उत्तराखण्ड विधान सभा के विशेष सत्र में भारत के माननीय राष्ट्रपति का अभिभाषण
देहरादून, उत्तराखण्ड : 18.05.2015
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उत्तराखंड विधान सभा के इस विशेष सत्र में, इस सुंदर राजधानी नगरी देहरादून में उपस्थित होकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। मुझे आज आपके बीच यहां आने के लिए आमंत्रित करने हेतु मैं उत्तराखण्ड विधान सभा के माननीय अध्यक्ष,श्री गोविंद कुंजवाल को धन्यवाद देता हूं।
उत्तराखण्ड का उल्लेख ‘देवभूमि’ अर्थात् देवताओं के निवास के रूप में किया गया है। हिमालय पर्वत शृंखलाओं की तलहटी में बसा हुआ यह प्रदेश न केवल बर्फ से ढके हुए पर्वतों की भूमि है वरन् हमारी सबसे पावन नदियों गंगा और यमुना का भी उद्गम स्थल है। साथ ही,इस राज्य के निवासियों की सादगी, गर्मजोशी तथा सेवा-सत्कार पूरे देश में सुप्रसिद्ध है।
उत्तराखण्ड की सरहद भारत के दो सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ोसियों से लगी हुई है। आपके उत्तर-पूर्व में चीन स्थित है,वहीं दक्षिण-पूर्व में नेपाल है। हाल ही में,नेपाल को एक के बाद एक कई भूकंपों की त्रासदी झेलनी पड़ी है जिसमें बहुत बड़े पैमाने पर विनाश हुआ तथा जनहानि हुई। मैं इस अवसर पर नेपाल के अपने उन भाइयों और बहनों के परिवारों के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त करता हूं जिन्होंने इस त्रासदी में अपनी जानें गंवा दी। भारत सरकार हर संभव मदद दे रही है तथा हमने नेपाल की सरकार तथा जनता को आश्वस्त किया है कि संकट की इस घड़ी में हम उनके साथ हैं।
माननीय सदस्यगण,
माना जाता है कि उत्तराखण्ड के पहाड़ देवताओं का पसंदीदा निवास स्थान है। यह कहा जाता है कि महान ऋषि वेदव्यास ने यहां महाभारत लिखी थी तथा गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम देहरादून के नजदीक स्थित था। यह माना जाता है कि पांडव अपनी अंतिम यात्रा की ओर जाते हुए उत्तराखण्ड में रुके थे। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य 8वीं सदी में केदारनाथ आए थे और कुछ लोग मानते हैं कि उन्होंने यहां निर्वाण प्राप्त किया था। स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित सुविख्यात अद्वैत आश्रम इस राज्य के चंपावत जिले के मायावती नामक स्थान पर है।
भारत के सर्वाधिक पावन तीर्थस्थलों में से कुछ उत्तराखण्ड में स्थित हैं। यमुनोत्री,गंगोत्री,केदारनाथ तथा बद्रीनाथ सहित चारधाम यात्रा की चाह अधिकांश भारतीयों के हृदय में होती है। दुनिया भर से लोग हरिद्वार आकर हर की पौड़ी के पवित्र जल में डुबकी लगाते हैं। श्री हेमकुंत साहिब तथा पीरान कलीयर भी इसी राज्य में स्थित हैं,जहां भारत और विदेशों से बड़ी संख्या में तीर्थयात्री पहुंचते हैं। प्रसिद्ध कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए एक मार्ग भी उत्तराखण्ड से होकर निकलता है।
2013की प्राकृतिक आपदा के बाद राज्य के पुनर्निर्माण के लिए आपके द्वारा किए गए प्रयासों के लिए मैं आप सभी को बधाई देना चाहूंगा। यह देखकर आश्वस्ति होती है कि इस वर्ष चार धाम यात्रा समय से शुरू हुई है तथा बहुत बड़ी संख्या में लोग इसमें भाग ले रहे हैं। मुझे इस बात की भी प्रसन्नता है कि विधान सभा ने इस बात पर विचार-विमर्श करने में एकजुटता दिखाई है कि प्राकृतिक आपदा जैसी असाधारण परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए।
माननीय सदस्यगण,
वर्ष 2000 में उदित उत्तराखण्ड ने भारतीय संघ का27वां राज्य बनने के बाद से महत्त्वपूर्ण प्रगति की है।
