सिधो कान्हो मुर्मू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह 2013 के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

दुमका, झारखंड : 29.04.2013

डाउनलोड : भाषण सिधो कान्हो मुर्मू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह 2013 के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण(हिन्दी, 249.37 किलोबाइट)

मुझे, सिधो कान्हो मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका के इस दीक्षांत समारोह में उपस्थित होकर प्रसन्नता हुई है। मुझे मार्च, 2011 के दीक्षांत समारोह के अवसर पर आपके विश्वविद्यालय की अपनी पिछली यात्रा की स्मृति है और मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि तब से आपके संस्थान ने तीव्र प्रगति की है। मुझे बताया गया है कि आपके विश्वविद्यालय ने अध्ययन और अनुसंधान का स्तर उन्नत करने की बहुत सी नई पहलें की हैं। मुझे यह जानकर अत्यंत संतोष हुआ है कि सिधो कान्हो मुर्मू विश्वविद्यालय, पहाड़िया और संथालों की विशाल जनजातीय आबादी वाले लोगों के सामाजिक-आर्थिक बदलाव में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है। इस क्षेत्र की जनसांख्यिकीय विशेषताएं तथा इसकी जनजातीय आबादी की सामाजिक-आर्थिक आवश्यकताओं ने यह बेहद जरूरी बना दिया है कि आप उत्साह और निष्ठा के साथ अपने प्रयास जारी रखें।

यह विश्वविद्यालय इस क्षेत्र के दो विख्यात स्वतंत्रता सेनानियों, सिधो मुर्मू और कान्हो मुर्मू के प्रति श्रद्धांजलि है। उन्होंने औपनिवेशिक शासन के शोषण के विरुद्ध 1855 में ‘संथाल हुल’ के नाम से विख्यात संथाल आंदोलन का नेतृत्व किया था। राष्ट्र के प्रति उनका योगदान इस विश्वविद्यालय के नाम में अमर रहेगा। अब यह इस विश्वविद्यालय का दायित्व है कि वह उस सन्देश और उन मूल्यों का प्रचार-प्रसार करे जिनके लिए इन महापुरुषों ने संघर्ष किया और सर्वोच्च बलिदान दिया।

सिधो कान्हो मुर्मू विश्वविद्यालय ने संथाल परगना के निर्धन विद्यार्थियों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सुगम्य बना दिया है। अपनी शुरुआत से ही, इसने उत्कृष्टता और गुणवत्ता के सर्वोच्च मानदंड स्थापित किए हैं। यह जानना सुखद है कि यह विश्वविद्यालय डिग्गी में 109 एकड़ क्षेत्र में आधुनिक सुविधाओं से युक्त कैम्पस का निर्माण करने की योजना बना रहा है।

देवियो और सज्जनो,

हम सभी राष्ट्र के विकास में शिक्षा द्वारा निभाई जा रही महत्त्वपूर्ण भूमिका से परिचित हैं। यह देश की प्रगति का प्रमुख माध्यम है।

हाल ही में महिलाओं और बच्चों पर पाशविक हमले तथा बलात्कार की घटनाओं ने देश की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने दिखाया है कि हमारे समाज को ठहरकर, मूल्यों के ह्यस तथा महिलाओं और बच्चों की संरक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने में बार-बार हमारी असफलता पर तत्काल विचार करने की जरूरत है। इस तरह का आपराधिक चारित्रिक पतन समाज के सभ्यतापूर्वक संचालन के लिए खतरा है। हमें इसके कारणों की पहचान करके इसका समाधान ढूंढना चाहिए। महिलाओं की गरिमा तथा सम्मान हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

पिछले गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, मैंने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि अब समय आ गया है कि हम अपनी नैतिकता की दिशा को फिर से निर्धारित करें। मैं युवाओं को शिक्षा प्रदान करने वाले तथा उनके मस्तिष्कों को प्रभावित करने वाले तथा समाज पर नैतिक प्रभाव रखने वाले लोगों का आह्वान करता हूं कि वे इस प्रक्रिया को शुरू करें। हमारे विश्वविद्यालयों तथा अकादमिक संस्थानों को शिक्षा प्रदान करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए, जिससे हमें अपने समय की नैतिक चुनौतियों का सामना करने में सहायता मिलेगी। इससे समाज में मानव गरिमा और समानता के मूल्यों के प्रचार-प्रसार में मदद मिलेगी।

