भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का आज तक साहित्य जागृति सम्मान समारोह में सम्बोधन
नई दिल्ली : 23.11.2024
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‘आज तक साहित्य जागृति सम्मान’ के विजेताओं को मैं हार्दिक बधाई देती हूं। जो समाज या संस्थान, साहित्य-साधना से जुड़े रचनाकारों का सम्मान करता है, उसके भविष्य के प्रति विश्वास मजबूत होता है। इस सम्मान समारोह का आयोजन करने के लिए मैं India Today Group की सराहना करती हूं।
‘आज तक साहित्य जागृति लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ के लिए मैं गुलज़ार साहब को विशेष बधाई देती हूं। साहित्य और कला जगत के लिए वे सदैव समर्पित रहे हैं। उनकी एक फ़िल्म, ‘मीरा’, का उल्लेख मैं आज करना चाहती हूं। सोलहवीं सदी में, मीराबाई ने, भक्ति-साहित्य की अमर कविताओं की रचना की। साथ ही, मीराबाई ने, मध्यकालीन भारत के समाज में, महिलाओं को बंधन में रखने वाली मान्यताओं को खारिज कर दिया था। मीराबाई, सामाजिक यातनाओं के बीच आस्था और साहित्य के विजय का प्रतीक हैं। आज से लगभग 45 साल पहले बनी ‘मीरा’ फ़िल्म के रूप में, गुलजार साहब ने हमारे सिनेमा, समाज और साहित्य को एक कलापूर्ण धरोहर सौंपी है। ऐसी कृतियों के लिए, मैं आपकी सराहना करती हूं। मैं मानती हूं कि महिलाओं के दृष्टिकोण को समझने वाले संवेदनशील पुरुष, हमारे समाज को बेहतर बनाते हैं।
मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई है कि आज ‘श्रेष्ठ रचना सम्मान’ प्राप्त करने वाली उषा प्रियम्वदा जी कई दशकों से, निरंतर साहित्य-सेवा करती रही हैं। वे महिला-अनुभूतियों को, आधुनिक सोच के साथ, व्यक्त करती रही हैं। मैं उन्हें हार्दिक बधाई देती हूं।
आज सम्मानित रचनाओं में गांव-गरीब-किसान का जीवन है, लगभग बारह सौ वर्ष पहले के ओडिशा की पृष्ठ-भूमि में बौद्ध और शैव पंथों से जुड़ी कथा है, गुलज़ार साहब की जीवनी है, झारखंड के परिवेश में भारत के गांव-कस्बे का चित्रण है, एक पौराणिक कथा के प्रसंग में, नारी के साहसिक संघर्ष की गाथा है तथा भारतीय परम्पराओं के सौन्दर्य को अद्भुत चित्रकला के माध्यम से प्रसारित करने वाले, केरल में जन्मे, राजा रवि वर्मा का एक गुजराती भाषा के विद्वान द्वारा लिखा गया जीवन-वृत्त है। इस तरह, आज पुरस्कृत कृतियों में, अतीत से वर्तमान तक के भारत की विविधता का दर्शन भी होता है, और साहित्यकारों की कई पीढ़ियों का एक साथ परिचय भी मिलता है। मैं आप सभी रचनाकारों को एक बार फिर बधाई देती हूं।
हमारे देश में विभिन्न भाषाओं में रचित स्थानीय साहित्य में अखिल-भारतीय चेतना सहज ही विद्यमान रहती है। यह चेतना रामायण और महाभारत से लेकर, हमारे स्वाधीनता संग्राम से होते हुए, आज के साहित्य में भी दिखाई पड़ती है। उत्कल-मणि गोपबंधु दास द्वारा भारतीय चेतना की यह अभिव्यक्ति मुझे बहुत प्रिय है:
“मो नेत्रे भारत-शिला शालग्राम
प्रति स्थान मोर प्रिय पुरी-धाम”
अर्थात मेरी दृष्टि में भारत-भूमि का एक-एक पत्थर शालिग्राम की तरह उपासना योग्य है। भारत का प्रत्येक स्थान मुझे जगन्नाथ पुरी धाम की तरह प्रिय है।
