‘न्यायिक सुधारों में ताजा रुझान : एक वैश्विक परिदृश्य’ पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

नई दिल्ली : 12.01.2013

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मुझे, आज ‘न्यायिक सुधारों में ताजा रुझान : एक वैश्विक परिदृश्य’ पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन के अवसर पर यहां आकर प्रसन्नता हो रही है। यह संगोष्ठी भारतीय अंतरराष्ट्रीय विधि फाउंडेशन द्वारा आयोजित की गई है। मैं आयोजकों को सही समय पर यह विषय चुनने के लिए बधाई देता हूं।

मैं अपनी बात एक सार्वभौमिक नियम को उद्धृत करते हुए शुरू करना चाहूंगा हूं कि इस दुनिया में परिवर्तन के अलावा और कुछ भी स्थाई नहीं है। अंतर केवल इस बात में हो सकता है कि रूपांतर के चक्र किस गति से चल रहे हैं। न्याय का विचार तथा इसके कार्यान्वयन का तरीका भी इस सार्वभौमिक नियम के अपवाद नहीं हैं।

इसलिए न्यायिक सुधार, हमारी इस तेजी से रूपांतरित होती दुनिया में केंद्रीय विषय होना चाहिए, जिसमें हम रहते हैं। यह न्याय की गुणवत्ता में सुधार के लिए अनिवार्य है, जो कि मानव के अस्तित्व तथा समाज के कल्याण के लिए सबसे जरूरी है। यह सीधे सभी समाजों का मूलभूत लक्ष्य है। यही कारण है कि मानव सभ्यता निष्पक्षता तथा समता के उच्चतर मानकों को प्राप्त करने के लिए लगातार संघर्षरत है। यह प्रयास समय से परे है तथा विभिन्न समाज एक दूसरे से न्याय के उच्चतर मानदंड प्राप्त कर रहे हैं तथा इस तरह से आमतौर से कानून और प्रक्रियाओं पर नई-नई परिपाटियां ग्रहण कर रहे हैं।

देवियो और सज्जनो, न्याय प्रदान करना हर एक न्यायिक प्रणाली का अंतिम लक्ष्य होता है। इसको पूरा करने के लिए कानून का शासन प्राथमिकता है और पारदर्शिता के उच्चतम मानक तथा वहनीय मूल्य पर तेजी से न्याय प्रदान करना इसके दो स्तंभ हैं जो कि इस संकल्पना को जीवन देते हैं। न्यायपालिका को ‘न्यायोन्मुख दृष्टिकोण’ को लागू करते समय इन घटकों का ध्यान रखना चाहिए। इन लक्ष्यों के साथ दिया गया न्याय उच्चतम मानदंडों पर खरा उतर सकता है। इसलिए यह जरूरी होगा कि समय की जरूरतों के अनुसार न्यायपालिका में संघटनात्मक तथा प्रक्रियात्मक बदलाव किए जाएं। परंतु इसको प्राप्त करने का रास्ता अलग-अलग है और इसके लिए कौन-कौन से सुधार किए जाएं, इस पर भी कोई एक राय नहीं है।

जो बदलाव अपेक्षित हैं, उनको अलग-अलग स्टेकधारक अलग-अलग प्राथमिकता दे सकते हैं। बाजार से जुड़े स्टेकधारक न्यायिक प्रणाली की कारगरता का आकलन विवादों के तेजी से समाधान के आधार पर कर सकते हैं जबकि आम आदमी न्यायिक प्रणाली की कारगरता का आकलन, बहुत से लोगों की नजर में असमतापूर्ण इस विश्व में, समतापूर्ण न्याय प्रदान करने की इसकी क्षमता से कर सकते हैं।

परंतु सटीक विश्लेषण में किसी भी न्यायिक प्रणाली की कारगरता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या वह सभी को, समाज में उनकी सामाजिक या आर्थिक हैसियत पर ध्यान दिए बिना, न्याय प्रदान करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करती है। जैसा कि भारत के प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘‘न्यायपालिका एक सामाजिक उद्देश्य पूरा करती है अर्थात् न्याय लाना, लोगों को न्याय देना।’’

