डॉ. अम्बेडकर द्वारा परिकल्पित 21वीं सदी में भारत की संकल्पना पर डॉ. भीमराव अंबेडकर स्मृति व्याख्यान के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति का अभिभाषण

विज्ञान भवन, नई दिल्ली : 04.09.2014

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मुझे डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन द्वारा आयोजित किए जा रहे वर्ष 2014का पांचवां डॉ. बी.आर. अंबेडकर स्मृति व्याख्यान देकर प्रसन्नता हो रही है। मुझे यह सम्मान प्रदान करने के लिए सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री श्री थावर चंद गहलोत तथा आयोजकों के प्रति आभारी हूं।

2. डॉ. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के एक असाधारण नेता तथा हमारे समाज के दलित और पिछड़े वर्गों के अधिकारों के जुझारू योद्धा थे। भारत रत्न से सम्मानित, वह विद्वान, पत्रकार, शिक्षाविद्,विधि विशेषज्ञ, समाज सुधारक तथा राजनीतिक नेता थे। वह भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता थे तथा उन्हें हमारे संस्थापक राष्ट्र की स्थापना के इस दस्तावेज का अत्यंत परिश्रम के साथ प्रारूप तैयार करने में उनकी भूमिका के लिए सदैव याद रखा जाएगा।

3. डॉ. अंबेडकर का दर्शन और जीवन साहस और विश्वास की प्रतिमूर्ति है। उन्होंने अपनी जाति और गरीब आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण बहुत सी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करते हुए ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। उन्होंने मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और उसके बाद उन्हें न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की गई, जहां से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वे 1916 में यूनाइटेड किंग्डम चले गए, जहां उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इक्नॉमिक्स में अध्ययन किया और बाद में उन्हें ग्रेज इन द्वारा बैरिस्टर-एट-लॉ की उपाधि प्रदान की गई। भारत में अपनी वापसी के बाद, डॉ. अंबेडकर पीड़ित वर्गों की आवाज बन गए और उनके उत्थान के लिए बहुत से संगठन आरंभ किए।

4. डॉ. अंबेडकर की विरासत और भारत को उनके योगदान के दर्शन बहुत से क्षेत्रों में किए जा सकते हैं। ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्रोविंसियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ शीर्षक से पी-एच.डी. के उनके 1923 के शोध-पत्र ने भारत के वित्त आयोग के लिए सैद्धांतिक आधार प्रदान किया, जिसे बाद में वित्त की ऊर्ध्व और क्षैतिज संतुलन की समस्या के समाधान के लिए संविधान के अनुच्छेद 280 के द्वारा स्थापित किया गया। इसी प्रकार,भारतीय रिजर्व बैंक की संकल्पना भी डॉ. अंबेडकर द्वारा 1925 में ‘‘रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस’’के समक्ष प्रस्तुत दिशा-निर्देशों पर आधारित थी। आयोग के सदस्यों ने डॉ. अंबेडकर की पुस्तक ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी—इट्स प्रॉबलम्स एंड इट्स सोल्यूशन’ को एक अमूल्य संदर्भ स्रोत मात्र और केंद्रीय विधायी सभा ने इन दिशा-निर्देशों को अंतत: भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 के रूप में पारित कर दिया।

5. वायसराय की परिषद में श्रम मंत्री के रूप में डॉ. अंबेडकर ने 1942 में काम के घंटे 12से घटा कर 8 करने की लड़ाई का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। उन्होंने भारत में रोजगार केंद्रों की स्थापना के विचार का योगदान दिया। वह केंद्रीय तकनीकी विद्युत बोर्ड, राष्ट्रीय विद्युत ग्रिड प्रणाली तथा केंद्रीय जल सिंचाई और नौवहन आयोग की स्थापना के लिए लगभग अकेले जिम्मेदार थे। डॉ. अंबेडकर ने दामोदर घाटी परियोजना, हीराकुंड परियोजना तथा सोन परियोजना की स्थापना में एक अहम भूमिका निभाई।