उत्तराखण्ड सतत् विकास के प्रयासों में अग्रणी रहा है। वनों के संरक्षण की दिशा में देश के पहले प्रयास के रूप में कार्बेट अभयारण्य1936में इसी क्षेत्र में बनाया गया था। यह न केवल देश में वरन् संपूर्ण एशिया में अपनी तरह का पहला पार्क था। विश्व प्रसिद्ध‘चिपको आंदोलन’ की शुरुआत चमोली जिले के सुदूरवर्ती गांव रैनी की एक साधारण ग्रामीण महिला गौरा देवी ने की थी। बाद में इस आंदोलन में श्री सुंदरलाल बहुगुणा तथा दूसरे पर्यावरणविदों के नेतृत्व में तेजी आई।
लोकप्रिय चिपको गीत का संदेश—
‘‘जमीन है हमारी, जल है हमारा, जंगल है हमारा, हमारे पूर्वजों ने उन्हें रोपा है, अब हमें ही उनकी रक्षा करनी होगी।’’
किसी भी व्यक्ति के दिल को आह्लादित कर देगा।
सामुदायिक सहभागिता से राज्य के वनों के काफी बड़े हिस्से का प्रबंधन करने वाली12000वन पंचायतें देश में अनोखी संस्था बन चुकी है। उत्तराखंड को अपने अस्तित्व के पिछले10वर्षों के दौरान वनक्षेत्र में1100 वर्ग कि.मी. से अधिक वृद्धि करने का श्रेय जाता है।
उत्तराखण्ड में गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों के प्रतिशत में सफलतापूर्वक कमी लाते हुए उसे वर्ष2004-05में32.7प्रतिशत से घटाकर वर्ष2012 में 11.3 प्रतिशत तक लाया गया है। राज्य में99 प्रतिशत गांवों में अब बिजली पहुंच चुकी है। उत्तराखण्ड की वार्षिक वृद्धि दर10प्रतिशत रही है। परंतु यह वृद्धि एकसमान नहीं रही है तथा मैं समझता हूं कि पहाड़ी क्षेत्र इसमें पिछड़े रहे हैं।
मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि यह राज्य चमोली जिले में स्थित गैरसेण को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाना चाहता है,तथा नए विधान सभा भवन का निर्माण कार्य आरंभ हो चुका है। राज्य सरकार द्वारा शासन में सुधार के लिए उठाए गए ई-कोष,भू-अभिलेखों का कंप्यूटरीकरण, जन-सेवाओं की ऑनलाइन सुपुर्दगी,ऑनलाइन शिकायत निवारण व्यवस्था जैसे कदमों का लोगों द्वारा निश्चय ही स्वागत होगा। मैं,कागज रहित विधायिका की दिशा में इस विधान द्वारा शुरू की गई हरित पहलों तथा प्रक्रिया के कंप्यूटरीकरण की भी सराहना करना चाहूंगा।
पर्वतीय तथा जंगली भू-भाग जैसी भौतिक तथा भौगोलिक बाधाओं पर विजय पाते हुए बढ़-चढ़कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए मैं,उत्तराखण्ड की जनता को बधाई देता हूं। विधान सभा के चुनावों में मतदान के प्रतिशत में भी निरंतर सुधार हुआ,जो वर्ष 2002 के विधान सभा चुनावों में54.34प्रतिशत से बढ़कर 2012के चुनावों में67.22प्रतिशत हो गया है। इसके अलावा, तीनों चुनावों में सत्ता में बदलाव हुआ है। किसी भी जीवंत लोकतंत्र की कसौटी यह है कि उसमें बदलाव का आधार मत बनते हैं।
माननीय विधान सभा सदस्यगण,
हमारे गणतंत्र के संस्थापक यह मानते थे कि हमारी प्रकृति तथा स्वभाव के लिए संसदीय प्रणाली सबसे अधिक उपयुक्त है। संविधान प्रारूपण समिति के अध्यक्ष,डॉ. अम्बेडकर ने कहा था :
‘‘संयुक्त राज्य अमरीका में जैसी गैर-संसदीय प्रणाली मौजूद है उसमें कार्यपालिका के उत्तरदायित्व का आकलन आवधिक होता है। यह मतदाताओं द्वारा किया जाता है। इंग्लैंड में,जहां संसदीय प्रणाली प्रभावी है,कार्यपालिका के उत्तरदायित्वों का आकलन दैनिक तथा आवधिक दोनों तरह से होता है। दैनिक आकलन संसद (आपके यहां विधान सभा) के सदस्यों द्वारा प्रश्नों,संकल्पों,अविश्वास प्रस्तावों,स्थगन प्रस्तावों तथा अभिभाषण पर परिचर्चाओं के माध्यम से होता है। आवधिक आकलन मतदाताओं द्वारा चुनावों के समय किया जाता है,जो हर पांचवें साल अथवा उससे पहले हो सकते हैं। यह माना जाता है कि उत्तरदायित्वों का दैनिक आकलन,जो अमरीकी प्रणाली के तहत उपलब्ध नहीं है,आवधिक आकलन से कहीं अधिक कारगर है तथा भारत जैसे देश में वह और भी अधिक जरूरी है। कार्यपालिका की संसदीय प्रणाली की सिफारिश करते हुए संविधान के प्रारूप में अधिक उत्तरदायित्व को अधिक स्थाईत्व पर प्राथमिकता दी गई है।’’