भारत में न्यायपालिका ने इस आह्वान को स्वीकार किया है और वह विवादों के समाधान की अपने परंपरागत भूमिका से आगे बढ़ गई है। परिणामस्वरूप, न्याय की वृहतर अवधारणा के समावेश के साथ न्यायपालिका की भूमिका और उससे अपेक्षाओं में भी बदलाव हुआ है।

वृहत्तर भूमिका अपनाने के लिए शक्ति के पृथकीकरण के सिद्धांतों से हटने के कारण इसका विरोध भी हुआ है। परंतु इस तरह की सक्रियता से जो सकारात्मक योगदान प्राप्त हुआ है, उस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। परंतु मैं यहां पर सावधान करना चाहूंगा कि हर एक लोकतंत्र में राज्य के तीनों अंगों अर्थात् विधायिका, कार्यपालिका, एवं न्यायपालिका द्वारा अपनी निर्धारित भूमिकाओं को अदा करते हुए बनाए गए सटीक संतुलन को भंग नहीं किया जाना चाहिए।

तीनों अंगों को वह भूमिका नहीं निभानी चाहिए या उस भूमिका में नहीं जाना चाहिए जो कि संविधान द्वारा उन्हें नहीं सौंपी गई है। इस संबंध में मौलिक सिद्धांत चार्ल्स माँटेस्क्यू के इस कथन में निहित है कि वहां ‘कोई स्वतंत्रता नहीं’ हो सकती, जहां विधायी अथवा कार्यकारी शक्तियां एक ही संस्था में सम्मिलित हों अथवा जहां न्यायिक शक्तियां विधायी अथवा कार्यकारी शक्तियों से अलग न रखी गई हों।

भारत में न्याय पर बहुत समय और धन व्यय होता है। न्यायालय में लंबित मामलों की भारी संख्या चिंता का विषय है। 2011 के कैलेंडर वर्ष के अंत में अधीनस्थ तथा उच्च न्यायालयों में 3.1 करोड़ से अधिक माले लंबित थे। 2012 के कैलेंडर वर्ष के अंत में उच्चतम न्यायालय में 66 हजार मामले लंबित थे। देरी होने से लागत और बढ़ती है। इसलिए कई तरह से यह न्याय न देने के बराबर है और यह समता के सिद्धांत के खिलाफ है जो कि लोकतंत्र की आधारशिला है।

अठारहवें विधि आयोग ने इस ओर कुछ सुझाव दिए हैं। न्यायालयों के पूरे कार्य समय के उपयोग के उपाय, प्रौद्योगिकी का अधिक प्रयोग जिससे एक जैसे मुद्दों पर जो मामले हों उन्हें एक संयुक्त निर्णय के लिए एक ही जगह इकट्ठा कर लिया जाए, मौखिक जिरह के लिए समय सीमा का निर्धारण, निर्णय लेने के लिए समय सीमा का निर्धारण, तथा उच्च न्यायपालिका में रिक्तियां कम करना जैसे कुछ उपायों पर विचार होना चाहिए। मुझे न्यायिक प्रणाली में सुधार लागू करने की दिशा में राह निकालने की अपनी न्यायपालिका की क्षमता में पूरा भरोसा है, जिससे न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया में आम आमदी का भरोसा बना रहे।

हमें न्यायालयों के लंबित मामलों को कम करने के लिए कुछ बदलाव लाने होंगे और विश्वभर के जो विधिवेत्ता यहां उपस्थित हैं, वे इस बारे में अपने अनुभव बांट सकते हैं कि वे अपने-अपने देशों में इस तहर के मुद्दों का किस तरह से समाधान करते हैं। विश्वभर से प्राप्त अनुभवों से यह पता चलता है कि विभिन्न देशों में किए गए परीक्षणों से महत्त्वपूर्ण सीख ली जा सकती है।

इसके अलावा, कार्य निर्देशों तथा कार्य टिप्पणों के द्वारा नियम और प्रपत्रों को आसान बनाकर लगातार प्रक्रियाओं की समीक्षा और उनमें संशोधन किया जा रहा है। हमारे देश में सिविल प्रक्रिया संहिता में त्वरित विचारण के लिए सभी जरूरी तत्त्व हैं परंतु इस प्रणाली को चलाने वाले व्यक्तियों की मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। उनमें त्वरित और शीघ्रता के लिए प्रतिबद्धता होनी चाहिए।