6. पढ़ने के शौकीन, डॉ. अंबेडकर शिक्षा को निरक्षरता,अज्ञान और अंधविश्वास से सामाजिक रूप से पिछड़ों की मुक्ति का साधन मानते थे। उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षिक हितों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से 1945 में जन शिक्षा सोसायटी की स्थापना की। डॉ. अंबेडकर ने लैंगिक समानता के लिए भी संघर्ष किया तथा उन्होंने उत्तराधिकार और विवाह में महिलाओं के समान अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने 1951 में उस समय कैबिनेट से त्याग-पत्र दे दिया जब उनके हिन्दू कोड बिल का मसौदा संसद का समर्थन प्राप्त करने में नाकाम रहा।

7. निस्संदेह, डॉ. अंबेडकर का सबसे बड़ा और सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान भारत के संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उनकी भूमिका थी। भारी दूरदर्शिता तथा पांडित्यपूर्ण विद्वता से डॉ. अंबेडकर ने न केवल संविधान सभा के माध्यम से एक असाधारण प्रारूप पारित करवाया बल्कि विभिन्न प्रावधानों के पीछे के सिद्धांतों और कारणों को भी प्रस्तुत किया।

8. आज के व्याख्यान का विषय ‘‘डॉ. अम्बेडकर द्वारा परिकल्पित 21वीं सदी में भारत की संकल्पना’’ है। डॉ. अंबेडकर के स्पष्ट विचार थे कि वह भारत का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कायापलट देखना चाहते थे। वह चाहते थे कि भारत का विशाल जनसमूह स्वतंत्रता और समान अवसरों का लाभ उठाए। वह जातिवाद तथा सांप्रदायिकता से भारत को मुक्त करना चाहते थे तथा शिक्षा और विकास को देश के प्रत्येक कोने में पहुंचाना चाहते थे। वह चाहते थे कि भारत एक ऐसे आधुनिक राष्ट्र के रूप में उभरे जहां स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा फले-फूले तथा पिछड़ापन समाप्त हो जाए। डॉ. अंबेडकर आमूलचूल बदलाव में विश्वास करते थे, परंतु वह इस बदलाव को रक्तपात के जरिए लाना नहीं चाहते थे। वह संसदीय लोकतंत्र और विधिक शासन के माध्यम से परिवर्तन चाहते थे।

9. डॉ. अंबेडकर भारतीय संविधान को सामाजिक आर्थिक बदलाव के एक शक्तिशाली साधन के रूप में देखते थे और इसी इरादे से उन्होंने संविधान के प्रारूप में ऐसे अनेक प्रावधान शामिल किए जिनसे सरकार की पूर्ण जवाबदेही, नियंत्रण उपाय, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा, स्वतंत्र संस्थान तथा सामाजिक लोकतंत्र की दिशा में निरंतर बढ़ने में मदद मिल सके।

10. संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर के भाषणों का हमारे संविधान तथा आधुनिक राजनीतिक इतिहास के लिए अत्यधिक शैक्षिक महत्त्व है। डॉ. अंबेडकर ने 4 नवम्बर, 1948 को संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते समय अपने भाषण में राष्ट्रपति व्यवस्था की तुलना में संसदीय व्यवस्था के पक्ष-विपक्ष को विस्तार से बताया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान प्रारूप में संसदीय प्रणाली पर आधारित कार्यपालिका की सिफारिश के अंतर्गत स्थायित्व के स्थान पर दायित्व को प्राथमिकता क्यों दी गई।

‘‘सरकार की दोनों प्रणालियां वास्तव में लोकतांत्रिक हैं और दोनों में चुनाव करना बहुत आसान नहीं है। एक लोकतांत्रिक कार्यपालिका को दो शर्तें पूरी करनी चाहिए—(1) इसे किसी स्थिर कार्यपालिका बनना चाहिए (2) इसे एक जिम्मेदार कार्यपालिका बनना चाहिए। दुर्भाग्यवश ऐसी व्यवस्था निर्मित करना अभी तक संभव नहीं हो पाया है जिसमें दोनों की बराबर मात्रा सुनिश्चित हो सके। आपके पास ऐसी प्रणाली हो सकती है जो आपको अधिक स्थिरता परंतु कम जिम्मेदारी प्रदान करे या आपके पास ऐसी प्रणाली हो सकती है जो आपको कम स्थिरता परंतु अधिक जिम्मेदारी प्रदान करे... संयुक्त राज्य अमरीका जैसी गैर-संसदीय प्रणाली के अंतर्गत कार्यपालिका के दायित्व का आवधिक आकलन होता है। यह निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है। ईंग्लैंड में, जहां संसदीय व्यवस्था मौजूद है, कार्यपालिका के दायित्व का मूल्यांकन दैनिक और आवधिक दोनों है। दैनिक मूल्यांकन संसद सदस्यों द्वारा प्रश्नों, प्रस्तावों, अविश्वास मतों, स्थगन प्रस्तावों तथा संबोधनों पर बहस द्वारा किया जाता है। आवधिक मूल्यांकन निर्वाचक मंडल द्वारा निर्वाचन के दौरान किया जाता है जो प्रत्येक पांच वर्ष या उससे पहले होता है। यह अनुभव किया जाता है कि दायित्वों का दैनिक मूल्यांकन जो अमरीकी प्रणाली के अंतर्गत नहीं है आवधिक मूल्यांकन से कहीं ज्यादा प्रभावी है और भारत जैसे देश के लिए बेहद जरूरी है। संविधान के प्रारूप में कार्यपालिका की संसदीय व्यवस्था की सिफारिश करते हुए संविधान के प्रारूप में स्थिरता से अधिक दायित्व को प्राथमिकता दी गई है।’’ 1

