सर आशुतोष मुकर्जी की 150वीं जन्म जयंती समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुकर्जी का अभिभाषण

कोलकाता : 05.06.2014

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Speech by the President of India, Shri Pranab Mukherjee Delivering Memorial Lecture to Mark the 150th Birth Anniversary of Sir Ashutosh Mookerjeeमुझे, भारतीय शिक्षा के क्षेत्र की एक महान विभूति, श्रेष्ठ व्यक्तित्व, साहस तथा असाधारण प्रशासनिक योग्यता के धनी, सर आशुतोष मुकर्जी के व्यक्तित्व एवं कृतत्व के 150 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में भाग लेकर खुशी हो रही है।

उनके सम्मान में स्मृति व्याख्यान आरंभ करने की पहल करने के लिए मैं, भारतीय विद्या भवन के कोलकाता केंद्र और आशुतोष मुकर्जी स्मृति संस्थान को बधाई देता हूं। मैं, यहां मंच पर मेरे साथ आसीन सर आशुतोष मुकर्जी के पौत्र न्यायमूर्ति चित्ततोष मुकर्जी को विशेष रूप से बधाई देता हूं, जो इन दोनों संस्थानों के अध्यक्ष हैं।

विद्या भवन की स्थापना 1938 में स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, शिक्षाविद् और प्रबल पर्यावरणविद् डॉ. के.एम. मुंशी ने की थी। मुंशी जी मानते थे कि जब तक हमारे लोगों के दिलों-दिमाग में सांस्कृतिक, सदाचार और नैतिक मूल्य समाहित नहीं होंगे तब तक स्वतंत्रता निरर्थक और मूल्यहीन होगी। इसलिए उन्होंने एक ऐसी संस्था के निर्माण की आवश्यकता महसूस की जो छोटे पैमाने पर शिक्षा के माध्यम से ठोस बदलाव लाने की शुरुआत कर सके। भारतीय विद्या भवन, जिसकी शुरुआत एक संस्था के रूप में की गई थी, आज एक विशाल सांस्कृतिक और शैक्षणिक आंदोलन बन गया है। मुझे बताया गया है कि भारत में अब भवन के 119 केंद्र, विदेशों में 7 केंद्र तथा 367 संघटक संस्थान हैं, जो संस्कृत और वेद से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी तक विभिन्न विषयों पर गुणवत्तापूर्ण मूल्य आधारित शिक्षा का प्रसार कर रहे हैं। मैं, इस अवसर पर इस प्रतिष्ठित संस्थान के अध्यक्ष, श्री एस.जी. मेहता को भारतीय विद्या भवन की उपलब्धियों और उनके नेतृत्व के लिए बधाई देता हूं।

सर आशुतोष मुकर्जी पर वापस लौटते हुए, एक ही व्यक्ति में शैक्षणिक प्रतिभा के ऐसे गुणों का संगम होना एक असाधारण बात है। सर आशुतोष ने बचपन से ही गणित के प्रति अभिरुचि प्रदर्शित कर दी। जब वह युवा थे, तब उनकी भेंट पंडित ईश्वर चंद्र विद्या सागर से हुई, जिनका उन पर प्रमुख प्रभाव पड़ा। 1879 में, पंद्रह वर्ष की आयु में, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, जिसमें उन्होंने तृतीय स्थान प्राप्त करते हुए प्रथम श्रेणी की छात्रवृत्ति प्राप्त की। वर्ष 1880 में, उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया जहां वह पी.सी. राय और नरेंद्रनाथ दत्त, जो बाद में स्वामी विवेकानंद के रूप में विख्यात हुए, से मिले। 1883 में, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में बी.ए. की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। 1885 में, उन्होंने गणित में एम.ए. किया और 1886 में भौतिकी में स्नातकोत्तर किया जिससे वह कलकत्ता विश्वविद्यालय से दो उपाधियां (गणित और भौतिकी में स्नातकोत्तर) प्राप्त करने वाले पहले विद्यार्थी बने।