मैं ‘आज तक’ से यह अपेक्षा करती हूं कि आप सब विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य को लोगों तक पहुंचाएं। संथाली भाषा के महाकवि डॉक्टर रामदास टुडू तथा कवि साधु रामचंद्र मुर्मु की हृदय को छूने वाली रचनाओं से भी साहित्य-प्रेमियों का परिचय कराइए। साथ ही, अन्य वंचित वर्गों के साहित्य, जिसे subaltern literature कहा जाता है, को भी प्रस्तुत कीजिए। आप साहित्य के छुपे हुए रत्नों को सामने ले आइए। साहित्य-सेवा का जो काम साहित्यिक पत्रिकाएं बहुत कठिनाई से कर पाती हैं, उसे technology के माध्यम से आप बहुत बड़े पैमाने पर कर सकते हैं। ऐसा करके, आप भारतीय समाज और साहित्य की बहुत बड़ी सेवा करेंगे।
देवियो और सज्जनो,
जो व्यक्ति, परिवार या समाज सही अर्थों में संवेदनशील है, वह अपने बच्चों की सभी जरूरतों को केंद्र में रखता है। इसलिए, मैं चाहूंगी कि आप सब, बाल-साहित्य को प्रोत्साहित करने का प्रयास भी करें। मौलिक लेखन तथा अनुवाद के माध्यम से बाल-साहित्य को समृद्ध बनाना, देश और समाज को समृद्ध बनाने में सहायक होगा।
विश्व का महानतम साहित्य, किसी भी तरह की सीमाओं को नहीं मानता। यहां तक कि वह निरक्षरता की सीमा को भी नहीं मानता। ओडिशा के घर-घर में, गांव-गांव में, साक्षर-निरक्षर सभी लोग अतिबड़ी जगन्नाथ दास के भागवत की पंक्तियों का उल्लेख करते रहते हैं। कम पढ़े-लिखे किसान और मजदूर, संत कबीर के दोहों के गहरे अर्थ को समझते भी हैं और आपस की बात-चीत में मुहावरे की तरह उनका प्रयोग भी करते हैं। महानतम साहित्य सबको समझ में आता है। इसी को विद्वान लोग ‘साहित्य की संप्रेषणीयता’ कहते हैं।
किसी कृति के साहित्यिक होने या न होने का निर्णय केवल समालोचक नहीं कर सकते हैं। यह निर्णय सामान्य साहित्य-प्रेमी करते हैं। तुलसीदास के ‘राम-चरित-मानस’ को तत्कालीन विद्वानों ने अनेक कारणों से खारिज कर दिया था। ‘राम-चरित-मानस’ की भाषा संस्कृत नहीं थी बल्कि सामान्य लोगों की भाषा थी, यह भी विद्वानों द्वारा उस महाकाव्य के बहिष्कार का एक प्रमुख कारण था। वह महाकाव्य साहित्य-जगत का अमूल्य रत्न माना जाता है।
ऐसा देखा गया है कि जो साहित्यकार, लोगों के सुख-दुख से जुड़े रहते हैं, उनकी रचनाओं को पाठकों से स्नेह प्राप्त होता है। जो साहित्य-कर्मी समाज के अनुभवों को केवल raw-material समझते हैं, उन्हें समाज भी खारिज कर देता है। ऐसे साहित्य-कर्मियों का काम एक छोटे से literary establishment यानी साहित्यिक-तंत्र में सिमटकर रह जाता है। जहां बौद्धिक आडंबर और पूर्वाग्रह है, वहां साहित्य नहीं है। मैं समझती हूं कि लोगों के दुख-दर्द में भागीदार होना, साहित्य की पहली शर्त है। दूसरे शब्दों में, मानवता के प्रवाह से जुड़ना साहित्य की कसौटी है। साहित्य वही है जो मनुष्यता को शक्ति प्रदान करे, समाज को बेहतर बनाए। साहित्य, मानवता के शाश्वत मूल्यों को, बदलती परिस्थितियों के अनुरूप ढालता है। साहित्य, समाज को नई संजीवनी देता है। राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी के विचारों पर अनेक संत-कवियों तथा ‘सरस्वतीचन्द्र’ नामक उपन्यास सहित कई साहित्यिक रचनाओं का प्रभाव पड़ा था। साहित्य के ऐसे प्रभाव का सम्मान करना ही चाहिए।
‘आज तक साहित्य जागृति सम्मान’ के विजेताओं को मैं पुनः बधाई देती हूं। India Today group की सराहना करते हुए, मैं यह विश्वास व्यक्त करती हूं कि आपके समूह द्वारा साहित्य के प्रति योगदान को और अधिक व्यापक और सार्थक बनाया जाएगा।
बहुत-बहुत शुभकामनाएं!
धन्यवाद!
जय हिन्द!
जय भारत!