भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

चेन्नई, तमिलनाडु : 22.02.2014

डाउनलोड : भाषण भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण(हिन्दी, 231.21 किलोबाइट)

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मुझे, भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह के अवसर पर आपके बीच उपस्थित होकर प्रसन्नता हो रही है। मैं जानता हूं कि आज एक हजार से अधिक स्नातक और स्नातकोत्तर विद्यार्थी नौविज्ञान, समुद्री इंजीनियरी, पोत वास्तुकला और समुद्र इंजीनियरी, पोत निर्माण और मरम्मत, पत्तन और नौवहन प्रबंधन, अंतरराष्ट्रीय परिवहन और संभार प्रबंधन तथा समुद्र विधि जैसी अनेक विधाओं में उपाधियां प्राप्त कर रहे हैं। यह दीक्षांत समारोह अपके विद्यार्थियों से समुद्री पेशेवर बनने का अवसर है। मुझे विश्वास है कि अपने संपूर्ण जीवन काल में आप अपने संस्थान का ध्वज ऊंचा रखेंगे और इसे गौरवान्वित करेंगे।

भारत का एक अत्यंत समृद्ध समुद्री इतिहास रहा है, जो बहुत पहले ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दि पुराना है, जब सिंधु सभ्यता के नागरिकों ने मेसोपोटामिया के साथ समुद्री व्यापार संपर्क आरंभ किए। आधुनिक गुजरात के लोथल में विश्व की प्रथम गोदी (2400 ईसा पूर्व) को गाद के जमाव से बचाने के लिए प्रमुख समुद्री धाराओं से दूर बनाया गया था, जिससे समुद्र विज्ञान, जल विज्ञान और समुद्री इंजीनियरी के पर्याप्त ज्ञान का होने का पता चलता है। भारत के पश्चिमी तट के राज्य प्राचीन फारस, अरब और मिस्र के साथ और उनके जरिए प्राचीन यूनान और रोम के साथ सक्रिय समुद्री व्यापार में शामिल थे। ईसा पूर्व 200 और 1200 ईसवी के बीच पूर्वी और दक्षिणी भारत के राज्य वर्तमान बर्मा, मलेशिया, थाइलैंड, कंबोडिया और वियतनाम के साथ सक्रिय समुद्री व्यापार करते थे और उन्होंने इन सुदूर देशों में व्यापार चौकियां स्थापित कीं थी। 11वीं शताब्दी के महान तमिल राजा राजेंद्र चोल के पास एक स्थायी नौसेना थी और वह बंगाल की खाड़ी को ‘चोल झील’ कहते थे। भारतीय समुद्री शक्ति का पतन वास्तव में तेरहवीं शताब्दी में आरंभ हुआ और पश्चिमी राष्ट्रों की समुद्री शक्ति के बढ़ने के साथ ही यह लगभग लुप्त हो गई।

भारतीय नौपरिवहन के इतिहास में एक नया अध्याय तब शुरू हुआ जब 1926 में इंडियन मर्केंटाइल मरीन के लिए एक प्रशिक्षण संस्थान के निर्माण की आवश्यकता को पहचानते हुए, केंद्रीय विधान सभा में एक प्रस्ताव पारित किया गया था। इससे प्रशिक्षण पोत डफेरिन का जन्म हुआ, जिसके बाद प्रशिक्षण पोत राजेंद्र (महान चोल राजा के नाम पर) आया जिसका स्थान बाद में तटवर्ती प्रतिष्ठान, प्रशिक्षण पोत चाणक्य ने लिया। 1947 में, नव-स्वतंत्र देश के संस्थापकों ने आधुनिक व्यापारिक समुद्री इंजीनियरी प्रशिक्षण की आवश्यकता का पूर्वानुमान लगाया। इससे मुंबई (1949) में और कलकत्ता (1953 ) में समुद्री इंजीनियरी प्रशिक्षण निदेशालय के दो संस्थानों की स्थापना हुई, जिन्हें बाद में ‘समुद्र इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान’ कोलकाता एवं मुंबई का नाम दिया गया। यह महसूस किया गया कि पोत पर सवार समुद्री अधिकारियों के कौशल को उन्नत बनाने के लिए एक सतत् शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भारत सरकार ने 1948 में मुंबई में लाल बहादुर शास्त्री उच्च समुद्री अध्ययन और अनुसंधान कॉलेज के नाम से एक उत्कृष्ट उत्तर-समुद्री प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की। इन चार संस्थानों ने बड़ी संख्या में अत्यंत पेशेवर समुद्री कार्मिक उपलब्ध करवाए हैं, जिन्होंने अपने परिश्रम, योग्यता, समर्पण और दक्षता के लिए वैश्विक प्रतिष्ठा अर्जित की है तथा भारतीय और विदेशी पोत परिवहन कंपनियों में उनकी बहुत मांग है।