सर आशुतोष एक ‘सर्वतोमुखी’ व्यक्तित्व थे। उन्होंने अपनी आजीविका गणितज्ञ के तौर पर शुरू की परंतु एक असाधारण विधिवेत्ता बन गए। इस प्रकार वह अनेक विषयों के विद्वान का एक अद्भुत उदाहरण बन गए। उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए, सर आशुतोष को जन शिक्षण विभाग में नौकरी का प्रस्ताव किया गया। परंतु उन्होंने इसे अस्वीकार करते हुए इसके बजाय विधि स्नातक की उपाधि पूर्ण करने का विकल्प चुना। इस दौरान, वह गणित और भौतिकी पर विद्वत्तापूर्ण शोध आलेख भी प्रकाशित करते रहे। 24 वर्ष की आयु में, आशुतोष मुकर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के अध्येता बन गए।

सर आशुतोष, प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों तथा मानविकी और विज्ञान के ज्ञान से ओतप्रोत भाषाविद् थे। वह पाली, फ्रेंच और रूसी के विद्वान थे। इसके अलावा वह ऐसे असाधारण वकील थे जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद तक पहुंचे और ऐसे प्रतिभावान प्रशासक बने जो पांच बार दो वर्ष की अवधि के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

सर आशुतोष मुकर्जी उपलब्धियों के मार्ग पर बढ़ते रहे। उन्होंने 1906 में बंगाल तकनीकी संस्थान तथा 1914 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के विज्ञान कॉलेज की स्थापना की जिम्मेदारी संभाली। सर आशुतोष मुकर्जी तीन बार द एशियाटिक सोसायटी के अध्यक्ष चुने गए। सर आशुतोष ने 1908 में द कलकत्ता मैथेमैटिकल सोसायटी की स्थापना की। उन्होंने 1908 से 1923 तक सोसायटी के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। 1910 में, उन्हें इंपीरियल (अब राष्ट्रीय) ग्रंथागार परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तथा 80000 पुस्तकों का निजी संग्रह राष्ट्रीय ग्रंथागार को दान कर दिया जिन्हें वहां अलग खण्ड में रखा गया है।

1914 में वह भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष थे। 1916 में जब वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे, उनकी देखरेख में आशुतोष कॉलेज की स्थापना की गई। सर आशुतोष को, डॉ. जियाउद्दीन अहमद के साथ 1917-1919 के उस सैडलर आयोग का सदस्य भी नियुक्त किया गया था जिसने माइकल अर्नेस्ट सैडलर की अध्यक्षता में भारतीय शिक्षा की स्थिति का आकलन किया था।

सर आशुतोष के मार्गदर्शन में, कलकत्ता विश्वविद्यालय, लाहौर से लेकर रंगून तक के विद्यार्थियों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में शिक्षण और अनुसंधान का प्रमुख केंद्र बन गया। वायसराय तथा ब्रिटिश सरकार, जो कलकत्ता विश्वविद्यालय को आंदोलनकारियों के पोषण स्थल के रूप में देखते थे, के विरोध के बावजूद, सर आशुतोष ने तुलनात्मक साहित्य, नृविज्ञान, अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान, औद्योगिक रासायनिकी, प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति तथा इस्लामिक संस्कृति जैसे विषयों में अनेक नए शैक्षणिक कार्यक्रम आरंभ किए। उन्होंने बंगाली, हिंदी, पाली और संस्कृत में स्नातकोत्तर अध्ययन और अनुसंधान भी शुरू किए। वह कहा करते थे, ‘‘संस्कृत’’ शब्द यद्यपि केवल आठ शब्दों का है, परंतु यह ज्ञान के क्षेत्र में एक साम्राज्य को प्रतिबिंबित करता है।

