यम न च भारकारी

व्यये कृते वर्धते नित्यं

विद्या धनं सर्वे धनं प्रधानम्

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं। मैं एक बार फिर से सभी विद्यार्थियों को उनकी सफलता के लिए बधाई देता हूं। मैं विद्यापीठ को भी उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

धन्यवाद,

जय हिंद!

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