सर्वोच्च न्यायालय के फोर्थ रिट्रीट ऑफ जजेज के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति का अभिभाषण

राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी, भोपाल : 16.04.2016

डाउनलोड : भाषण सर्वोच्च न्यायालय के फोर्थ रिट्रीट ऑफ जजेज के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति का अभिभाषण(हिन्दी, 251.84 किलोबाइट)

sp1. इस प्रात: फोर्थ जजेज रिट्रीट 2016का उद्घाटन करने के लिए आपके बीच उपस्थित होना मेरे लिए सौभाग्य है।

2. मुझे ज्ञात है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की ऐसी प्रथम रिट्रीट2005 में आयोजित की गई थी,दूसरी रिट्रीट2005तथा तीसरी रिट्रीट 2009में आयोजित की गई थी। इन रिट्रीटों में विधि शासन पर सामूहिक घटनाक्रमों का प्रभाव,मानव अधिकार, भारत में न्याय प्रशासन तथा न्यायिक प्रणाली जैसे विभिन्न प्रकार के विषयों पर चर्चा की गई।

3. यह रिट्रीट लगभग 7वर्षों के अंतराल के बाद हो रही है। भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य साथी न्यायाधीशों को इस रिट्रीट के आयोजन के लिए बधाई दी जो उन सामयिक चुनौतियों पर विचार-विमर्श के लिए एक मंच उपलब्ध करवाएगा जिनका देश आज विधिक विवादों और अधिनिर्णयों के वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय तत्वों के साथ सामना कर रहा है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार की परिचर्चा और विचार न्यायाधीशों को समय के साथ चलने तथा तेजी से बदल रहे विश्व में न्यायपूर्ण और प्रभावी न्याय प्रदान करने में मदद के लिए महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं। मुझे आशा है कि इन रिट्रीटों को संस्थागत बनाया जाएगा तथा भविष्य में इन्हें नियमित रूप से आयोजित किया जाएगा।

विशिष्ट न्यायाधीशों,देवियो और सज्जनो,

4. हमारे लोकतंत्र के तीन अहम स्तंभों में से एक न्यायपालिका है जो संविधान और विधि की अंतिम व्याख्याता है। यह विधि के गलत पक्ष वाले लोगों के साथ तीव्रता और प्रभावी तरीके से निपटकर सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने में मदद करती है। विधि शासन की संरक्षक तथा स्वतंत्रता के अधिकार की प्रवर्तक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका पवित्र है। न्यायपालिका में लोगों का विश्वास और भरोसा इस सच्चाई का प्रमाण है कि न्यायपालिका ने1950 से समय की आवश्यकता के अनुसार प्रत्युत्तर दिया है। लोगों के लिए न्याय को सार्थक बनाने हेतु इसे सुलभ,वहनीय और त्वरित होना चाहिए।


5. एक लोकतंत्र में विधि शासन को बनाए रखना न्यायपालिका की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। संविधान इसे मानता है तथा भारत के सभी नागरिकों को न्याय प्रदान करने के महान उद्देश्य चाहे सामाजिक,आर्थिक या राजनीतिक हो,निर्धारित करता है। प्राचीन काल में भी विधि शासन को‘धर्म-ध्रुव धार्यते’,जिसका अर्थ नैतिक नियमों के माध्यम से मानव समाज को कायम और एकताबद्ध रखना तथा संपूर्ण समुदाय के श्रेष्ठ लोगों की सहमति प्राप्त करना है।

6.सबसे गरीब तक न्याय की पहुंच से सभी के लिए न्याय सुनिश्चित होगा। यह स्मरण करना उल्लेखनीय है जो महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, ‘लोकतंत्र से मेरा अभिप्राय यह है कि जिसमें सबसे कमजोर को सबसे मजबूत व्यक्ति के बराबर अवसर प्राप्त हों।’

7. सबसे निचली सामाजिक-आर्थिक पायदान पर जनसंख्या के एक वर्ग वाले देश के लिए एक वहनीय न्यायिक प्रणाली अत्यावश्यक है। संविधान के अनुच्छेद39ए में व्यवस्था की गई है कि ‘राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक प्रणाली का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय को प्रोत्साहित करेगा तथा विशेषत: आर्थिक अथवा अन्य असमर्थता के कारण न्याय से वंचित न करके न्याय प्राप्त करने के अवसर सुनिश्चित करने के लिए किसी भी रूप में उपयुक्त विधान अथवा योजनाओं के द्वारा नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करेगा।’सभी संबंधित व्यक्तियों के स्वैच्छिक प्रयास इस व्यवस्था को वास्तविक बनाने के लिए जरूरी हैं। विधिक साक्षरता के लिए अत्यधिक प्रयास आवश्यक हैं। हमारे युवा वकीलों में सकारात्मक मूल्य संचारित करना जरूरी है। पूरे देश में एक समान विधिक सहायता कार्यक्रमों को एक संवैधानिक आधार प्रदान करने के लिए 1987में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम लागू किया गया था। भारत के उत्तरवर्ती मुख्य न्यायाधीशों ने इस अधिनियम को लागू करने में प्रमुख भूमिका निभाई है और मैं उनके योगदान की सराहना करता हूं। कमजोर वर्गों को नि:शुल्क विधिक सेवा की व्यवस्था से सभी को न्याय के कार्य को तेज गति प्राप्त होगी।

