भारतीय विदेश व्यापार संस्थान के स्वर्ण जयंती समारोहों के अवसर पर 2 मई, 2013 को भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
नई दिल्ली : 02.05.2013
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मुझे आज भारतीय विदेश व्यापार संस्थान के स्वर्ण जयंती समारोहों के लिए यहां उपस्थित होकर बहुत खुशी हो रही है। यह अवसर विदेश व्यापार और अतंरराष्ट्रीय कारोबार में इस संस्थान द्वारा दिए गए व्यापक बौद्धिक योगदान की सराहना करने का अवसर है।
मुझे दो वर्ष वाणिज्य मंत्री रहने के दौरान इस संस्थान से अपनी संबद्धता की मधुर यादें हैं। 1994 में इस संस्थान की अपनी एक यात्रा के दौरान मुझे ‘ट्रेड इन सर्विसेज : द उरुग्वे राउंड एंड आफ्टर’ नामक पुस्तक के लोकार्पण की याद है। मुझे बताया गया है कि यह पुस्तक आज भी सेवा संबंधी व्यापार को समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक बनी हुई है। वाणिज्य मंत्री के रूप में मुझे उन वार्ताओं में भाग लेने का मौका मिला जिनके परिणामस्वरूप जनवरी में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हुई।
भारतीय विदेश व्यापार संस्थान 1963 में अपनी स्थापना के समय से ही अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अनुसंधान तथा क्षमता निर्माण में अग्रणी रहा है। इस संस्थान ने अपने शुरुआत के समय से ही हमारे व्यापार तथा उद्योग के समक्ष आने वाली चुनौतियों के उत्तर देने में सरकार को सहयोग दिया है। हमारे देश के विदेशी सेक्टर पर कई मौकों पर दबाव में रहा है। 1966 में सूखे के फलस्वरूप खाद्यान के आयात करने के कारण विदेशी विनिमय की स्थिति अस्थिर हो गई थी। इसी तरह 1973-74 और 1979-80 में तेल की कीमतों के आघात के कारण भी हमारे विदेशी विनिमय रिजर्व पर दबाव पड़ा था। 1991 में खाडी संकट, मौद्रिक असंतुलन, अंतरराष्ट्रीय विश्वास में कमी जैसे कई कारणों से भुगतान संतुलन की समस्या खडी हो गई थी। उसी वर्ष जुलाई में हमारे पास केवल पन्द्रह दिनों के आयात के लिए धन मुहैया कराने के लिए विदेशी विनिमय रिजर्व रह गया था। इस पैमाने के संकटों से कुशलता से निपटने की जरूरत थी और उसके लिए सही नीतिगत सलाह की जरूरत थी। भारतीय विदेश व्यापार संस्थान द्वारा आयोजित संगोष्ठियों, अनुसंधान परियोजनाएं तथा अन्य अकादमिक कार्यक्रमों ने हमारे नीतिनिर्माताओं को इन समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने में बहुमूल्य सूचना उपलब्ध कराई है।
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना अंतरराष्ट्रीय व्यापार तथा निवेश में एक महत्त्वपूर्ण घटना रही। बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था की बेहतर समझ में सहायता देने तथा सरकार में उसके लिए कुशलता विकसित करने के लिए 1997-98 में भारतीय विश्व व्यापार संगठन अध्ययन केंद्र की स्थापना की गई थी। मुझे बताया गया है कि इस केंद्र ने सरकार को विश्व व्यापार संगठन तथा अन्य मंचों पर अपने देश की कार्यनीति तय करने में सहायता दी है।