सर आशुतोष कट्टर स्वतंत्रतावादी थे। उन्हें प्राय: अपनी उच्च प्रतिष्ठा, साहस, शैक्षणिक निष्ठा तथा ब्रिटिश सरकार के प्रति सामान्य तौर पर कठोर रुख के लिए बंगाल का टाइगर कहा जाता था। फ्रेच विद्वान सिलवैन लेवी ने एक बार कहा था, ‘‘यदि यह बंगाल टाइगर फ्रांस में पैदा होता तो वह फ्रेंच टाइगर जॉर्जिज क्लिमेंजो को भी मात दे देता। पूरे यूरोप में आशुतोष का कोई जोड़ नहीं था।’’

1902 के लॉर्ड कर्जन के शिक्षा मिशन द्वारा कलकत्ता विश्वविद्यालय सहित ऐसे विश्वविद्यालयों को चिह्नित किया गया जो विद्रोहियों के केंद्र थे, जहां युवाओं ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध नेटवर्क बनाए हुए थे। इसका कारण उन्नीसवीं शताब्दी में इन विश्वविद्यालयों को अविचारित स्वायत्तता प्रदान करना माना गया था। इसलिए 1905 से 1935 की अवधि में, औपनिवेशिक प्रशासन ने शिक्षा में सरकारी नियंत्रण पुन: स्थापित करने का प्रयास किया जिसका सर आशुतोष ने डटकर विरोध किया। अपने उदात्त चरित्र का प्रदर्शन करते हुए, उन्होंने लॉर्ड लिटन द्वारा उनकी पुन:नियुक्ति पर शर्तें थोपने का प्रयास करने पर 1923 में कुलपति का पद अस्वीकार कर दिया।

सर आशुतोष के शब्दों में, ‘‘राजवंश आते-जाते रहते हैं, राजनीतिक दलों का उत्थान और पतन होता रहता है, लोगों का प्रभाव बदल सकता है, परंतु विश्वविद्यालय अलंघनीय सत्य की पवित्र वेदी के रूप में... सदैव विद्यमान रहेंगे।’’ युवा किस प्रकार की शिक्षा हासिल करें, इस बारे में सर आशुतोष का स्पष्ट नजरिया था और इसे उन्होंने अपनी कुशाग्रता और साहस से अपने औपनिवेशिक स्वामियों से ग्रहण कर लिया था।

सर आशुतोष सदैव शैक्षणिक संस्थानों की उत्कृष्टता, जो आज के व्याख्यान का विषय है, के लिए कार्यरत व्यक्ति थे। अपने संकल्प, उत्साह, कठिन परिश्रम और सबसे बढ़कर उल्लेखनीय नेतृत्व कौशल के द्वारा वह कलकत्ता विश्वविद्यालय को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक ले गए।

ऐसी कौन सी शिक्षाएं हैं जो आधुनिक शैक्षिक संस्थाओं और प्रशासकों को सर आशुतोष से सीखनी चाहिए?

मित्रो, सर आशुतोष ने कलकता विश्वविद्यालय को विश्व के अग्रणी संस्थानों की श्रेणी तक पहुंचाने का प्रयास किया। इसी प्रकार, हमें अपने विश्वविद्यालयों को विश्व स्तरीय संस्थान में बदलना होगा। भारतीय सभ्यता की एक दीर्घकालीन ज्ञान परंपरा रही है। हमारे प्राचीन विश्वविद्यालय तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, सोमपुरा और ओदांतपुरी शिक्षण के विख्यात पीठ थे जो विदेशी विद्वानों को आकर्षित करते थे। वास्तव में, ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से में तक्षशिला की स्थापना से लेकर ईसवी 12वीं शताब्दी के दौरान नालंदा के पतन तक लगभग 1500 वर्षों के दौरान भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विश्व का मुखिया था। दुर्भाग्यवश, आज हमारे विश्वविद्यालय विश्व के सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों से पीछे हैं। अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों के अनुसार एक भी भारतीय संस्थान सर्वोच्च दो सौ स्थानों में जगह नहीं बना पाया है। हमें सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अपने देश की उच्च शिक्षा के गिरते हुए स्तर को तुरंत ऊपर उठाना होगा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में हमारा नेतृत्व हमारे वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, इंजीनियरों और डॉक्टरों की योग्यता के स्तर पर निर्भर है।

