स्वामी विवेकानंद की 150वीं जन्म जयंती के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली : 07.03.2013

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मुझे स्वामी विवेकानंद की 150वीं जन्म जयंती के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में आपके बीच आकर प्रसन्नता हो रही है। इससे हमें स्वामी विवेकानंद के उपदेशों तथा उनके द्वारा सिखाए गए मूल्यों पर चिंतन करने तथा उनके बारे में अपनी समझ को ताजा करने का मौका मिला है।

भारत माता के एक महान सपूत, स्वामी विवेकानंद को, भारत के सांस्कृतिक जागरण में उनके योगदान के कारण न केवल हमारे देश में, वरन् पूरे विश्व में अनन्य ख्याति प्राप्त हुई। वे चालीस साल से कम उम्र तक जिए परंतु उनका जीवन प्रबलता तथा व्यापकता से परिपूर्ण था।

स्वामी जी के उपदेश वेदांत के अनुरूप थे। उन्होंने मनुष्य के अंदर सुसुप्त आध्यात्मिकता को जाग्रत किया। उन्होंने कहा था, ‘‘मैं उन्हें ईश्वर कहता हूं जिन्हें आम आदमी गलती से मानव कहता है।’’ उनका मानना था कि ईश्वर की उत्कृष्ट रचना होने के कारण मानव तथा उनके अस्तित्व की अनदेखी नहीं की जा सकती।

उनका मानना था कि धर्म खुद को और समाज को रूपांतरित करने का हथियार होना चाहिए। उनके गुरु, श्री रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें सिखाया था कि मानव सेवा ईश्वर सेवा है। स्वामी जी ने अपने सामाजिक सेवा कार्यक्रम का आधार इसी सिद्धांत को बनाया था।

उन्होंने अपने गुरु के इस संदेश को आत्मसात् किया था कि जो भी चीज इस जीवन में ईश्वर की अनुभूति कराने में सहायक हो, उसे धर्म के आचरण तथा उच्चतम् सच्चाई की स्वीकृति के लिए सहायक के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। स्वामी जी ने कभी भी अपने गुरु को अपने व्यक्तिगत जीवन के संदर्भ में नहीं देखा बल्कि उनको भारत तथा शेष विश्व के संदर्भ में देखा।

देवियो और सज्जनो, स्वामी जी नि:संदेह एक मेधावी विद्वान और गंभीर चिंतक थे। उन्होंने अपने ज्ञान को, राष्ट्र के प्रति अपनी चिंता तथा उसकी विपदाग्रस्त जनता से जोड़ दिया। उन्होंने देश के कोने-कोने तक, उनकी समस्याओं को समझने के लिए यात्राएं की।

वे हमारी जनता की घोर गरीबी से व्यथित थे और मानते थे कि देश का पतन मुख्यत: गरीबों के दमन के कारण हुआ जो कि अज्ञान और अंधविश्वासों से भी ग्रसित थे। उन्होंने देखा कि भारत में निर्धनों को सबसे अधिक जरूरत भोजन, वस्त्र तथा छत जैसी बुनियादी जरूरतों की है।

स्वामी जी का मानना था कि हर एक मनुष्य में असीम संभावनाएं मौजूद हैं परंतु इनका उपयोग करने के लिए लोगों में आत्म-विश्वास जरूरी है। वह कहते थे कि, ‘‘वह नास्तिक है जो खुद में विश्वास नहीं करता।’’ उन्होंने अपने व्याख्यानों और उपदेशों से लोगों का विश्वास बढ़ाया और कहा कि, ‘‘सभी शक्तियां आपके अंदर हैं; आप कुछ भी और सब कुछ कर सकते हैं; इस बात पर भरोसा करें, यह न समझें कि आप कमजोर हैं।’’

स्वामी जी ने समाज में अचानक बदलावों की बात नहीं कही। उनका मानना था कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव शिक्षा के माध्यम से लाए जा सकते हैं। वे सोचते थे कि लोगों को दो तरह की शिक्षा दी जानी चाहिए—कृषि तथा ग्राम उद्योगों में नई तकनीकों के बारे में ज्ञान से जुड़ी पंथनिरपेक्ष शिक्षा, जो उनका आर्थिक उद्धार करे तथा उनमें आत्मविश्वास तथा अपने महत्त्व की भावना को जगाने के लिए आध्यात्मिक शिक्षा तथा बेहतर भविष्य के लिए उनको उम्मीद प्रदान करना।

स्वामी जी ने 1897 में रामकृष्ण मिशन स्थापित किया, जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि, ‘‘वे एक ऐसी व्यवस्था खड़ी कर रहे हैं जो कि निर्धनतम तथा सबसे छोटे व्यक्ति के दरवाजे तक उच्चतम विचार लेकर आएगी।’’ यह मिशन तभी से निर्धनों और जरूरतमंदों की सेवा कर रहा है और स्वास्थ्य सेवा तथा शिक्षा, महिला कल्याण, युवा कल्याण, राहत तथा पुनर्वास से संबंधित कार्य कर रहा है तथा ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में रोजगार सृजित करने की दिशा में कार्य कर रहा है। इससे कई ऐसे अच्छे प्रयासों को, आगे आकर सार्थक रूप से सामाजिक विकास की दिशा में योगदान करने के लिए प्रेरणा मिली है।