11. डॉ. अंबेडकर ने बताया कि किस प्रकार संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति की स्थिति अंग्रेजी संविधान के अंतर्गत राजा के समान रहेगी :

‘‘वह राष्ट्र के अध्यक्ष हैं परंतु कार्यपालिका के नहीं। वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं परंतु राष्ट्र पर शासन नहीं करते। वह राष्ट्र का प्रतीक हैं। प्रशासन में उनका स्थान मुहर पर समारोहिक व्यवस्था के रूप में होगा जिसके द्वारा राष्ट्र के निर्णय सार्वजनिक किए जाते हैं... भारतीय संघ के राष्ट्रपति सामान्यत: अपने मंत्रियों की सलाह द्वारा बाध्य होंगे। वह उनकी सलाह के विपरीत कुछ नहीं कर सकते न ही उनकी सलाह के बिना कुछ कर सकते हैं।’’ 2

12. संविधान के प्रारूप में प्रस्तावित संघ के विशिष्ट स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए, डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट किया कि भारतीय परिस्थिति की अत्यावश्यकता के अनुकूल निर्मित सरकार का संघीय स्वरूप समय की जरूरत है।

‘‘संविधान का प्रारूप, उतना ही संघीय संविधान है जितना यह कथित दोहरी शासनतंत्र की व्यवस्था स्थापित करता है। प्रस्तावित संविधान के तहत यह दोहरी शासन व्यवस्था केंद्र में संघ को तथा राज्य को बाहरी परिधि में शामिल करेगी। इनमें से प्रत्येक, संविधान द्वारा क्रमश: सौंपे गए क्षेत्र में प्रयोग किए जाने वाली सम्प्रभु शक्तियों से संपन्न होंगे... संविधान का प्रारूप समय और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुसार एकल और संघीय दोनों हो सकता है। सामान्य काल में, इसे संघीय प्रणाली के रूप में कार्य करने के लिए तैयार किया गया है। परंतु इसे ऐसे निर्मित किया गया है कि यह युद्धकाल में एकल प्रणाली के रूप में कार्य कर सके।’’ 3

13. डॉ. अंबेडकर ने बहुत परिश्रम से यह बताने का प्रयास किया था कि नया गणतंत्र राज्यों के ‘परिसंघ’के बजाय राज्यों का ‘संघ’ होगा। राज्यों को अलग होने का अधिकार नहीं होगा। उन्होंने कहा था:

‘‘परिसंघ एक संघ है क्योंकि यह अखंड है। यद्यपि देश और जनता को प्रशासन की सहूलियत के लिए विभिन्न राज्यों में बांटा जा सकता है, परंतु देश कुल मिलाकर अखंड है, इसकी जनता एक ही स्रोत से उत्पन्न अकेली परमसत्ता के अधीन रहेगी’’4

14. डॉ. अंबेडकर ने मौलिक अधिकार पर एक सुपरिभाषित और व्यापक अध्याय शामिल करना सुनिश्चित किया जिसने विशेष रूप से अस्पृश्यता को समाप्त किया, सभी नागरिकों को समान अधिकारों की गारंटी दी तथा सामाजिक संबंधों में सभी प्रकार के भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया। डॉ. अंबेडकर मानते थे कि अल्पसंख्यकों और उनके धर्म का सुरक्षा परम महत्त्व है। इस प्रकार संविधान प्रत्येक व्यक्ति को आस्था और पूजा की स्वतंत्रता प्रदान करता है तथा अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक मामलों के बंदोबस्त की स्वतंत्रता देता है। डॉ. अंबेडकर ने निम्नवत आधार पर ऐसी सुरक्षा को तर्कसंगत ठहराया है :