भारत में इस समय तीव्र और बुनियादी बदलावों की प्रक्रिया चल रही है, जिसे रोकना मुमकिन नहीं है। तथापि यह परिवर्तन समाज के प्रत्येक वर्ग में बिल्कुल अलग-अलग गति से हो रहा है। भौगोलिक, पंथ, जाति, वर्ग, लैंगिक और रोजगार के आधार पर वर्गों और उपवर्गों में बंटे हुए भारतीय समाज की जटिलता की सावधानी से मॉनीटरिंग करने और इस परिवर्तन प्रक्रिया का दक्षता से संचालन करने की आवश्यकता होगी। इस परिवर्तन का सफल प्रबंधन हमारे समय की सबसे विकट चुनौती है। इस चुनौती के प्रति हमारी प्रतिक्रिया राष्ट्र के रूप में भारत का भविष्य तय करेगी। हमें किसी भी तरह इस परीक्षा में नाकाम नहीं होना है।

देवियो और सज्जनो, मेरा विश्वास है कि हम इस चुनौती को अवसर के रूप में बदल सकते हैं। भारत के वर्तमान जनसांख्यिकी स्वरूप से इस विश्वास को सुदृढ़ बल मिलता है। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2020 तक भारत की औसत आयु 29 वर्ष होगी। यह अमरीका की 40 वर्ष, जापान की 46 वर्ष और यूरोप की 47 वर्ष की औसत आयु से काफी कम होगी। 2025 तक, दो-तिहाई भारतीयों की कामकाजी आयु होगी। यदि हम युवाओं की इस क्षमता का उपयोग कर सके और उनकी लाभकारी ऊर्जा को दिशा दे सके तो हम अपने देश के आर्थिक भविष्य की कायापलट कर सकते हैं। परंतु अगर हम ऐसा न कर सके तो जनसंख्या संबंधी लाभ का यह ऐतिहासिक अवसर, जो किसी भी राष्ट्र के जीवन में विरले ही आता है, बुरे परिणामों के साथ हाथ से निकल जाएगा।

इस अवसर का अधिकतम फायदा उठाने के लिए हमें शिक्षा में निवेश करना चाहिए। हमारे शिक्षा क्षेत्र, विशेषकर उच्च शिक्षा की वर्तमान स्थिति को देखते हुए, यह समय विरुद्ध दौड़ लगाने जैसा होगा। विश्वविद्यालयों के एक अतंरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार, एक भी भारतीय विश्वविद्यालय, विश्व के 200 सर्वोच्च विश्वविद्यालय में शामिल नहीं है। विश्वसूची में हमारा कोई स्थान नहीं है परंतु 300 सर्वोत्तम एशियाई विश्वविद्यालयों में हमारे केवल 11 संस्थान शामिल हैं। इस स्थिति को बदलना होगा।

वैश्वीकरण की दुनिया में, विश्वविद्यालयों को महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय परिसंपत्ति माना जाता है। विश्व की सरकारों ने विश्वविद्यालयों में भारी निवेश किया है। इन्हें नवीन ज्ञान और नवान्वेषी चिंतन के महत्त्वपूर्ण स्रोतों तथा विश्वसनीय प्रमाणपत्रों से युक्त कुशल कर्मियों के प्रदाता के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, वे किसी भी क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय प्रतिभा और कारोबारी निवेश को आकर्षित करने वाले तथा सामाजिक न्याय और गतिशीलता के कारकों और सांस्कृतिक व सामाजिक जीवंतता के संसाधन के रूप में भी कार्य करते हैं।

देवियो और सज्जनो,

हमें खुद से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि क्यचा हमारे विश्वविद्यालयों का स्तर ऐसा है? भारतीय विश्वविद्यालयों को अध्यापन और अनुसंधान की गुणवत्ता के मामले में अपने समकक्ष विश्वविद्यालयों के बराबर पहुंचने की आवश्यकता है। अनुसंधान और नवान्वेषण को नई गति दी जानी चाहिए। 2011-12 में स्नातक और उससे ऊपर के स्तर पर दाखिला लेने वाले 260 लाख विद्यार्थियों में से केवल 1 लाख अथवा 0.4 प्रतिशत ने पीएचडी के लिए पंजीकरण करवाया था। 2010 में भारतीयों द्वारा कराए गए पेटेंट आवेदनों की संख्या केवल छह हजार के करीब थी जबकि चीनियों द्वारा 3 लाख, जर्मनों द्वारा लगभग 1.7 लाख, जापानियों द्वारा 4.5 लाख तथा अमरीकियों द्वारा 4.2 लाख पेटेंट आवेदन किए गए। भारतीयों द्वारा प्रस्तुत पेटेंट आवेदनों की संख्या विश्व के कुल आवेदनों का मात्र 0.3 प्रतिशत थी, जो विश्व जनसंख्या के 17 प्रतिशत हिस्से वाले देश के लिए एक निराशाजनक संख्या है। ये आंकड़े भारत की वैश्विक आकांक्षा के लिए चुनौतियों का संकेत देते हैं।