दुनिया भर में यह पूरी तरह स्वीकार किया गया है कि विवादों का प्रबंधन एक सेवा है कोई कृपा नहीं। यह माना गया है कि वादकारी को शिकायत के समाधान के सबसे उचित तथा शीघ्र उपाय प्रापत करने का हक है।

देवियो और सज्जनो, आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसमें राष्ट्रों की सीमाओं की परंपरागत अवधारणाएं तेजी से टूटती जा रही हैं। प्रौद्योगिकी में उन्नति से एक-दूसरे से जुड़ी ऐसी दुनिया सृजित हो गई है जिसमें सूचना का असीमित आदान-प्रदान और प्रसारण हो रहा है, वाणिज्यिक लेन-देन हो रहे हैं तथा सामाजिक नेटवर्किंग हो रही है। इन घटनाक्रमों ने सरकार के सभी अंगों के लिए नई चुनौतियां तथा अवसर पैदा किए हैं। वैश्वीकरण, जो कि रूपांतरण का साधन है, नए से नए दृष्टिकोणों की मांग करता है।

वैश्वीकरण से अंकुरित चुनौतियां बहुत हैं। उदारीकृत व्यापार अवसरों, वाणिज्य, तथा निवेश के द्वारा स्थानीय बाजारों में विदेशी व्यापार के धीरे-धीरे बढ़ने के कारण विदेशी तथा घरेलू हितों के बीच अंतर धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। सीमाओं के आर-पार होने वाले व्यापार तथा व्यवसाय संबंधी लेन-देन के कारण पैदा होने वाले जटिल मुकदमे अब विभिन्न देशों के न्यायालयों के सामने आ रहे हैं।

कानूनी पात्रता तथा बहुपक्षीय एवं द्विपक्षीय संधियों एवं करारों के प्रभावों सहित अंतरराष्ट्रीय कानून की पेचीदगियों के चलते, संभवत: हमारी राष्ट्रीय न्यायपालिकाओं को अधिक कारगर ढंग से नए अंतरराष्ट्रीय कानूनी पहलुओं से निपटने के लिए तैयार किए जाने की जरूरत है। पूरे देश में सरलता से बाजार लेन-देन, कानून का शासन, पारदर्शी तथा अनुमान योग परिणामों को बढ़ावा देने और इस तरह के लेन-देन से लोकतांत्रिक शासन ढांचे की स्थापना, सुरक्षा तथा समाजों में मानवाधिकार के लिए कानूनी ढांचे में बदलाव लाना होगा।

दुनिया भर में आ रहे दूरगामी बदलावों के चलते, हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के विचार क्षेत्र में, व्यापार, व्यवसाय तथा वाणिज्य से आगे बढ़ोत्तरी करने की जरूरत होगी। यह विभिन्न देशों के बीच वाणिज्यिक लेन-देन से होने वलो विवादों के कारण जरूरी होगा। कानूनी पेशेवरों को सभी देशों में बिना व्यवधान के सेवा देने की अनुमति देने की जरूरत पर भी अंतरराष्ट्रीय कानूनी बिरादरी को विचार करना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि छोटे विकासशील देश विश्व करारों की जटिलता तथा इनके विवाद समाधान तंत्र में दक्षता में कमी के चलते इस काम के लिए अच्छी तरह तैयार नहीं हैं।

न्यायिक सुधार एक निरंतर प्रक्रिया है। स्टेकधारकों के बीच निरंतर विचार-विमर्श के द्वारा बदलाव लाने के लिए सर्वसम्मति लाई जा सकती है। मुझे उम्मीद है कि नयायिक सुधार के विभिन्न पहलुओं पर यहां खूब चर्चा तथा परिचर्चा होगी, उसी तरह जिस तरह आप न्यायविद् अपने पूरे समय में करते रहते हैं जब तक आप जागते रहते हैं, भले ही इस समय यह चर्चा दूसरे पक्ष पर विजय पाने के लिए न हो।

मुझे विश्वास है कि आपके ज्ञान और अनुभव के द्वारा आप विभिन्न चिंताओं का समाधान कर पाएंगे, और न्यायिक सुधारों का मार्ग प्रशस्त करेंगे जो सभी के लिए लाभदायक होंगे।

मैं सेमिनार के सफल संचालन के लिए आयोजकों को शुभकामनाएं देता हूं।

धन्यवाद, 
जय हिंद!

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