देवियो और सज्जनो, स्वामी जी ने अपने देश और धर्म के एक सच्चे प्रतिनिधि के रूप में 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में भाग लिया और एक ऐसी महान प्राचीन सभ्यता के तौर पर भारत की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया, जो कि दुनिया को इसकी जीती-जागती संस्कृति और दर्शन से सीखने का श्रेष्ठ अवसर प्रदान करता है। एक वर्ष पहले, जब मैं शिकागो गया था तो मुझे उस स्थान पर एक पट्टिका का अनावरण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जहां स्वामी जी ने 1893 में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था।

शिकागो में, अपने भाषण के द्वारा तथा उसके बाद अमेरिका और इंग्लैंड में अपने कार्य के माध्यम से स्वामी जी ने आधुनिक रहन-सहन से जुड़ी बहुत सी समस्याओं के समाधान में भारत के प्राचीन दर्शन और आध्यात्मिक संस्कृति की वैश्विक प्रासंगिकता और महत्त्व को प्रदर्शित किया।

स्वामी विवेकानंद पूरब और पश्चिम के बीच एक सेतु थे। उन्होंने हमारे देशवासियों को, पाश्चात्य मानववाद की, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, न्याय और महिलाओं के प्रति सम्मान जैसी अवधारणाओं का भारतीय परम्परा में समावेश करने की शिक्षा दी। नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने एक बार कहा था, ‘‘स्वामी जी ने पूर्व और पश्चिम; धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान का सामंजस्य किया। हमारे देशवासियों ने उनके उपदेशों से अपूर्व आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता और आत्म-अभिव्यक्ति को प्राप्त किया।’’

देवियो और सज्जनो, यद्यपि स्वामी जी ने कभी कोई राजनीतिक संदेश नहीं दिया परंतु बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों ने उनके लेखन और भाषणों से प्रेरणा प्राप्त की और देशभक्ति की भावना विकसित की। महात्मा गांधी ने एक बार स्वामी जी के बारे में कहा था, ‘‘मैंने उनकी कृतियों का अच्छी तरह अध्ययन किया है और उन्हें पढ़ने के बाद, अपने देश के प्रति मेरा प्रेम हजार गुना बढ़ गया था।’’

उन्होंने किसी जाति, धर्म, नस्ल, राष्ट्रीयता और लिंग भेद के बिना सभी मनुष्यों से प्रेम किया और समानता का व्यवहार किया। वह समतावादी दर्शन को मानते थे और उच्च वर्ग को नीचे गिरकर नहीं बल्कि निम्न वर्ग को ऊपर उठाकर सभी को समान अवसर प्रदान करना चाहते थे।

विश्वबंधुता के कारण, स्वामी विवेकानंद का आध्यात्मिक के बारे में ज्ञान और समझ हिंदुत्व से कहीं आगे पहुंच गयी थी। उन्हं अन्य धर्मों के संदेशों की गहरी जानकारी थी। स्वामी जी ने धर्मों के बीच तथा धर्म और विज्ञान के बीच समरसता की आधारशिला रखी।

स्वामी जी ने आजीवन, अपने गुरु के धार्मिक समरसता के संदेश: ‘‘यतो मत, ततो पथ (जितने मत, उतने रास्ते) का प्रचार-प्रसार किया। स्वामी जी ने धर्म को ‘चेतना के विज्ञान’ के रूप में देखा और माना कि धर्म और आधुनिक विज्ञान विरोधी की बजाय अनुपूरक हैं। उन्होंने धर्म को एक सार्वभौमिक संकल्पना के रूप में चित्रित किया और इसे अंधविश्वास, मतांधता और असहिष्णुता की युगों पुरानी कुप्रथाओं से मुक्त किया।

देवियो और सज्जनो, स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती मनाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति तथा एक राष्ट्रीय कार्यान्वयन समिति गठित की गई थी, जिसकी अध्यक्षता मैंने वित्त मंत्री रहने के दौरान की थी।

यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि इन समितियों के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत, विभिन्न भाषाओं में स्वामी जी के जीवन और उपदेशों पर पुस्तकों का मुद्रण, स्वामी जी से संबंधित दृश्य-श्रव्य सामग्री का निर्माण और वितरण, मीडिया के माध्यम से उनकी शिक्षाओं का प्रचार, तथा धार्मिक सद्भावना पर उनके विचारों के सम्मानस्वरूप विभिन्न धर्मों के स्मारकों के संरक्षण जैसे कार्य आरम्भ किए गए हैं।

स्वामी विवेकानंद के उपदेशों की सार्वभौमिकता, आधुनिक विश्व के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। हमने जो तरक्की की है उसके बावजूद, हमारे समाज के समक्ष हमारे आचार और नैतिकता को चुनौती देने वाले मुद्दे खड़े हैं। स्वामी जी के उपदेश, भविष्य की और हमारे मार्ग में हमारे पथप्रदर्शक होने चाहिए।

मुझे उम्मीद है कि स्वामी जी की 150 वीं जन्म जयंती मानव मात्र के कल्याण, प्रगति और जाग्रति के लिए किए गए उनके महान योगदान और त्याग के प्रति हमारे विचार उद्वेलन का एक अवसर होगी। आइए, उन लक्ष्यों के प्रति पुन: स्वयं को समर्पित कर दें जिनके लिए स्वामी जी ने अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया था।

धन्यवाद।

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