बांग्लादेश ‘मुक्ति युद्ध सम्मान’ की प्राप्ति के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का स्वीकृति एवं राजभोज अभिभाषण

ढाका, बांग्लादेश : 04.03.2013

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महामहिम श्री मोहम्मद ज़िल्लुर रहमान, बांग्लादेश जन गणराज्य के राष्ट्रपति,

महामान्या शेख हसीना, बांग्लादेश जन गणराज्य की प्रधानमंत्री,

महामान्या डॉ दिपु मोनी विदेश मंत्री,

महामहिम कैप्टन ए.बी ताजुल इस्लाम, मुक्ति युद्ध कार्य राज्यमंत्री,

बांग्लादेश जन गणराज्य की सरकार के मंत्रीमंडल के विशिष्ट सदस्यगण,

महामहिम श्री मुहम्मद मुसर्रफ हुसैन भुइयां, मंत्रीमंडल सचिव,

महामहिमगण,

देवियो और सज्जनो,

आपके गर्मजोशी भरे शब्दों के लिए धन्यवाद। मुझे यहां आकर बहुत खुशी हो रही है तथा जिस स्नेह के साथ यहां मेरा स्वागत हुआ है उसके लिए मैं आभारी हूं। भारत गणराज्य के राष्ट्रपति का पद ग्रहण करने के बाद विदेश की यह मेरी पहली यात्रा है।

आज जब मैं यहां आपके समक्ष खड़ा हूं, तब मुझे 1971 में घटी घटनाओं की याद ताजा हो आई है। मैं उस समय 36 वर्ष का था और संसद सदस्य था, जब बांग्लादेश की जनता ने खुद को अपने स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया था। हम बहुत से लोग उस समय के घटनाक्रमों पर बड़ी व्याकुलता से नजर रख रहे थे। उन दिनों 24 घंटे के टेलीविजन चैनल उपलब्ध नहीं थे तथा केवल मुक्त बांग्लादेश रेडियो तथा आकाशवाणी से ही हमें बांग्लादेश के अपने भाइयों और बहनों के वीरतापूर्ण संघर्ष की रिपोर्टें मिलती थी। भारत में हम इन बुलेटिनों को बहुत उत्सुकता से सुना करते थे और हर भारतीय का दिल और दिमाग बांग्लादेश की जनता के साथ था। सीमा पार करके भारत में अपने पड़ोसी राज्यों में आकर शरण लेने वाले, लाखों बेघर लोगों की दयनीय हालत ने हमारे लोगों के हृदयों को द्रवित कर दिया था और वे उन अभागे लोगों की वेदना को महसूस करते थे। उन्होंने, जी-जान से आगे बढ़कर, जरूरत के समय बांग्लादेश के अपने भाइयों को, हर संभव राहत तथा सहायता प्रदान करने की कोशिश की। बांग्लादेश की वीर जनता की तथा न्याय और सम्मान के लिए उनकी वीरतापूर्ण लड़ाई की छवि हर भारतीय की चेतना में बसी हुई थी।

मुझे याद है कि 15 जून 1971 को, मुझे राज्य सभा, भारतीय संसद के उच्च सदन, में एक चर्चा शुरू करने का अवसर मिला था, जिसमें मैंने यह सुझाव दिया था कि भारत को मुजीबनगर में निर्वासित बांग्लादेश की सरकार को कूटनीतिक मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए। मेरे ये शब्द राज्य सभा की कार्यवाही के रिकार्ड में हैं। जब एक सदस्य ने इस समस्या को सुलझाने के लिए मेरे सुझाव मांगे तो मैंने कहा था, ‘‘मैं एक राजनीतिक समाधान की बात कर रहा हूं जिसका अर्थ है बांग्लादेश की लोकतांत्रिक संप्रभुता-संपन्न सरकार को स्पष्ट मान्यता प्रदान करना। राजनीतिक समाधान का अर्थ है बांग्लादेश की लोकतांत्रिक संप्रभुतासंपन्न सरकार को भौतिक सहायता प्रदान करना...’’ मैंने सदन को यह याद दिलाया था कि विश्व के इतिहास में ऐसे बहुत से अवसर आए हैं जब इन्हीं आधारों पर हस्तक्षेप किए गए हैं।