बाद में, स्वदेशी जलयान डिजायन और अनुसंधान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने 1991 में विशाखापत्तनम में राष्ट्रीय पोत डिजायन और अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की। इसी प्रकार, पत्तन प्रबंधन की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कोलकाता में (1965) भारतीय पत्तन प्रबंधन संस्थान तथा चेन्नै (1985) में राष्ट्रीय पत्तन प्रबंधन संस्थान (बाद में राष्ट्रीय समुद्री अकादमी के रूप में नामकरण) की स्थापना की गई।

जैसा कि आप सभी को ज्ञात है भारत सौभाग्यशाली है कि उसके पास 7500 कि.मी. लंबे समुद्री तट हैं और देश के व्यापार की मात्रा के लिहाज से 95 प्रतिशत तथा मूल्य के लिहाज से 70 प्रतिशत व्यापार समुद्री मार्ग से होता है। इसके बावजूद, देश का केवल 10 प्रतिशत व्यापार भारतीय पोतों के द्वारा होता है और वैश्विक समुद्री कार्मिकों में हमारा हिस्सा केवल 6 प्रतिशत है। भारत में निर्मित पोत और भी कम सामान ढो पाते हैं। यदि भारत को भविष्य में एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना है तो उसे अच्छे समुद्री कार्मिकों को तैयार करने तथा अपनी पोत-निर्माण क्षमता में इजाफा करना होगा। पोत-निर्माण में ग्रामीण एवं शहरी दोनों इलाकों में काफी रोजगार सृजन की क्षमता है। भारत सरकार देश, पोत नौपरिवहन उद्योग की क्षमता के कारण इसे मजबूत बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। भारत सरकार की समुद्री कार्यसूची 2020 में, अंतरराष्ट्रीय पोत परिवहन में भारतीय समुद्री कार्मिकों का हिस्सा वर्तमान 6 प्रतिशत के स्तर से बढ़ाकर वर्ष 2015 तक 9 प्रतिशत करने की परिकल्पना की गई है।

समुद्री इंजीनियरी, नौविज्ञान, पोत निर्माण और मरम्मत आदि में पेशेवरों की बढ़ती मांग के मद्देनजर श्रेष्ठ कार्मिक मुहैया करवाने के उद्देश्य से भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। चेन्नै में मुख्यालय और अखिल भारतीय क्षेत्राधिकार के साथ, सरकार के सात विरासती समुद्री संस्थानों को शामिल करते हुए 2008 में संसद के एक अधिनियम द्वारा इसकी स्थापना की गई।

मुझे उम्मीद है कि भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय भविष्य में सिद्धांतों को व्यवहार के साथ एकीकृत करने पर जोर देगा। मैं विश्वविद्यालय से आग्रह करता हूं कि वह पत्तन और पोत परिवहन प्रबंधन, संभारिकी तथा परिवहन, समुद्री पर्यावरणीय प्रबंधन, समुद्री जोखिम तथा प्रणाली सुरक्षा, समुद्री प्रशासन (कानून, नीति और सुरक्षा) के क्षेत्र में बेहतरीन अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय परिपाटियों का अध्ययन करें तथा इन क्षेत्रों में अकादमिकों और पेशेवरों को प्रशिक्षण दें। अंतिम परंतु समान रूप से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मैं और अधिक महिला समुद्रकर्मियों को देखना चाहता हूं।

भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय भारत के सबसे नए विश्वविद्यालयों में से है। मुझे ज्ञात है कि इसने अनेक शुरुआती समस्याओं का सामना किया है। पिछले पांच वर्षों के दौरान संकाय और प्रशासनिक कर्मचारियों की संख्या बढ़ी है। बहुत से संकाय पद अभी भरे जाने हैं। तथापि मुझे विश्वास है कि विश्वविद्यालय का भविष्य उज्ज्वल है। यह मेरी हार्दिक उम्मीद है कि भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय को मध्यम अवधि में उत्कृष्टता का एक केंद्र बनने की कोशिश करनी चाहिए। मैं, ऐसे भविष्य को देख रहा हूं जब भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय सामान्यत: राष्ट्र निर्माण और विशेषकर समुद्री सेक्टर में सार्थक योगदान देगा।

विश्वविद्यालय की शक्ति इसके पूर्व विद्यार्थियों से आंकी जाती है। हजारों समुद्रकर्मी भारतीय समुद्री विश्वविद्यालय में शामिल सात विरासती संस्थानों से निकले हैं और इन पूर्व विद्यार्थियों को अनुभव करना चाहिए कि वे इस विश्वविद्यालय से जुड़े हैं और उन्हें दानवृत्ति स्थापित करने इसे सशक्त बनाने के लिए कार्य करना चाहिए। मैं, इस विश्वविद्यालय से उपाधि पाने वाले विद्यार्थियों से आग्रह करता हूं कि वे अपने विश्वविद्यालय, समाज तथा देश के ऋण को न भूलें और इन तीनों की प्रगति के लिए प्रयास करें। मैं आप सभी को शुभकामनाएं देता हूं।

जय हिंद!

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