‘‘बहुसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को नकारना गलत है। अल्पसंख्यकों के लिए स्वयं को ऐसा ही बनाए रखना भी उतना ही गलत है। एक समाधान खोजा जाना चाहिए जो दोहरा उद्देश्य पूरा करे। इसे शुरुआत में अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को मान्यता देनी चाहिए। इसे इस प्रकार का होना चाहिए कि यह किसी दिन बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों का आपस में विलय कर सके। संविधान सभा द्वारा प्रस्तावित समाधान का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि यह ऐसा समाधान है जो इस दोहरे उद्देश्य को पूरा करता है।’’ 5

15. डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान की एक अनूठी विशेषता, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के निर्धारण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन सिद्धांतों में यह अधिदेश है कि राष्ट्र एक न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति और सुरक्षा द्वारा लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा। ये सिद्धांत एक सामाजिक लोकतंत्र की नींव रखते हैं। डॉ. अंबेडकर के शब्दों में :

‘‘हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना होगा। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है, एक जीवन पद्धति जो यह मानती है कि स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा जीवन के सिद्धांत हैं। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के इन सिद्धांतों को इन तीन तत्त्वों से अलग चीज मानकर नहीं चलना होगा। ये इस अर्थ में एक सूत्रता अथवा त्रितत्व की रचना करते हैं कि इनमें से एक को दूसरे से पृथक करना लोकतंत्र के अत्यावश्यक उद्देश्य को विफल करना है... समानता के बिना, स्वतंत्रता से कुछ लोगों का प्रभुत्व बहुत से लोगों पर हो जाएगा। स्वतंत्रता हीन समानता व्यक्तिगत प्रयास को समाप्त कर देगी। भाईचारे के बिना,स्वतंत्रता और समानता सहज परिघटना नहीं बन पाएगी। इन्हें लागू करने के लिए एक सिपाही की आवश्यकता होगी... सामाजिक धरातल पर, हमारे भारत में सोपानबद्ध असमानता के सिद्धांतों पर आधारित समाज है जिसका अर्थ है एक का उत्थान और अन्यों की अवनति। आर्थिक आधार पर, हमारे यहां ऐसा समाज है जिसमें ऐसे कुछ लोग हैं जिनके पास घोर निर्धनता में जीवनयापन करने वालों की तुलना में अथाह धन सम्पत्ति है... हम विरोधाभास का ऐसा जीवन कब तक जीएंगे?हमें यथाशीघ्र इस विरोधाभास को दूर करना होगा। अन्यथा इस असमानता से पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र के ढांचे को उखाड़ फेंकेंगे...’’ 6

16. राज्य के नीति के नीति निर्देशक सिद्धांतों की कुछ लोगों द्वारा आलोचना की गई तथा इन्हें केवल ‘पवित्र घोषणा’ कहा गया है। इस आलोचना के प्रत्युत्तर में, डॉ. अंबेडकर ने कहा:

‘‘जिसे भी सत्ता प्राप्त होगी, वह अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा। इसका प्रयोग करते हुए उसे नीति निर्देशक सिद्धांत कहे जाने वाले अनुदेशों—इन निर्देशों का सम्मान करना होगा। वह इनकी अनदेखी नहीं कर सकता। हो सकता है कि उसे विधिक न्यायालय में इनके उल्लंघन का जवाब न देना पड़े। परंतु उसे निश्चित रूप से चुनाव के समय में निर्वाचकों के समक्ष जवाब देना होगा।’’ 7

17. डॉ. अंबेडकर अपने इस विश्वास पर दृढ़ थे कि हमारी न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए तथा उसे अपने आप में सक्षम भी होना चाहिए। हालांकि वह मानते थे कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव अवश्यंभावी है और ऐसा वास्तव में यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक एक दूसरे के कामकाज पर अंकुश के रूप में कार्य करे। उनका विचार था :