देवियो और सज्जनो, विदेशी सेक्टर के प्रति हमारी कार्यपद्धति हमारे देश की आर्थिक स्थिति से निर्देशित होती रही है। हमने निर्यात को रोजगार सृजन के साधन के रूप में देखा है तथा रोजगार बहुल उद्योग पर जोर दिया है। आयामों पर निर्भरता में कमी लाने के लिए हमने निर्यात उद्योग के लिए उपयोगी भेदों के घरेलू निर्माण को प्रोत्साहन दिया है। निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता सृजित करने के लिए हमने प्रौद्योगिकी उन्नयन को बढ़ावा दिया है। हमने वैश्विक मंदी से बचने के लिए बाजार विविधीकरण का सहारा लिया है। हमने पूर्वोत्तर क्षेत्रों से निर्यात को प्रोत्साहन किया है, जिसका हमारी अर्थव्यवस्था में विशेष स्थान है।
बहुत सी अर्थव्यवस्थाओं का अनुभव बताता है कि व्यापार रुकावटों को कम करने से संस्थान उपयोग की दक्षता में वृद्धि होती है और इससे विकास में तेजी आती है। 1991-92 के केंद्रीय बजट में आयात शुल्क की अधिकतम दर को 300 से घटाकर 150 प्रतिशत कर दिया गया था। क्रमिक उदारीकरण के बाद गैर कृषि उत्पादों के लिए अधिकतम सीमाशुल्क अब केवल 10 प्रतिशत है।
हम उच्च आर्थिक विकास प्राप्त करने के लिए वैश्वीकरण की नीति का अनुसरण कर रहे है। 1991-92 में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का सकल घरेलू उत्पाद अनुपात केवल 15 प्रतिशत था वह अब 44 प्रतिशत है। हमारे निर्यात सेक्टर ने अच्छा कार्य किया है। 1991-92 में जो निर्यात मूल्य 17.9 बिलियन अमरीकी डॉलर था वह 2012-13 में बढ़कर 300.6 बिलियन हो गया। 1991-92 से 2000-01 के दौरान हमारे निर्यात की जो मिश्रित औसत वृद्धि दर 10.7 प्रतिशत थी वह 2001-02 से 2012-13 की अवधि के दौरान बढ़कर 19.1 प्रतिशत हो गई है।
भारत आज विश्व का सबसे बड़ा चावल निर्यात तथा दूसरा सबसे बड़ा गेहूं निर्यातक है। यद्यपि हमें सामान के निर्यात में अपनी उपलब्धि पर गर्व होना चाहिए। हमें इसको मॉनीटर करने की और सावधानी बरतने की जरूरत है। हमें हर समय देश में पर्याप्त खाद्यान्न की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए। प्रत्येक नागरिक को वहनीय भोजन उपलब्ध होना चाहिए।
उच्च निर्यात वृद्धि ने पिछले दशक के दौरान बेहतर आर्थिक निष्पादन में योगदान दिया है। विगत दस वर्षों के दौरान 7.9 प्रतिशत की अच्छी औसत वार्षिक विकास दर थी। 2008 की विश्व मंदी के प्रभाव से भारत की अर्थव्यवस्था जितनी अधिक उभरी है वह शुरूआत में की गई उम्मीद से अधिक थी। 2009-10 और 2010-11 के दौरान, भारत की अर्थव्यवस्था क्रमश: 8.6 प्रतिशत और 9.3 प्रतिशत बढ़ी जबकि पहले इन वर्षों की विकास दर का अनुमान कम लगाया गया था। जारी विश्व वित्तीय संकट ने पिछले दो वर्षों के दौरान हमारे आर्थिक विकास को धीमा कर दिया है। 2012-13 में सकल घरेलू उत्पाद का 5.0 प्रतिशत का नीचा अनुमान लगाया गया है परंतु मुझे विश्वास है कि हम तेजी से वापसी करेंगे।