काफी पहले 1949 में, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘‘जहां स्वतंत्रता खतरे में हो, अथवा न्याय पर आंच आ रही हो या फिर जहां आक्रमण किया जा रहा हो, वहां हम न तो निरपेक्ष रह सकते हैं और न ही रहेंगे।’’

बंगबंधु मुजीबुर रहमान ने यह समझ लिया था कि ऐसी स्थिति में उन्हें क्या करना है और साहस के साथ आगे बढ़कर बांग्लादेश की स्वाभिमानी जनता के आजादी के स्वप्न को प्राप्त करने में जरा भी देरी नहीं लगाई।

भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना को वास्तविकता में बदलने में देरी नहीं लगाई और बांग्लादेश की जनता को सहायता प्रदान की।

इस प्रतिष्ठित ‘बांग्लादेश मुक्ति युद्ध सम्मान’ को ग्रहण करते हुए मैं अत्यंत अकिंचन अनुभव कर रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि इसमें मेरा योगदान अत्यल्प रहा है।

2 से 10 सितंबर 1971 को पेरिस (फ्रांस) में 59वीं अंतर-संसदीय यूनियन के सम्मेलन में हमने विभिन्न देशों की संसदों के सदस्यों की उपस्थित का लाभ उठाते हुए उनके सामने बांग्लादेश के हालातों को स्पष्ट करने का प्रयास करते हुए उनसे आग्रह किया था कि वे अपनी सरकारों पर दबाव बनाएं कि वे बांग्लादेश में हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठाएं। उसी यात्रा के दौरान मुझे भी सद्भावना संसदीय शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में यूनाइटेड किंगडम तथा तत्कालीन जर्मन संघीय गणराज्य जाने का अवसर मिला था। मुझे, इन देशों की संसदों के सदस्यों को, इन परिस्थितियों से अवगत कराने का दायित्व सौंपा गया था। स्वर्गीय श्री एच.डी. मालवीय, पूर्व संसद सदस्य तथा विश्व शांति सम्मेलन के कार्यकर्ता भी मेरे साथ इस मिशन पर गए थे। बाद में मुझे भारत में बांग्लादेश के पड़ोसी राज्यों त्रिपुरा, असम तथा मेघालय के शरणार्थी शिविरों में जाने तथा उन शिविरों को संचालित करने और उन्हें आरामदेह बनाने के लिए स्थानीय सरकार से तालमेल की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

उन दिनों का स्मरण करने पर, मैं यह महसूस करने के लिए विवश हो जाता हूं कि संघर्ष के दौरान, न केवल बांग्लादेश बल्कि भारत में भी अन्य बहुत से लोगों द्वारा उठाए गए भारी दायित्वों की तुलना में मेरे प्रयास प्राय: अल्प ही थे। इसलिए मैं, मुझे प्रदान किए गए इस सम्मान को अति विनम्रता के साथ स्वीकार करता हूं। उस समय लिखी गई आनंदशंकर की कविता की कुछ पंक्तियां उस समय बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में हमारी भावनाओं को निरुपित करती हैं। मैं इन्हें बंगाली में पढ़ कर सुना रहा हूं :

যতদিন রবে পদ্মা যমুনা

গৌরী মেঘনা বহমান |

ততদিন রবে কীর্তি তোমার

শেখ মুজিবুর রহমান

महामहिम, मैं बांग्लादेश मुक्ति युद्ध सम्मान प्रदान करने के सद्भाव के लिए आपको और बांग्लादेश सरकार को धन्यवाद देता हूं। मैं, आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर साथ देने वाले और आपकी मुक्ति के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने वाले भारतीय भाइयों और बहनों के योगदान को इस तरह याद करने के लिए आपको धन्यवाद देता हूं। विगत वर्ष आपसे सम्मान और आतिथ्य प्राप्त करने वाले गौरवान्वित भारतीय नागरिकों की संख्या हमारी घनिष्ठ मैत्री के प्रति सम्मान है। मैं उनकी ओर से तथा भारत की ओर से आपका धन्यवाद करता हूं।