विशिष्ट न्यायाधीशो, देवियो और सज्जनो,

8. हमारे भारत का एक लिखित संविधान है जो एक सजीव दस्तावेज है,शिलालेख नहीं है। यह सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का एक घोषणापत्र है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा भारत के एक सबसे प्रतिष्ठित विधिक विद्वान न्यायमूर्ति पी.एन भगवती ने समय के साथ राष्ट्रीय संविधान को विकसित करने की आवश्यकता का समर्थन किया था:

‘व्याख्या के सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि एक संवैधानिक प्रावधान का अर्थ संकीर्ण भाव से नहीं बल्कि व्यापक और उदार तरीके से लगाया जाए ताकि बदलती परिस्थितियों और उद्देश्यों का अनुमान लगाया जा सके और उन्हें ध्यान में रखा जा सके जिससे संवैधानिक प्रावधान का क्षय या हस न हो बल्कि इसमें नई उभरती हुई समस्याओं और चुनौतियों का सामना करने के लिए पर्याप्त लचीलापन हो।’

9. भारत का सर्वोच्च न्यायालय देश के समक्ष सामयिक स्थितियों और चुनौतियों चाहे वे वैश्विक या घरेलू बदलाव के कारण पैदा हुई हों,के परिदृश्य में संविधान में निहित सुशासन के अधिदेश की निरंतर व्याख्या कर रहा है। यह विधान अथवा विधि व्यवस्था की व्याख्या का कार्य ही नहीं है जो विधि शास्त्र का उदाहरण देने के कार्य से काफी कम है;इसने हमारे विकाशसील समाज की परंपरा को जान लिया है क्योंकि कयह औपनिवेशिक शृंखलाओं से निकलकर उस सामाजिक व्यवस्था में बदल गया है जो मानव गरिमा,लोगों की संप्रभु, समाजवादी,पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में निर्मित होने की आकांक्षाओं से परिपूर्ण है,जैसा कि हमारे संविधान निर्माताओं ने अधिदेश दिया था।

10. भारत के संविधान में हमारी स्वतंत्र न्यायपालिका विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय को विधायिका तथा कार्यपालिका के कार्यों पर व्यापक न्यायाधिकार दिया गया है। न्यायिक समीक्षा मूल ढांचे का भाग है तथा संविधान में संशोधन करने के बाद भी इसे नहीं बदला जा सकता। यही न्यायपालिका न्यायिक समीक्षा की प्रभावशीलता सुनिश्चित करती है। इसलिए हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्ठा ना केवल न्यायाधीशों बल्कि कुल मिलाकर उन लोगों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है जो विधिक क्षति अथवा कार्यपालिका की ज्यादती के विरुद्ध न्यायिक समाधान चाहते हैं।

11. हमारे विकासशील देश की परिस्थितियों को देखते हुए,हमारी न्यायपालिका ने न्याय के दायरे का विस्तार किया है। मौलिक अधिकारों के कार्यान्वयन के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने नवान्वेषण और सक्रियता के माध्यम से अधिस्थिति के सामान्य विधि सिद्धांत का विस्तार किया है। इसने न्यायालय को न्यायिक समाधान के लिए कार्य करने तथा न्यायिक प्रक्रिया को सक्रिय करने के लिए पर्याप्त हित तथा प्रमाणिकता वाले व्यक्ति को अनुमति प्रदान करना संभव बना दिया है। अधिकारों के समर्थन के लिए,न्यायालयों ने न्यायिक कार्य आरंभ करने के लिए एक डाकपत्र अथवा अखबार के लेख को ही पर्याप्त सामग्री मान लिया है। इससे न्याय को जनसाधारण के निकट लाने में मदद मिली है।

12. इसी प्रकार,न्यायिक सक्रियता से शक्तियों की पृथकता कमजोर नहीं होनी चाहिए। हमारे लोकतंत्र के प्रत्येक अंग को अपने दायरे में काम करना चाहिए तथा दूसरों के क्षेत्र पर आधिपत्य नहीं जमाना चाहिए। राष्ट्र के तीनों अंगों के बीच शक्ति संतुलन हमारे संविधान में निहित है। संविधान सर्वोच्च है। शक्ति प्रयोग में संतुलन सदैव बना रहना चाहिए। विधायिका और कार्यपालिका द्वारा शक्तियों का प्रयोग न्यायिक समीक्षा के अधीन है। यद्यपि न्यायपालिका की शक्तियों के प्रयोग पर एक मात्र संभावित प्रतिरोध स्वयं न्यायपालिका का आत्मानुशासन और आत्मनियंत्रण है।

