स्वर्गीय पंडित रवि शंकर को सांस्कृतिक सौहार्द के लिए प्रथम टैगोर पुरस्कार प्रदान करने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली : 07.03.2013
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मैं, सांस्कृतिक सौहार्द के लिए प्रथम टैगोर पुरस्कार, महान भारतीय सितार आचार्य, स्वर्गीय पंडित रवि शंकर को प्रदान करके गौरव का अनुभव कर रहा हूं, जिनके संगीत ने विश्व को मंत्रमुग्ध कर दिया और करता रहेगा।
यद्यपि पंडित रवि शंकर अब सशरीर हमारे बीच नहीं है परंतु उनका संगीत हमेशा हमारे साथ रहेगा और हमें, भारतीय शास्त्रीय संगीत को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने में उनके महान योगदान की याद दिलाता रहेगा। मुझे प्रसन्नता है कि उनकी पत्नी श्रीमती सुकन्या शंकर और उनकी पुत्री सुश्री अनुष्का शंकर पुरस्कार ग्रहण करने के लिए यहां उपस्थित हैं।
गुरुदेव रवीद्रनाथ टैगोर की 150वीं जन्म जयंती के स्मृति समारोह के भाग के रूप में, यह पुरस्कार वैश्विक भाइचारे के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए आरंभ किया गया था। मई 2012 में, टैगोर स्मृति समारोह के समापन पर, मुझे प्रथम टैगोर पुरस्कार के लिए पंडित रवि शंकर के नाम की घोषणा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
देवियो और सज्जनो, रवीन्द्र नाथ टैगोर एक साहित्यिक हस्ती थे जो संस्कृति और साहित्य के बारे में ज्ञान के आदान-प्रदान के माध्यम से सभ्यताओं के बीच संवाद के विचार से अत्यंत प्रभावित थे। एक कवि, लेखक, संगीतकार, चित्रकार, दार्शनिक और शिक्षाविद्, ये प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, बाह्य विश्व के साथ सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने के लिए हमारे देश के श्रेष्ठ दूत थे।
विभिन्न राष्ट्रों का साहित्य, इतिहास और संस्कृति, मानवता के सार्वभौमिक मूल्य को प्रतिबिंबित करते हैं। अभी भी जाति, पंथ और रंगों की बेड़ियों से जकड़े हुए इस विश्व में, रवींद्रनाथ टैगोर ने विभिन्न संस्कृतियों की विविधता, स्वतंत्र मानसिकता, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व पर आधारित, एक नई विश्व व्यवस्था के लिए अंतरराष्ट्रीयवाद को बढ़ावा दिया।
भारत के इस जन-कवि ने विश्व को अपना घर बना लिया। 1921 में विश्व भारती विश्वविद्यालय ‘यत्र विश्वं भवति एक नीड़म्’ (जहां संपूर्ण विश्व एक ही नीड में अपना घर बनाता है) के आदर्श पर स्थापित किया गया था। उन्होंने ज्ञान प्राप्ति के एक ऐसे विश्वव्यापी स्थान की परिकल्पना की थी, जहां विभिन्न संस्कृतियों के विद्यार्थी मिलें और एक दूसरे से सीखें।
1861 में जब रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ, उस समय हमारे लोगों की सामूहिक चेतना, हीनता की भावना से ग्रस्त थी। वर्ष 1941 आते-आते, जब उन्होंने अंतिम सांस ली, तो यह भावनवा समाप्त हो चुकी थी। टैगोर, इस मानसिकता में यह महान परिवर्तन लाने में अग्रणी थे।
उन्होंने सत्य और सौहार्द तथा प्रेम और संवेदना के धर्म का प्रचार किया। प्रथम एशियाई व्यक्ति को नोबेल पुरस्कार प्रदान किए जाने की शताब्दी मनाने के अवसर पर यह उपयुक्त ही है कि भारत के उतने ही प्रिय सुपुत्र पंडित रवि शंकर को, उनके नाम पर शुरू किया गया यह पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है।
देवियो और सज्जनो, दिवंगत पंडित रविशंकर भारत के सबसे प्रतिष्ठित संगीत दूत और शास्त्रीय संगीत जगत के एक विशिष्ट व्यक्तित्व थे। एक संगीतकार, कलाकार, शिक्षक और लेखक के रूप में, उन्होंने भारतीय संगीत और संस्कृति की अमूल्य सेवा की।
