भारत की माननीया राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का विश्वभारती के दीक्षांत समारोह के अवसर पर संबोधन

शांतिनिकेतन : 28.03.2023

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भारत की माननीया राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का विश्वभारती के दीक्षांत समारोह के अवसर पर संबोधन

मैं आज उपाधि प्राप्त करने वाले सभी विद्यार्थियों को हार्दिक बधाई देती हूं। मैं उन सभी शिक्षकों, माता- पिता, अभिभावकों और स्टाफ को भी बधाई देती हूं जिन्होंने उनकी शिक्षा में योगदान दिया है और जिन्हें विद्यार्थियों के जीवन में एक प्रमुख उपलब्धि हासिल करते देखकर प्रसन्नता हो रही है।

भारत की राष्ट्रपति के रूप में, मैंने भारत सरकार के अधीन उच्च शिक्षा के अधिकांश संस्थानों का दौरा किया है। लेकिन मैं मानती हूँ कि विश्व की महान हस्तियों में से एक - गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यालय का परिदर्शक या मेरा यहाँ आना मेरे लिए विशेष सौभाग्य की बात है। इस ऐतिहासिक 'आमारा-कुंज' में आप सभी के बीच आकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।

कल मुझे जोरा-सांको में ठाकुर-बाड़ी जाने और गुरुदेव को पुष्पांजलि अर्पित करने का सौभाग्य मिला। गुरुदेव के घर की उस यात्रा को मैं एक तीर्थ यात्रा के रूप में संजो कर रखूंगी।

गुरुदेव ने 20वीं शताब्दी की शुरुआत में पूर्वी गोलार्ध का सबसे महत्वपूर्ण शहर छोड़ दिया और इस स्थान पर आ गए जो उन दिनों एक दूरस्थ क्षेत्र में आता था। इसमें सभी के लिए, विशेषकर युवा छात्रों के लिए एक संदेश छिपा है। गुरुदेव जैसे पथ-प्रदर्शक बड़े उद्देश्यों के लिए आराम छोडकर कठिनाइयों का चयन करते हैं। विश्वभारती के युवा छात्रों को गुरुदेव के जीवन की इस सीख पर ध्यान देना होगा कि बदलाव लाने के लिए व्यक्ति को अपने कम्फर्ट जोन से बाहर आना होगा।

हम सभी जानते हैं कि हमारे राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के अलावा बांग्लादेश का राष्ट्रगान 'आमार शोनार बांग्ला' भी गुरुदेव ने लिखा है। संयोग की बात है कि विश्वभारती में 'बांग्लादेश भवन' की स्थापना गुरुदेव के स्वर्गवास के लगभग 30 वर्ष बाद उस महान राष्ट्र की स्थापना के बाद हुई थी। विश्वभारती के विश्वविद्यालय-गीत की रचना भी गुरुदेव ने की थी। 'आश्रम संगीत' नामक गीत की शुरुआत सुंदर पंक्ति से होती है:

"आमादेर शान्तिनिकेतन    
आमादेर शोब होते आपोन”    
It is our Santiniketan.    
For us, everyone is our very own.

आश्रम संगीत का संदेश सार्वभौमिक प्रेम का संदेश है। यह गीत, मानव एकता के दर्शन का संदेश देता है और उस महानगरीय भावना को व्यक्त करता है जिसे गुरुदेव ने 'विश्व-बोध' कहा था।

प्रिय विद्यार्थियो,

गुरुदेव के महानता और प्रभाव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि विश्व-भारती के संस्थापक संत का विश्व में सम्मान किया जाता था, जिन्होंने प्राचीन भारतीय लोकाचार को तर्कवाद और मानवतावाद की आधुनिक धाराओं के साथ जोड़ा। विश्वभारती के छात्रों को अब गुरुदेव द्वारा दिए गए शाश्वत संदेशों का प्रसार करना है।

गुरुदेव ने भारत को दुनिया के लिए ज्ञान के प्रमुख स्रोत के रूप में देखा। भारत की इस पथप्रदर्शक भूमिका का वर्णन उन्होंने 'गीत-वितान' में इन शब्दों में किया है:

"प्रथम प्रभात उदय तव गगने    
प्रथम साम-रव तव तपोवने    
प्रथम प्रचारित तव वन-भवने    
ज्ञान धर्म कतो काव्य-काहिनी।” 

Which means:

‘Your horizon had seen the first dawn,    
Your hermitage had echoed the first chant.    
Your exotic abode had been the first paradise -    
Spreading the fragrance of knowledge as poem and song’