दूसरा, वर्तमान भारतीयों को सर आशुतोष से संपूर्ण भारत तथा विश्व के अन्य देशों के विद्वानों के साथ संवाद के द्वारा विचारों के आपसी प्रस्फुटन को सुनिश्चित करने के महत्त्व से सीख लेनी होगी। हमारी शिक्षा संस्थाओं को उन सीमाओं तोड़ना होगा जिसके तहत विभिन्न विधाएं कार्य करती हैं तथा मानविकी, विज्ञान, भाषा तथा अन्य विधाओं के बीच विचारों के सौहार्दपूर्ण आदान-प्रदान के प्रयास करने चाहिए। यही परिवेश नालंदा एवं तक्षशिला के उत्कर्ष काल में वहां मौजूद था।

मैसूर में एक संबोधन में, सर आशुतोष ने कहा था कि, ‘‘हम हिमालय की मनोरम बर्फ से ढकी चोटियों पर अपने महान अतीत पर विचारमग्न होकर नहीं बैठ सकते। हम अपने समय में कितने भी मूल्यवान रहे उन सिद्धांतों और प्रणालियों की रक्षा में बहुमूल्य समय और शक्ति को नहीं गंवा सकते, जिन्हें विश्वव्यापी बदलाव की प्रबल आंधी ने उड़ा दिया है... हम न तो अपने पराजित अतीत में या उसके सहारे रह सकते हैं और यदि हम विजयपूर्ण भविष्य में रहना चाहते हैं तो हमें अपनी पूरी शक्ति इसके निर्माण में लगा देनी चाहिए... आइए अलगाव और निष्क्रियता की सम्पूर्ण आत्मघाती नीति का पुरजोर विरेध करें।’’

तीसरा, सर आशुतोष ने स्वयं एक प्रमुख गणितज्ञ होने के नाते अनुसंधान के महत्त्व को माना। उनके संरक्षण में, सर सी.वी. रमण ने एशिया में पहली बार विज्ञान में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जीता।

आजकल, हमारे उच्च शिक्षा ढांचे में अनुसंधान एक उपेक्षित क्षेत्र है। सफल अनुसंधान कार्यक्रमों में लोगों के जीवन में बदलाव लाने की भारी संभावनाएं मौजूद हैं। भारत जैसे विकासशील देश के सामने नवीकरणीय ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन, पेय जल और स्वच्छता की भारी चुनौतियों के समाधान का कार्य है। इन क्षेत्रों में अनुसंधान से जन साधारण के हितों के अकल्पनीय अप्रत्यक्ष लाभ होंगे। हमारे विश्वविद्यालयों को सर्जनात्मक प्रयासों की उर्वरा भूमि बनना होगा। उन्हें अत्याधुनिक नवान्वेषणों तथा प्रौद्योगिकीय विकास का स्रोत बनना होगा। विश्वविद्यालयों को अपने आविष्कारों तथा खोजों के द्वारा पेटेंटों के पंजीकरण में हमारे देश को अग्रणी बनाना होगा।

चौथा, हमें मानना होगा कि श्रेष्ठ शिक्षक हमारी शैक्षणिक प्रणाली का एक प्रमुख घटक है। हमारे विश्वविद्यालयों को ऐसे प्रेरक शिक्षकों की पहचान करने में सक्षम बनना होगा जो भिन्न परिप्रेक्ष्यों से विचार करने तथा समग्र शिक्षण के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित कर सकें। ऐसे शिक्षकों को कनिष्ठ शिक्षकों और विद्यार्थियों के मार्गदर्शन के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। सर आशुतोष सर सी.वी. रमण तथा डॉ. एस. राधा कृष्णन की प्रतिभा को खोजने का माध्यम बने। उनके समय में कलकत्ता विश्वविद्यालय के शिक्षकों में मेघनाथ साहा, सत्येंद्रनाथ बोस, ब्रजेंद्र नाथ सील, एच.एम. पर्सीवल, गणेश प्रसाद, पी.सी. मित्रा, एस. पी. अगरकर, ए.आर. फोरसिथ तथा आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय शामिल थे। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए यूरोपीय विश्वविद्यालयों से बहुत से विद्वानों को लेकर आए। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र से परे जाकर सर सी.वी. रमण जैसे लोगों को भर्ती करने में भी संकोच नहीं किया जो कलकत्ता टकसाल के कर्मचारी थे। इस प्रकार, सर आशुतोष ने दृढ़ आत्मविश्वास तथा जोखिम उठाने की योग्यता दर्शाई, जिन गुणों का अनुकरण हमारे आज के कुलपतियों द्वारा किया जाना चाहिए।