‘‘मैं स्वयं भी किसी एक दल के सदस्यों द्वारा भरी हुई विधायिका की संभावना को पूरी तरह नकार नहीं सकता, जो हमारी नजर में एक व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले उन कुछ मौलिक सिद्धांतों को निरस्त या अवहेलना करने वाले कानून बना सकते हैं। इसी प्रकार, मैं यह भी नहीं समझ पाता कि संघीय या उच्चतम न्यायालय में बैठे हुए पांच या छह सज्जनों द्वारा विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों की जांच पड़ताल और उनके व्यक्तिगत विवेक या अपने पूर्वाग्रह या संकीर्णताओं के चलते यह कैसे तय कर सकते हैं कि कौन सा कानून अच्छा है और कौन सा बुरा है।’’8

18. डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों का ‘शिक्षित बनने, संघर्ष करने और संगठित’ बनने का आह्वान किया। तथापि संवैधानिक तरीकों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता अविचल थी और उन्होंने जागरूक और तर्कशील जन संघर्ष के मार्ग की वकालत की थी। उन्होंने कहा था :

‘‘...हमें क्रांति के रक्तपातपूर्ण तरीकों का परित्याग कर देना चाहिए...जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को हासिल करने के संवैधानिक तरीकों के लिए कोई रास्ता नहीं बचता था तब असंवैधानिक तरीकों के लिए भरपूर औचित्य होता था। परंतु जहां संवैधानिक तरीके उपलब्ध हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं है। ये तरीके कुछ नहीं हैं बल्कि अराजकता की जड़ें हैं और जितनी शीघ्र इन्हें काट दिया जाए, उतना हमारे लिए बेहतर है।’’ 9

19. डॉ. अंबेडकर मानते थे कि मजबूत स्वतंत्र संस्थाएं लोकतंत्र के आधार स्तंभों का निर्माण करती हैं और इन्हीं से इसका अस्तित्व सुनिश्चित होगा। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान हो तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार एक मौलिक अधिकार बने।

20. अनुच्छेद 32—संवैधानिक उपचार के अधिकार के बारे में बोलते हुए, डॉ. अंबेडकर ने कहा था :

‘‘यदि मुझसे इस संविधान के सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद के तौर पर किसी खास अनुच्छेद का नाम पूछा जाए, जिसके बिना संविधान बेकार हो जाएगा तो मैं इसके सिवाय किसी दूसरे अनुच्छेद का नाम नहीं लूंगा। यह संविधान की आत्मा है और इसका प्राण है।’’10

21. डॉ. अंबेडकर ने एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की जरूरत बताई तथा संविधान के अनुच्छेद 324 के जरिए इसकी स्थापना की। उनके शब्दों में :

‘‘चुनावों की निष्पक्षता के लिए, चुनावों की शुद्धता के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा कार्यपालिका की शक्ति के हाथों से इस कार्य को लेकर इसे किसी स्वतंत्र प्राधिकरण को सौंपना है।’’ 11

22. इस संबंध में यह उल्लेखनीय है कि भारत के निर्वाचन आयोग ने लगातार देश के भीतर और विश्वभर में व्यापक प्रशंसा अर्जित की है। हमारे सबसे पहले चुनाव आयुक्त, श्री सुकुमार सेन को सूडान के चुनावों का पर्यवेक्षण करने के लिए आमंत्रित किया गया था और तब से हमारे निर्वाचन आयोग की सेवाएं और विशेषज्ञता बहुत से देशों द्वारा मांगी गई हैं। हमने हाल ही में देखा है कि किस प्रकार हमारे राष्ट्र की विशाल विविधता और लगभग 834मिलियन मतदाताओं के बावजूद हाल ही में 16वीं लोकसभा के चुनाव कुशलता और स्वतंत्रता के साथ आयोजित किए गए। अक्तूबर, 1989तक निर्वाचन आयोग केवल एक सदस्यीय आयोग था जब पहली बार इसे एक बहुसदस्यीय आयोग बनाते हुए दो अतिरिक्त आयुक्त नियुक्त किए गए।

23. इसी प्रकार, महालेखापरीक्षक के पद के बारे में, उन्होंने कहा था :