भारत जैसे आकार तथा विविधताओं से परिपूर्ण देश का शासन चलाना तथा क्षेत्र,भाषा,नस्ल,जाति और धर्म के कारण सामने आने वाली चुनौतियों से निपटना एक असाधारण कार्य है। परंतु हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणाली ने गहरी पकड़ बना ली है तथा हमने अब तक संसद के निचले सदन के सोलह आम चुनाव तथा अपनी विधान सभाओं और स्थानीय निकायों के असंख्य चुनाव सफलतापूर्वक करवाए हैं। हमारे संसदीय लोकतंत्र को आज पूरी दुनिया में विस्मय और प्रशंसा के साथ देखा जाता है।
माननीय विधान सभा सदस्यगण,
भारत के संविधान में विधान सभा को राज्य में शासन के केंद्र में रखा गया तथा उसे सुशासन तथा सामाजिक-आर्थिक बदलाव का प्राथमिक उपकरण माना गया है। एक विधायक का कार्य24×7उत्तरदायित्व लिए हुए होता है। विधायकों को हर समय जनता की समस्या के समाधान के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए। उन्हें जनता की शिकायतों को विधायिका के समक्ष उठाकर उनकी आवाज बनना चाहिए तथा जनता और सरकार के बीच की कड़ी के रूप में कार्य करना चाहिए। उन्हें यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि युवा तथा महत्वाकांक्षी भारतीय उनसे सेवा प्रदाता बनने की अपेक्षा रखते हैं। पांच वर्ष के अंत में वे यह हिसाब मांगेंगे कि उन्होंने किस तरह अपना दायित्व निभाया। हममें से प्रत्येक व्यक्ति,जो भी चुने गए पदों पर हैं,को यह याद रखना चाहिए कि जनता हमारी मालिक है। हममें से हर एक ने,यहां पहुंचने के लिए मत मांगे हैं तथा उनका समर्थन प्राप्त किया है।
संसदीय प्रणाली के प्रभावी संचालन का बुनियादी सिद्धांत है कि बहुमत शासन करेगा तथा अल्पमत विरोध करेगा,खुलासा करेगा तथा यदि संभव हो तो अपदस्थ करेगा। तथापि,अल्पमत को बहुमत का निर्णय स्वीकार करना चाहिए और बहुमत को अल्पमत के विचारों का सम्मान करना चाहिए।
विधान सभा में, सदैव अनुशासन एवं शालीनता बनाए रखनी चाहिए तथा नियमों परंपराओं और शिष्टाचार का पालन होना चाहिए। संसदीय परंपराओं,प्रक्रियाओं तथा परिपाटियों का उद्देश्य सदन में सुव्यवस्थित तथा तेजी से कार्य संचालन की व्यवस्था करना है। असहमति को शालीनता से तथा संसदीय व्यवस्थाओं की सीमाओं और मापदंडों के तहत व्यक्त किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में परिचर्चा,असहमति तथा निर्णय का स्थान होना चाहिए‘व्यवधान’का नहीं।
यह खेदजनक है कि पूरे देश में विधायकों द्वारा विधि निर्माण पर लगाया जाने वाला समय धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। अध्यक्षों के सम्मेलनों में बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है कि हर वर्ष कम से कम100दिन बैठकें आयोजित होनी चाहिए। प्रशासन की बढ़ती जटिलताओं के मद्देनजर कानून पारित करने से पूर्व पर्याप्त परिचर्चा तथा जांच होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह अपेक्षित परिणाम देने में असमर्थ रहेगा अथवा अपने उद्देश्यों पर पूरा नहीं उतरेगा। खासकर,विधि निर्माण,धन तथा वित्त के मामलों में अत्यधिक सतर्कता बरतने की जरूरत है। यह याद रखा जाना चाहिए कि विधायिका के अनुमोदन के बिना कार्यपालिका न तो कोई व्यय कर सकती है न ही कोई कर लगा सकती है और न ही राज्य की समेकित निधि से धन ही निकाल सकती है।