हमें बिना किसी विलम्ब के अपने विश्वविद्यालयों को आवश्यक सुविधाओं से सुसज्जित करना होगा। शिक्षकों की कमी को एक बड़ी चिंता के तौर पर देखा जाना चाहिए। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में करीब 51 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। राज्यों के विश्वविद्यालयों में हालात और बदतर हैं। उच्च शिक्षा संस्थान भी गुणवत्ता में भारी अंतर से पीड़ित हैं। नैसकोम-मैकिंसे की एक नवीनतम रिपोर्ट में बताया गया है कि सामान्य शिक्षा के 15 प्रतिशत और तकनीकी शिक्षा के 25 प्रतिशत से ज्यादा स्नातक रोजगार के योग्य नहीं हैं।

रिक्तियों को भरने के लिए जहां आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं, वहीं हमें प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षण तथा सहयोगात्मक सूचना और संचार आदान-प्रदान प्रयोग करने के नए तरीके इजाद करने होंगे। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा मिशन द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं का प्रयोग करते हुए, मुख्य शहरों और नगरों से दूर स्थित शिक्षण संस्थानों को विख्यात प्रोफेसरों के व्याख्यान प्रसारित किए जा सकते हैं। अकादमिक स्टाफ कॉलेजों द्वारा संचालित पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों को भी ऐसे ही प्रसारित किया जा सकता है। प्रत्येक विश्वविद्यालय को 10 से 20 अध्यापकों के एक ऐसे समूह को छांटना चाहिए जो पाठ्य पुस्तकों से आगे अध्ययन के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित कर सके। यदि ऐसे अध्यापक एक-दूसरे से तथा विद्यार्थियों के साथ नियमित रूप से संवाद करेंगे तो अध्यापन की गुणवत्ता काफी बढ़ जाएगी। सूचना और प्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा मिशन नेटवर्क के जरिए सुदूर शिक्षण संस्थानों तक उनके व्याख्यान भी प्रसारित किए जा सकते हैं।

मुक्त और दूरवर्ती शिक्षण भी उच्च शिक्षा की उपलब्धता के विस्तार में मदद कर सकता है। यह जानना सुखद है कि ग्यारहवीं योजना अवधि के दौरान ऐसे कार्यक्रमों में प्रवेश की संख्या 27 लाख से बढ़कर 42 लाख हो गई।

हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में उत्कृष्टता की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए। प्रत्येक विश्वविद्यालय के कम से कम एक विभाग को उत्कृष्टता केन्द्र के रूप में बदला जाना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग तथा विश्वविद्यालयों को घनिष्ठ सहयोग के साथ एकजुट होकर कार्य करना चाहिए।

देवियो और सज्जनो,

उच्च शिक्षा क्षेत्र में, एक समयबद्ध कार्य योजना के निर्माण तथा अभिनव परिवर्तन लाने के विचार से, इस वर्ष फरवरी में राष्ट्रपति भवन में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। सम्मेलन के दौरान, कुछ तात्कालिक, अल्पकालिक और मध्यवर्ती उपायों की पहचान की गई जिन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है। मुझे फरवरी, 2014 में आयोजित किए जाने वाले आगामी सम्मेलन तक इन उपायों के कार्यान्वयन में काफी प्रगति की उम्मीद है।

गत वर्ष 14 अगस्त को भारत के 66वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर मैंने कहा था कि आधुनिक भारत का पात्र आधे से अधिक भरा हुआ है। मैंने कहा था कि हम अपनी माता के समक्ष समान बच्चे हैं, और भारत हममें से हर एक से चाहता है कि चाहे हम राष्ट्र निर्माण के जटिल कार्य में कोई भी भूमिका निभा रहे हों, हम अपने संविधान में निहित मूल्यों के प्रति ईमानदारी, समर्पण और दृढ़ निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य का पालन करें। यदि हममें से प्रत्येक इस सिद्धांत का पालन करेगा तो मुझे विश्वास है कि भारत एक अधिक जीवंत, गतिशील और समृद्ध राष्ट्र बन जाएगा।

दीक्षांत समारोह किसी विश्वविद्यालय के जीवन में एक उल्लासमय अवसर है। यह शिक्षा की अवधि पूर्ण होने के अंत में आयोजित किया जाता है और किसी अकादमिक वर्ष में एक विशेष दिवस होता है। मैं इस अवसर पर, आज स्नातक बने सभी विद्यार्थियों को तथा उन्हें अपने अकादमिक लक्ष्यों को पूरा करने का अवसर प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय को बधाई देता हूं।

मुझे उम्मीद है कि इस प्रतिष्ठित संस्थान से प्राप्त प्रशिक्षण और शिक्षा स्पर्द्धात्मक विश्व की चुनौतियों का सामना करने में आपकी मदद करेगी तथा आप राष्ट्र और इस राज्य की प्रगति और समृद्धि की दिशा में अपने तरीके से योगदान करेंगे।

धन्यवाद, 
जय हिन्द!

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