आज, मैं इस अवसर पर भावी पीढ़ियों की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने वाले निरपराध पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूं, जिनकी स्मृति सावर मेमोरियल और शहीद मीनार के शिला पर अंकित है। उन्होंने हमें यह दिखलाया कि जब कार्य नेक हो तो निर्बल भी जीत हासिल कर सकता है। आपकी सरकार ने इतिहास के साथ अपना वादा पूरा किया है। आज मुक्ति योद्धाओं के बच्चे यह जानकर गौरवान्वित हैं कि उनके पूर्वजों का रक्त व्यर्थ नहीं गया है। आज, बांग्लादेश गर्व के साथ एक आधुनिक, प्रगतिशील और समृद्ध राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है। भारत के लोग 2013 में भी, 1971 की तरह ही बांग्लादेश के लोगों के साथ खड़े हैं। हम बराबर के साझीदारों की तरह कंधे से कंधा और बाजू से बाजू मिलाकर आपके साथ चलेंगे। हम दोनों एक अविभाजित सभ्यता की विरासत के उत्तराधिकारी हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत और इसकी जनता का बांग्लादेश के साथ विशेष संबंध है। हमारी बांग्लादेश के सर्वांगीण विकास में स्थाई रुचि है। परंतु हमारे सहयोग की पूरी क्षमता को अभी प्रयोग किया जाना बाकी है। इस यात्रा के दौरान मेरी चर्चाएं बहुत सफल रही हैं। हमारी सरकारों ने सहयोग का एक व्यापक ढांचा स्थापित किया है। हमारा प्रयास यह देखने का रहेगा कि द्विपक्षीय सहयोग से हमारे लोगों को किस तरह लगातार लाभ हो सकता है और उनका जीवन बेहतर बन सकता है। यह हमारे सम्बन्धों की सफलता की परीक्षा होगी।

महामहिमगण, देवियो और सज्जनो,

भारत में हमें बांग्लादेश द्वारा की गई शानदार प्रगति को देखकर प्रसन्नता हो रही है। बांग्लादेश ने जिस प्रभावशाली और मौलिक ढंग से गरीबी को समाप्त करने की चुनौतियों का सामना किया है, वह अनुकरणीय है। मैं बांग्लादेश की रचनात्मक प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करने वाले इसकी जनता, इसके किसानों, उद्यमियों, चिकित्सकों, शिक्षकों, वैज्ञानिकों आदि के प्रति सम्मान प्रकट करता हूं।

महामहिम, मेरा व्यक्तिगत रूप से, इस देश के साथ गहरा सम्बन्ध है। मेरी पत्नी का परिवार यहीं से है और उन्होंने अपने बचपन का शुरुआती और खुशहाल हिस्सा यहीं बिताया था। मैं आपकी गर्मजोशी से अभिभूत हूं। मुझे इस पुरस्कार में, भारत और बांग्लादेश के बीच स्थाई मैत्री और भाइचारे का एक मजबूत संदेश दिखाई देता है। मैं, मुझे प्रदान किए गए इस सम्मान को हार्दिक आभार के साथ स्वीकार करके समान भावना व्यक्त करता हूं।

इन्हीं शब्दों के साथ, मैं एक बार फिर से महामहिम राष्ट्रपति ज़िल्लुर रहमान, महामान्या प्रधानमंत्री, शेख हसीना और बांग्लादेश की जनता का धन्यवाद करता हूं, जिन्होंने इतनी गर्मजोशी और स्नेह के साथ मेरा और मेरी पत्नी का तथा मेरे शिष्टमंडल का स्वागत किया, जिससे हम बहुत अभिभूत हैं।

हम, हृदय से दोनों देशों की जनता की प्रगति और समृद्धि के लिए भारत-बांग्लादेश के द्विपक्षीय सम्बन्धों को सभी क्षेत्रों में फलते-फूलते देखना चाहते हैं।

जय हिंद! 
जय बांग्ला!

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