यह संतोष की बात है कि मौजूदा सोलहवीं लोक सभा पूरी गंभीरता से अपनी भूमिका तथा उत्तरदायित्वों को निभा रही है। सोलहवीं लोक सभा ने अभी तक90दिन बैठकें की हैं तथा55 सरकारी विधेयक पारित किए हैं।24विधेयक हाल ही में संपन्न चतुर्थ सत्र में पारित हुए हैं। इसके साथ ही,सदन तात्कालिक सरकारी कार्य पूरा करने के लिए चतुर्थ सत्र के दौरान55घंटे और 19 मिनट तक देरी तक बैठा। यह दु:ख की बात है कि व्यवधानों और जबरन् स्थगन के कारण7घंटे और04 मिनट बरबाद हुए। शुक्र है कि यह समय पिछले बहुत से सत्रों से कम है।
मैं यह भी बताना चाहूंगा कि इस लोक सभा की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें318सदस्य पहली बार चुनकर आए हैं तथा गुणवत्तापूर्ण बहस और परिचर्चा पर लगने वाला समय काफी बढ़ा है। मुझे इस बात की विशेष प्रसन्नता है कि भारत और बांग्लादेश के बीच जमीनी सरहद पर करार को संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से पारित किया। इस विधेयक पर सर्वसम्मत मतदान से बांग्लादेश को मैत्री का एक मजबूत संदेश गया है तथा इसने दुनिया को दिखा दिया कि भारत राष्ट्रीय हितों के मामले में एकजुट है।
मैं उत्तराखण्ड विधान सभा तथा अन्य विधान सभाओं से आग्रह करता हूं कि वे बैठकों की संख्या बढ़ाने पर विचार करें ताकि राज्य के मसलों पर गंभीरता से परिचर्चा और बहस हो सके। जनता को विधान मंडलों के और करीब लाने के लिए मैं यह सुझाव दूंगा कि जनता को विधायिका की कार्यप्रणालियों से परिचित कराने के लिए हमारी विधान सभाओं को संग्रहालय स्थापित करने चाहिए। वे सत्रों का अवलोकन करने के लिए छात्रों को आमंत्रित कर सकते हैं तथा ग्राम सभाओं और पंचायतों जैसे स्थानीय निकायों के सदस्यों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का आयोजन कर सकते हैं।
माननीय सदस्यगण,
प्रत्येक विधायक को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सदनों में होने वाली बहसों की विषयवस्तु और गुणवत्ता का स्तर सर्वोत्तम हो। विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्य के रूप में हर एक विधायक अपने-अपने दलों की नीतियों से निर्देशित होंगे। परंतु विकास और जनता के कल्याण के मुद्दे राजनीतिक अवरोधों से परे होते हैं। इस तरह के मुद्दों पर सर्वसम्मति बनाना कठिन नहीं होना चाहिए।
किसी भी संसदीय लोकतंत्र में, विधायिका का निगरानी संबंधी कार्य महत्त्वपूर्ण और गतिशील होता है। विधायी निगरानी,समितियों और सदन के पटल पर की जाने वाली एक निरंतर प्रक्रिया है। लोक लेखा समिति,प्राक्कलन समिति तथा विभागीय स्थायी समिति जैसी समितियों में विधायकों की भागीदारी से उन्हें सरकारी विभागों के जटिल कामकाज में विशेषज्ञता प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
प्रश्नकाल, प्रश्न पूछने तथा कार्यपालिका को उसके कृत्यों अथवा अकृत्यों के लिए जवाबदेह ठहराने और संबंधित मंत्रालयों से आश्वासन प्राप्त करने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। यह विधायकों का एक महत्वपूर्ण विशेषाधिकार है तथा उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रश्नकाल का पूर्णत: उपयोग किया जाए।
मैं इस बात पर बल देने के लिए एक दृष्टांत का उल्लेख करना चाहूंगा। श्री एस. सत्यमूर्ति,जो एक वकील और श्रेष्ठ वक्ता थे, 1923में मद्रास विधान परिषद के सदस्य बने और एक विधायक के रूप में उनकी प्रसिद्धि तेजी से पूरे देश में फैल गई। उन्होंने प्रश्नकाल में अपनी धाक जमाई और प्रश्न पूछने की कला में महारत हासिल की।‘उन्हें प्रश्नकाल के आतंक’के रूप में जाना जाता था। अपने जोरदार और प्रभावी भाषणों ने उन्हें‘ट्रम्पेट वॉयस’नाम प्रदान किया। जब मद्रास विधान परिषद के चुनावों का समय आया तो गांधी जी ने कहा था कि विधान सभा में सत्यमूर्ति को भेजना ही काफी है।1935से1939 तक केंद्रीय विधान सभा के सदस्य के रूप में श्री सत्यमूर्ति की सफलता पर गांधीजी ने टिप्पणी की थी कि यदि हमारी विधान मंडलों में दस सत्यमूर्ति होते तो अंग्रेज बहुत पहले भाग चुके होते।