विशिष्ट न्यायाधीशों,देवियो और सज्जनो,

13. शीघ्र न्याय कुशल न्यायशास्त्र का अपरिहार्य अंग है। न्याय में देरी न्याय से वंचित करना है। न्याय तीव्र,सुलभ और वहनीय होना चाहिए। हमारे न्यायालय वर्तमान में लंबित मामलों की विशाल संख्या के कारण दबे पड़े हैं। देश भर के विभिन्न न्यायालयों में तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। इनमें से लगभग38.5लाख मामले 24उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। उच्च न्यायालयों में लंबित मामले2014 के 41.5लाख से थोड़े कम होकर 2015में38.5 लाख हो गए हैं,परंतु हमें अभी बहुत कुछ करना होगा।

14. प्रक्रिया सेवा,स्थगन तथा न्याय प्रदान करने जैसे क्षेत्रों में सांविधिक समयबद्धता और प्रक्रियागत नियमों के प्रभावी प्रयोग द्वारा बहुआयामी प्रयासों के जरिए लंबित मामलों का शीघ्र निपटारा किया जाना चाहिए। मुझे विश्वास है कि लंबित मामलों का निपटारा करने तथा मामलों की अवधि कम करने के लिए न्यायाधीशों के निरंतर प्रयासों के जरिए विधिक प्रणाली के प्रति जनता के नजरिए में प्रमुख बदलाव आएगा। इसे न्याय के तीव्र वितरण के नए नवान्वेषण का एक अवसर समझना चाहिए। इस संबंध में सूचना प्रौद्योगिकी और ई-शासन का प्रयोग एक सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

15. आधारभूत न्यायालय का ढांचा विगत वर्षों के दौरान सुधर गया है। ई-न्यायालय परियोजना के माध्यम से न्यायालय की सूचना और संचार प्रौद्योगिकी क्षमता से राष्ट्रीय न्यायिक आंकडा ग्रिड के जरिए न्यायालय और मामलों के आंकड़ों की उपलब्धता सुचारु हुई है ताकि वादी और वकील मामलों की ऑनलाइन जानकारी की उपलब्धता से लाभान्वित हो सकें। मुझे उम्मीद है कि हमारे न्यायालय और न्यायाधीश ई-शासन के सभी प्रयासों के सक्रिय सहयोगी और लाभार्थी बने रहेंगे।

16. मामलों का लंबन न्यायालयों में रिक्तियों की संख्या पर भी निर्भर है। मुझे बताया गया है कि सभी उच्च न्यायालयों में1065 न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों में से पूरे देश के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की कार्यशील संख्या12 अप्रैल 2016को 636 थी। इसका अर्थ है429 न्यायाधीशों के पद खाली हैं। यदि कहा जाए तो हमारे उच्च न्यायालय स्वीकृत क्षमता का लगभग60 प्रतिशत के साथ कार्य कर रहे हैं।

17. मैं उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में रिक्तियों को तेजी से भरने के लिए किए गए अथक प्रयासों के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश की सराहना करता हूं। जनवरी2016 के प्रथम सप्ताह से कॉलेजियम का कार्य आरंभ होने के बाद से12 अप्रैल 2016तक कुल 145 नियुक्तियां की गई थी। यह कोलेजियम के कार्य की गति को दर्शाता है और मैं माननीय न्यायाधीशों से इस गति को बनाए रखने का अनुरोध करता हूं।

18. भारत जैसे उभरते राष्ट्र अपने पालिका कानूनों में अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों तथा प्रचलित अंतरराष्ट्रीय कानून को समाहित करने के प्रति उत्सुक है। इस प्रकार वे विभिन्न विधिक प्रणालियों में आवश्यक सहयोग में योगदान कर रहे हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विधिक प्रणालियों की भिन्नता के कारण समाज राष्ट्र और अर्थव्यवस्था बाधित न हो। राष्ट्रों और विधिक प्रणालियों के बीच सहयोग की अपरिहार्यता के लिए हम जिस वैश्विक ग्राम में रहते हैं उसके न्यायालय और विधानमंडल दोनों की समझ आवश्यक है।

विशिष्ट न्यायाधीशों,देवियो और सज्जनो,

19. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उत्कृष्ट मानदंडों और उच्च आदर्शों के लिए विश्व प्रतिष्ठा अर्जित की है। इस न्यायालय द्वारा पारित ऐतिहासिक निर्णयों ने ना केवल हमारे देश के विधिक और संवैधानिक ढांचे को सुदृढ़ किया है बल्कि प्रगतिशील विधि विद्वता के निर्माण के इच्छुक अन्य देशों की न्यायपालिका द्वारा इसका प्रमाण दिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ अपने प्रबुद्ध ज्ञान और विधिक विद्वता के लिए जानी जाती है। वर्षों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे न्यायाधीशों ने कार्य किया है जिन्होंने एक विश्व स्तरीय संस्थान के निर्माण के लिए आवश्यक बौद्धिक गहनता,ऊर्जा और शक्ति प्रदान की है। मुझे विश्वास है कि यह न्यायालय सदैव न्याय का प्रहरी बना रहेगा।

20. मैं रिट्रीट में भागीदारी के आपके निमंत्रण के लिए धन्यवाद देता हूं तथा औपचारिक रूप से इसका उद्घाटन करता हूं।

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