देवियो और सज्जनो,

गुरुदेव का यह विश्वास कि प्रकृति सबसे अच्छी शिक्षक है, इस संस्था को जिस तरह से डिजाइन किया गया है, उसमें परिलक्षित होता है। समग्र शिक्षा के लिए जैसा अनुकूल वातावरण हम यहां देखते हैं, उससे अच्छा वातावरण कहीं और मिलना मुश्किल है। वे पश्चिम से उधार ली गई पारंपरिक प्रणालियों की शिक्षा प्रक्रिया को सीमाओं से मुक्त करना चाहते थे। वह ऐसी कठोर संरचनाओं और तरीकों का विरोध करते थे जिनमें छात्र निष्क्रिय रहते थे और सीखने में वे सक्रिय भागीदार नहीं थे। उन्होंने व्यवस्था में अंतर्निहित संवेदनशीलता की कमी को भी महसूस किया। विश्वभारती के माध्यम से उन्होंने हमें प्रकृति से जुड़ी सीखने की प्रणाली का उपहार दिया है, जो आध्यात्मिकता और आधुनिक विज्ञान, नैतिकता और उत्कृष्टता, परंपरा और आधुनिकता को जोड़कर रखती है। गुरुदेव विद्या अध्ययन को असीम और बंधन रहित मानते थे।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 कई मायनों में गुरुदेव के दृढ़ विश्वास की पुष्टि करती है। हम सभी जानते हैं कि जब उन्होंने अनुभव किया कि कुछ विषयों पर बांग्ला में किताबों की कमी है, तो उन्होंने उन विषयों पर बांग्ला में नई किताबें लिखीं। शिक्षा के प्रति उनकी सोच में प्रकृति और मातृभाषा का बहुत महत्व था।

प्रिय विद्यार्थियो,

गुरुदेव चाहते थे कि शिक्षा रचनात्मकता और व्यक्तित्व को बढ़ावा देने वाली हो न कि रूढ़िवादिता और करियरवादी बढ़ाने वाली। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि विश्वभारती ने गुरुदेव के शिक्षा दर्शन का पालन किया है और कई प्रसिद्ध कलाकार और रचनात्मक व्यक्तित्व दिए हैं। इस समृद्ध परंपरा को बनाए रखने का श्रेय पीढ़ी दर पीढ़ी शिक्षकों और छात्रों को जाता है।

गुरुदेव की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए, विश्वभारती से विश्वविद्यालय में सभी को याद रखना चाहिए जो उन्होंने कार्यकारी परिषद की पहली बैठक में कहा था। गुरुदेव ने जो कहा था उसका मैं उल्लेख करती हूं: "यद्यपि विश्वभारती भारत में है लेकिन इसे न केवल ज्ञान का प्रसार करने के लिए बल्कि पूरे विश्व के ज्ञान सृजन का केंद्र बनना चाहिए।’’ इस प्रकार, गुरुदेव चाहते थे कि विश्वभारती एक वैश्विक ज्ञान-केंद्र बने। गुरुदेव की दृष्टि और इच्छाओं को ध्यान में रखना विश्वभारती से जुड़े सभी लोगों का कर्तव्य है।

गुरुदेव को भारतीय ज्ञान परंपरा पर गर्व था। हमारी परंपरा में कहा गया है - 'केवल वही विद्या सार्थक है जो मुक्त करे:

सा विद्या या विमुक्तये

अज्ञानता, संकीर्णता, पूर्वाग्रह, नकारात्मकता, लोभ और अन्य ऐसी बाधाओं से मुक्ति ही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है। मुझे विश्वास है कि विश्वभारती के छात्र जहाँ भी कार्य करने के लिए जाएंगे वहीं समाज को बेहतर बनाने में मदद करेंगे।

देवियो और सज्जनो,

जैसा कि हम सभी जानते हैं, गुरुदेव ने शिक्षा के इस महान स्थल को तैयार करने और बनाए रखने के लिए अत्यधिक बलिदान दिए। उन्होंने ओडिशा के पुरी में अपनी पैतृक संपत्ति बेच दी थी। उनकी पत्नी ने अपने गहने बेच दिए थे। बाद में उन्होंने नोबेल पुरस्कार के रूप में प्राप्त धन का उपयोग यहां के शिक्षण संस्थानों के लिए किया। उन्होंने एक महान सामूहिक कार्य के लिए बलिदान का महान उदाहरण प्रस्तुत किया। मेरा मानना ​​है कि बांटने का आनंद सबसे बड़ा आनंद है और गुरुदेव की उदारता इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। विश्वभारती समुदाय के छात्र और शिक्षक को उनकी इस भावना को धारण करना चाहिए और गुरुदेव का आभार व्यक्त करने चाहिए।

मैं एक बार फिर सभी छात्रों को उनकी उपलब्धियों के लिए बधाई देती हूं। मुझे विश्वास है कि विश्वभारती परिवार सार्वभौमिक कल्याण के महान भाव के साथ आगे बढ़ता रहेगा। मैं छात्रों, शिक्षकों और विश्वविद्यालय से जुड़े सभी लोगों के सुखद और सुखद भविष्य की कामना करती हूं। मेरा गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को श्रद्धाभरा नमन।

धन्यवाद,    
जय हिन्द!    
जय भारत!

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