पांचवां, शैक्षिक स्वायत्तता हर कीमत पर कायम रखी जानी चाहिए। सर आशुतोष ने सीनेट में (दिसंबर 1922) में अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था, ‘‘...मैं आपसे आग्रह करता हूं कि आप सीनेट के सदस्यों के तौर पर अपने विश्वविद्यालय के अधिकारों के लिए उठ खड़े हों। भारत सरकार को भूल जाइए। अपनी मातृ संस्था के सच्चे सपूत के रूप में, विश्वविद्यालय के सीनेटरों के रूप में अपना कर्तव्य निभाइए। पहले स्वतंत्रता, दूसरे स्वतंत्रता और सदैव स्वतंत्रता—इसके सिवाए मुझे और किसी से संतुष्टि नहीं होगी।’’

1923 के एक अन्य संबोधन में, सर आशुतोष ने कहा था, ‘‘हम बिना सवाल इस सिद्धांत पर डटे हैं कि यदि राष्ट्र के रूप में शिक्षा को अपनी नीति बनाना है, तो यह हमारी राजनीति नहीं होनी चाहिए; स्वतंत्रता हमारी जान है, इसके विकास की शर्त है, इसकी सफलता का रहस्य है... हमारा अटल विश्वास है कि विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता का हमारा निरंतर दावा सबसे पवित्र और अगोचर राष्ट्रीय गौरव के लिए एक संघर्ष है।’’

और आखिरी, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों में विश्वविद्यालय से प्रस्थान के बाद अपनी मातृ-संस्था के लिए एक प्रेम होना चाहिए तथा उन्हें इसकी प्रगति और विकास के लिए सक्रिय योगदान देना चाहिए। अपने अंतिम दीक्षांत संबोधन में बोलते हुए, सर आशुतोष ने कहा था, ‘‘स्नातक मित्रो, आप इस विश्वविद्यालय को अपनी मातृ-संस्था कहते हैं? क्या आप इस सामान्य अभिव्यक्ति की महानता को सदैव महसूस करते हैं? हमारा पालन पोषण करने वाली माता—इससे कितना अनूठा प्रेम छलकता है, यह उन सबके लिए शिक्षण की महान संस्था के साथ कितना मधुर संबंध है जिन्होंने वर्षों तक इसके चरणों में ज्ञान सीखा है और उसकी शक्ति से संपूरित होकर तथा उसके शानदार उदाहरण से प्रेरित होकर दुनिया में कदम रखा है... आपका भाग्य चाहे आपको जहां ले जाए, आपकी कैसी भी आशाएं और आशंकाएं हों, अपनी संतानवत भक्ति और अनुराग के साथ अपनी मातृ-संस्था की ओर वापस लौटें...’’