‘‘मेरी राय में यह पदाधिकारी अथवा अधिकारी भारत के संविधान का संभवत: सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी है। वह एक व्यक्ति है जो इस बात पर नजर रखेगा कि संसद द्वारा दत्तमत व्ययों में बढ़ोतरी न हो अथवा संसद द्वारा विनियोग अधिनियम में निर्धारित से अलग न हो। यदि इस अधिकारी को अपना कर्तव्य निभाना है और मैं मानता हूं कि उसके कर्तव्य न्यायपालिका के कर्तव्यों से बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं... मैं व्यक्तिगत तौर पर महसूस करता हूं कि उसे न्यायपालिका से भी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए...’’ 12

24. डॉ. अंबेडकर की स्पष्ट राय थी कि कोई संविधान पूर्ण नहीं होता और अंतत: संविधान की कारगरता जनता, राजनीतिक दलों और उनकी राजनीति पर निर्भर होगी। उन्होंने संविधान के बारे में जोर देकर कहा था :

‘‘यह कारगर है,यह लचीला है तथा शांतिकाल और युद्धकाल दोनों में देश को एकजुट रखने के लिए पर्याप्त रूप से मजबूत है। वास्तव में, मेरे विचार से,यदि नए संविधान के तहत गलत कार्य हो जाएं, तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था। तब हमें यही कहना पड़ेगा कि व्यक्ति बुरा है।’’ 13

25. उपर्युक्त के संबंध में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि व्यवहार में हमारी राजनीतिक प्रणाली नवान्वेषी और लचीली रही है। मजबूत संस्थाएं और संवैधानिक पद्धतियों के निर्माण की डॉ. अंबेडकर की प्रतिबद्धता के आधुनिक समय में बहुत से रोचक परिणाम निकले हैं। उदाहरण के लिए,सूचना का अधिकार अधिनियम किसी भी सरकारी विभाग से सूचना प्राप्त करने में सशक्त और सक्षम बनाने के लिए कानून द्वारा निर्मित एक अद्वितीय और शक्तिशाली माध्यम है जिससे खुलापन और पारदर्शिता आ रही है। इसी प्रकार, भारत के उच्चतम न्यायालय ने जनहित मुकदमे के जरिए आम आदमी को केवल पोस्टकार्ड भेजकर न्याय के सर्वोच्च न्यायालयों तक पहुंचने में समर्थ बनाया है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय ने भी मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का अपने आप संज्ञान लिया है तथा परम्परागत विचारों को बरतरफ करते हुए कार्रवाई की है। अंतत: हमने हाल ही में श्री अन्ना हजारे के नेतृत्व में एक जनप्रिय आंदोलन की परिघटना देखी जिसके परिणामस्वरूप सिविल समाज ने अब तक संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों के लिए ही आरक्षित वैधानिक प्रक्रिया में सीधी भूमिका हासिल की। लोकपाल बिल मसौदे को संसद में प्रस्तुत करने और बाद में कानून के रूप में अपनाने से पूर्व सिविल समाज के प्रतिनिधियों तथा सरकार के वरिष्ठ सदस्यों के बीच विचार-विमर्श के जरिए अंतिम रूप दिया गया। इन सभी से भारतीय लोकतंत्र की मजबूती और संविधान की जीवंतता प्रतिबिम्बित होती है।

मित्रो, देवियो और सज्जनो,

26. स्वतंत्रता के बाद से भारत की यात्रा बहुत सी सफलताओं से परिपूर्ण रही है। हमारे संस्थापकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती सरकार की एक व्यवहार्य प्रणाली निर्मित करनी थी। हमने विगत 67 वर्षों के दौरान, अपनी राजनीतिक प्रणाली को बनाए रखने और उसके सहयोग के लिए एक सफल संसदीय लोकतंत्र, एक स्वतंत्र न्यायपालिका तथा निर्वाचन आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक आदि जैसी सशक्त संस्थाओं की स्थापना की है।

27. एक सबसे बड़ा और सबसे जटिल मुद्दा, जिस पर एक स्वतंत्र भारत को ध्यान देना था, वह हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बहिष्करण था। सामाजिक रूप से अलग-थलग समुदाय के सदस्यों को सशक्त बनाने तथा उन्हें राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल करने के लिए संविधान के माध्यम से सकारात्मक कार्रवाई की एक विशिष्ट और व्यापक नीति अपनाई गई।