माननीय सदस्यगण,
मैंने नवम्बर 2013 में, सुंदर राज्य अरुणाचल प्रदेश की यात्रा की थी और मुझे बताया गया था कि इस राज्य की केबांगऔर बुलियांग नामक पारंपरिक जनजातीय परिषद के नेता अपनी बैठक की शुरुआत में ये पंक्तियां दोहराया करते थे:-
‘ग्रामीणो और भाइयो, आइए हम अपने रीति-रिवाज और अपनी परिषद को सुदृढ़ बनाएं,आइए हम अपने संबंधों को सुधारें,आइए हम कानूनों को सभी के लिए स्पष्ट और समान बनाएं,हमारे कानून सभी पर समान रूप से लागू हों, हमारे रीति-रिवाज सभी के लिए समान हों,हम बुद्धि से निर्देशित हों और यह सुनिश्चित करें कि न्याय किया गया है और ऐसा सुलह करवाई गई है जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य है। आइए हम विवाद के शुरू होते ही उसे निपटाएं,कहीं छोटा विवाद बढ़कर और लंबे समय तक न चले। हम परिषद की बैठक के लिए एकत्रित हुए हैं और हम एकमत होकर बोलें तथा अपना निर्णय लें। इसलिए,आइए निर्णय लें और न्याय प्रदान करें।’
आधुनिक काल के विधायकों को जनजातीय बुजुर्गों की इस बुद्धिमतापूर्ण सलाह से सीख लेनी चाहिए।
माननीय सदस्यगण,
उत्तराखण्ड विधान सभा ने वर्षों के दौरान अनेक प्रगतिशील कानूनों के माध्यम से राज्य की जनता के कल्याण को बढ़ावा दिया है। अब राज्य को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में नेतृत्व प्रदर्शित करने का समय आ गया है। उत्तराखण्ड के पास पर्यटन के प्रमुख स्थल और बागवानी के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में विकसित होने के लिए सभी आवश्यक संसाधन मौजूद हैं। उत्तराखण्ड ज्ञान की परंपरागत पीठ रहा है। भारतीय सैन्य अकादमी,वन अनुसंधान संस्थान,लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी,भारतीय वन्य जीव संस्थान,भारतीय पेट्रोलियम संस्थान तथा गोविंद वल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पहले से ही यहां स्थित हैं। इस राज्य की,देश के शिक्षा,खेल और सूचना प्रौद्योगिकी केन्द्र के रूप में उभरने की बहुत संभावना है।
शिक्षा ही वह मंत्र है जो हमारे राष्ट्र में बदलाव ला सकता है। मैं,आपमें से हर-एक से आग्रह करता हूं कि आप अपने विधान सभा क्षेत्रों के स्कूलों और कॉलेजों के हालात का व्यक्तिगत रूप से जायजा लें और यह सुनिश्चित करें कि विद्यार्थी स्कूल जा रहे हैं,अध्यापक पढ़ाते हैं तथा सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान की जा रही है। आप सभी नमामि गंगे कार्यक्रम और स्वच्छ भारत अभियान से परिचित हैं। पवित्र नदियों के स्रोत तथा तीर्थयात्रियों के एक प्रमुख गंतव्य तथा शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र होने के नाते इस राज्य को इन कार्यक्रमों की सफलता सुनिश्चित करनी चाहिए। स्वच्छ गंगा और स्वच्छ भारत के लक्ष्य को अपने हाथों में लें।
माननीय सदस्यगण,
देवताओं ने आपके राज्य तथा जनता को भरपूर सौंदर्य से नवाजा है। मुझे विश्वास है कि आपके कठोर परिश्रम तथा दृढ़ निश्चय के परिणामस्वरूप राज्य के हर नागरिक का जीवन सुख और समृद्धि से परिपूर्ण होगा।
अंत में, मैं उत्तराखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि,श्री सुमित्रा नंदन पंत की कुछ पंक्तियों के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा :
कोटि-कोटि हम श्रमजीवी सुत
सर्व एक मत, एक ध्येय रत,
जय भारत हे,
जाग्रत भारत हे।
धन्यवाद,
जय हिंद!