विशिष्ट देवियो और सज्जनो, हमारी शैक्षिक संस्थाओं को सामान्यता के गंदले पानी से बाहर लाने के लिए क्रांतिकारी विचारों की जरूरत है। शासन के ढांचों को नवान्वेषी विचार के प्रति सहयोगात्मक रुख अपनाना तथा उन्हें तेजी से निर्णय लेने में सहायक बनना होगा। ऐसे पूर्व विद्यार्थियों की दक्षता एवं अनुभव का कारगर विश्वविद्यालय प्रबंधन में उपयोग किया जा सकता है, जो सुस्थापित हैं। अध्ययनों ने यह दर्शाया है कि किस तरह विश्वविद्यालय के शासन में पूर्व विद्यार्थियों की सहभागिता से अकादमिक उपलब्धि में सुधार आया। हमारे, विश्वविद्यालयों को विशेषकर पुराने अपने कार्यकलापों में पूर्व विद्यार्थियों को जोड़ने का सुनिश्चित प्रयास करना चाहिए।

मित्रो, शिक्षा अंधेरे से प्रकाश को; पिछड़ेपन से उन्नति की; सामान्यता से श्रेष्ठता को अलग करती है। यदि कोई निवेश वास्तव में भावी प्रगति से सारगर्भित सम्बन्ध निर्धारित करता है, तो वह शिक्षा है। शिक्षा और ज्ञान की शक्ति पर निर्मित देशों ने लम्बी अवधि में विकास किया है। ऐसे देशों ने संसाधन संपदा के स्रोतों में बदलावों के प्रति अत्यधिक अनुकूलन शक्ति प्रदर्शन किया है। शिक्षा ने उन्हें संसाधन की कमियों को दूर करने तथा उच्च प्रौद्योगिकीय आधार पर अर्थव्यवस्था निर्मित करने का अवसर प्रदान किया है। यदि भारत को विश्व का एक अग्रणी राष्ट्र बनना है तो आगामी रास्ता एक सुदृढ़ श्क्षि प्रणाली में से गुजरता है।

सर आशुतोष मुकर्जी, अगर चाहते तो एशियाई अध्ययन के विशेषज्ञ या एक महान गणितज्ञ या एक प्रसिद्ध न्यायविद बन सकते थे। परंतु इसके बजाय उन्होंने अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष शैक्षिक प्रशासक बनने में लगा दिए।

सर आशुतोष के निधन पर माइकल सैडलर ने लिखा था, ‘‘आशुतोष मुकर्जी के रूप में, भारत ने अपना एक महानतम व्यक्ति; तथा विश्व ने एक प्रमुख शख्सियत खो दी है। वह युद्ध में पराक्रमी थे। वह एक साम्राज्य के शासक बन सकते थे। परंतु उन्होंने अपनी पूरी ताकत शिक्षा में लगा दी क्योंकि वह मानते थे कि शिक्षा में सही रूप में मानव कल्याण का रहस्य तथा प्रत्येक साम्राज्य की नैतिक शक्ति का सूत्र छिपा हुआ है।’’

सर आशुतोष के बारे में गुरुदेव ने लिखा था, ‘‘सभी देशों में ऐसे मनुष्य विरले होते हैं जिनसे वहां के लोग आकांक्षाएं पूर्ण करने की उम्मीद कर सकते हैं, जो गरजती आवाज में कह सके कि जो जरूरी होगा किया जाएगा; आशुतोष के पास विश्वास का जादुई स्वर था। उनमें सपने देखने का साहस था क्योंकि उनमें लड़ने की शक्ति और जीतने का विश्वास था—उनकी दृढ़ इच्छा अपने आप में लक्ष्य-पथ था।’’

आज भारत को ऐसे बहुत से व्यक्तियों की आवश्यकता है जो देश की शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए अपना जीवन समर्पित करने के इच्छुक हों। मैं, अपने शैक्षिक संस्थानों के नेतृत्व से आग्रह करता हूं कि वे भारत के इस महान सपूत के पदचिह्नों का अनुकरण करें।

मुझे यह व्याख्यान देने के निमंत्रित करने के लिए मैं आयोजकों को धन्यवाद देता हूं। मैं उस महान आत्मा को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देता हूं जिनके सम्मान में मैंने व्याख्यान दिया है तथा मैं भारतीय विद्या भवन और आशुतोष स्मृति संस्थान को उनके भावी प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

धन्यवाद, 
जय हिंद!

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