अपने महान गुरु बाबा अलाउद्दीन खां से वर्षों तक कड़ा प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद, भारत के शास्त्रीय संगीत जगत में स्वयं को स्थापित करते हुए, वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के सौंदर्य के प्रसार के लिए पश्चिम की यात्रा पर निकल पड़े। भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिम तक पहुंचाने और इसे लोकप्रिय बनाने के अपने अग्रणी कार्य के लिए उनकी सराहना की जाती है।
उन्होंने सात वर्षों तक, दिन में 18 घंटे सितार सीखा और उस वाद्ययंत्र में महारत हासिल की, जिससे अधिकांश दुनिया अनभिज्ञ थी। उन्होंने विश्व संगीत पटल पर सितार को प्रमुख स्थान प्रदान करने के लिए विख्यात अंतरराष्ट्रीय संगीत हस्तियों के साथ काम किया।
उन्होंने पूरी दुनिया में, भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन के लिए अन्य भारतीय संगीतज्ञों के लिए भूमिका तैयार की। अब, विश्व भारतीय संगीत को व्यापक रूप से स्वीकार करता है और उसका अधिकांश श्रेय पंडित रवि शंकर की संकल्पना को जाता है।
पंडित रवि शंकर के हाथों में सितार, संगीत वाद्ययंत्र से कहीं अधिक था। अपनी परपंरा से प्रेरणा ग्रहण करते हुए उन्होंने संगीत को एक विश्व भाषा बना दिया। वह युवाओं तक पहुंच बनाने में अग्रणी रहे और यह सुनिश्चित किया कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को उनके हृदय और जीवन में स्थान रहे।
पंडित रविशंकर ने एक दिग्गज के रूप में, बड़े-बड़े पाश्चात्य कलाकारों और संगीतज्ञों को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने, हमारे जैसे देश की तरह प्राचीन परंतु अपने द्वारा रचित ‘रागों’ की तरह दैदीप्यमान, सामासिक संस्कृति के विचार को विश्व श्रोताओं के सम्मुख लाने के लिए दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के कलाकारों के साथ कार्य किया। महान संगीतकार यहूदी मेन्यूहिन के साथ उनका कार्य धर्म, क्षेत्र और संस्कृति से ऊपर था।
वह संगीत में अपने योगदान के लिए और संगीत के माध्यम से सांस्कृतिक सामंजस्य पैदा करने के लिए सुविख्यात रहे हैं। अपने दीर्घ और लब्धप्रतिष्ठित जीवन के दौरान उन्हें 1962 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1992 में रामोन मैग्सेसे पुरस्कार, फ्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘द नाईट ऑफ द लीजियन ऑफ ऑनर’ तथा ग्रेमी पुरस्कार सहित अन्य बहुत से महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्रदान किए गए। 1999 में, उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।
पंडित रविशंकर एक महान संगीतकार थे परंतु वह आजीवन विनम्र इन्सान बने रहे। राग माला शीर्षक से अपनी आत्मकथा में, उन्होंने कहा : ‘‘लोग अकसर मुझसे पूछते हैं कि आप क्या चाहते हैं कि लोग आपको किस काम के लिए याद करें; और मैं चाहूंगा कि मुझे मेरी गलतियों के लिए नहीं बल्कि उन उपलब्धियों के लिए याद किया जाए, जिन्हें मैं प्राप्त कर सका—जिन्होंने मेरे अपने देश और दुनिया भर के लोगों के दिलों को छू लिया। ईश्वर की मुझ पर कृपा रही और मैं वास्तव में बहुत भाग्यशाली रहा हूं कि मुझे समूचे विश्व में ख्याति और प्रशंसा प्राप्त हुई। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि हमारे संगीत की महानता के संप्रेषण में कभी कोई बाधा नहीं आई।’’
हमारे बीच से उनका जाना भारत और विश्व के लिए भारी क्षति है। तथापि, उनकी विरासत जिंदा है और संगीत जगत को रौशन करती रहेगी। सांस्कृतिक सौहार्द में महान योगदान के लिए, प्रथम टैगोर सांस्कृतिक सौहार्द पुरस्कार प्रदान करके हम स्वर्गीय पंडित रवि शंकर को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।
धन्यवाद,
जय हिंद!