देवियो और सज्जनो, हमारी अर्थव्यवस्था के विश्व के साथ बढ़ते हुए एकीकरण की दृष्टि से वैश्विक वित्तीय संकट के खतरे से हमारी अर्थव्यवस्था को संभालने की जरूरत है। हमने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों पर ध्यान देकर अपने निर्यात बाजार को विविधतापूर्ण बनाया है। 2012-13 में हमारे निर्यात में इन भौगोलिक क्षेत्रों का हिस्सा दो-तिहाई था। विश्व अर्थव्यवस्था की मंदी ने हमारे विदेशी सेक्टर को प्रभावित किया है। परंतु बाजार विविधता कार्यनीति के कारण, हम इस प्रभाव को बहुत कम करने में सफल रहे हैं।
चालू खाता घाटा चिंता का एक विषय है जो अप्रैल से दिसम्बर, 2012 की अवधि के दौरान सकल घरेलू उत्पाद का 5.4 प्रतिशत है, जो बहुत अधिक है। यद्यपि हमने पूंजी प्रवाह के जरिए इस घाटे पर नियत्रंण कर लिया है, परंतु हमें अपने निर्यात को एक सतत स्तर पर लाने के लिए इसे बढ़ाना होगा। विश्व अर्थव्यवस्था के 2014 में पुन: मजबूती से उभरने की उम्मीद का जा रही है। विश्व मांग में अभी स्थिरता आनी है इसलिए हमारे निर्यात उद्योग को मजबूत बनाने की जरूरत है।
लम्बे समय से हम अपने निर्यात क्षेत्र की प्रतिस्पर्द्धा क्षमता बढ़ाने के प्रयास करते रहे हैं। निर्यात प्रोत्साहन पर और अधिक बल देने के लिए, 158 विशेष आर्थिक क्षेत्र स्थापित किए गए हैं। निर्यात प्रोत्साहन पूंजीगत सामग्री स्कीम से निर्यातक, निर्यात के लिए मशीनरी और उपकरण आयात करने में सक्षम हो गए हैं।
हमने अनेक अर्थव्यवस्थाओं और व्यापार ब्लाकों के साथ व्यापार और आर्थिक साझीदारी स्थापित करने के लिए सक्रिय रुख अपनाया है। सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, जापान और मलेशिया के साथ व्यापक आर्थिक साझीदारी समझौते किए गए हैं। ऐसा ही एक समझौता आसियान के साथ किया गया है। ऐसे ही समझौतों के लिए यूरोपीय संघ जैसे भारत के प्रमुख व्यापार साझीदारों के साथ बातचीत चल रही है।
जब तक हमारे लोगों को ठोस लाभ नहीं प्राप्त होता तब तक बढ़े हुए व्यापार उदारीकरण तथा आर्थिक सहयोग का कोई फायदा नहीं है। इसलिए रोजगार सृजन तथा क्षेत्रीय विकास जैसे अन्य उद्देश्यों को पूरा करने पर भी बल दिया जाना चाहिए। हमारे निर्यात क्षेत्र को भी सामाजिक-आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने में सक्षम बनना चाहिए।
भारतीय विदेश व्यापार संस्थान ने कई वर्षों क दौरान, प्रबंधन शिक्षा और पीएचडी पाठ्यक्रम के आयोजन से अपने अकादमिक ढांचे को व्यापक बनाया है। इसके प्रयास केवल सफल प्रबंधकों, कारोबार प्रमुखों और अकादमिक विचारकों के निर्माण की दिशा में नहीं बल्कि सामाजिक रूप से जागरूक ऐसे नागरिक तैयार करने की दिशा में होने चाहिए जो हमारे समाज की जरूरतों के प्रति सक्रियता दिखाने और योगदान देने में समर्थ और तत्पर हों।
मुझे विश्वास है कि भारतीय विदेश व्यापार संस्थान, विदेश व्यापार और अंतरराष्ट्रीय कारोबार के क्षेत्र में प्रासंगिक प्रशिक्षण देता रहेगा और बौद्धिक रूप से ठोस अनुसंधान जारी रखेगा। मैं संस्थान के उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं देता हूं।
धन्यवाद,
जय हिन्द!