28. आज, भारत को अपने लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष मूल्यों तथा एक समावेशी और आधुनिक सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए समूचे विश्व में जाना जाता है। आर्थिक मोर्चे पर,हमने अपनी जनता के एक बड़े वर्ग को गरीबी रेखा से नीचे से निकालकर गरिमापूर्ण जीवन के स्तर पर लाते हुए, बहुत से महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। भारत अब क्रय शक्ति समता के पैमाने पर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। पिछले छह दशकों के दौरान, गरीबी का अनुपात 60 प्रतिशत से गिरकर 30 प्रतिशत से भी कम हो गया है। भारत एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक शक्ति संपन्न राष्ट्र बन गया है जिसकी उन्नत वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक क्षमताओं, औद्योगिक आधार तथा विश्वस्तरीय मानव संसाधनों के लिए सराहना की जाती है।

मित्रो, देवियो और सज्जनो,

29. यह एक सच्चाई है कि सभी उपलब्धियों, जिन पर हमें गौरव है, के बावजूद हमारा लोकतंत्र बहुत-सी चुनौतियों का सामना कर रहा है। बड़ी संख्या में भारतीय अभी भी गरीबी, अभाव और तंगी में जी रहे हैं। दुर्भाग्यवश जातिवाद भी एक और सच्चाई है जिसे हमें अभी भी अपने देश और समाज से मिटाना है।

30. डॉ. अंबेडकर ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जिसमें समाज के सभी वर्ग सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से सक्षम हों; एक ऐसा भारत जिसमें हमारी जनता के हर वर्ग को यह भरोसा हो कि देश तथा उसके भविष्य में उनका भी बराबर का ही हिस्सा है तथा ऐसा भारत जिसमें सामाजिक हैसियत जाति के पायदान अथवा आर्थिक धन-दौलत के आकलन से नहीं बल्कि व्यक्तिगत गुणों से तय हो। डॉ. अंबेडकर की परिकल्पना एक ऐसे भारत की थी जिसमें सामाजिक प्रणाली तथा अर्थव्यवस्था, मानवीय क्षमताओं के पूर्ण विकास का अवसर प्रदान करे तथा यह सुनिश्चित करे कि हमारे नागरिक सम्मानित जीवन जी सकें।

31. हममें से हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी है कि हम डॉ. अंबेडकर के सपनों को साकार करने के लिए पूर्ण प्रयास करें। हमें अपने लोकतंत्र की संरक्षा तथा उसकी मजबूती के लिए हर संभव प्रयास करने होंगे। हमें गरीबी तथा पूर्वाग्रहों को दूर भगाने के लिए मिल-जुलकर तथा समर्पित होकर प्रयास करने होंगे। हमें देश में उभरने वाली विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ निरंतर सतर्क रहना होगा। हमें कुपोषण, अज्ञान, बेरोजगारी तथा अवसंरचना की चुनौतियों का बहुत तेज गति से समाधान करना होगा। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि छुआछूत अथवा जाति, पंथ,धर्म अथवा लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार का अहित देश के किसी भी कोने में न हो। केवल इन प्रयासों के द्वारा ही हम प्रमुख राष्ट्रों के समुदाय में अपना वाजिब स्थान पा सकते हैं।

32. डॉ. अंबेडकर का संदेश, उनके कार्य और उनका जीवन हमें हमारे राष्ट्र निर्माताओं से प्राप्त शानदार संविधान, मजबूत लोकतंत्र तथा कारगर, स्वतंत्र संस्थाओं की लगातार स्मरण दिलाते रहते हैं। इसी के साथ, यह हमें एक ऐसा समतामूलक समाज निर्मित करने की दिशा में आगे तय की जाने वाली यात्रा का भी स्मरण कराता है जिसमें मानव से मानव के बीच कोई भेद न हो।

33. डॉ. अंबेडकर द्वारा 25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहे गए इन शब्दों से मैं अपनी बात समाप्त करता हूं :

‘‘जाति एवं पंथ के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के साथ ही, अब हमारे यहां विभिन्न तथा विरोधी राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय, देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे अथवा पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मुझे नहीं पता। परंतु यह तय है कि यदि दल पंथ को देश से ऊपर रखते हैं तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी और शायद हम सदा के लिए इसे खो दें। हम सभी को इस स्थिति से दृढ़ संकल्प होकर बचना होगा। हमें अपने खून की आखिरी बूंद के साथ अपनी आजादी की रक्षा का संकल्प लेना होगा।’’

धन्यवाद, जय हिंद।

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