महालेखा परीक्षकों के 26वें सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
नई दिल्ली : 08.10.2012
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मुझे, आज महालेखा परीक्षकों के 26वें सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर आपके बीच आकर बहुत प्रसन्नता हो रही है। राज्यों के महालेखा परीक्षक तथा केंद्र में उनके समकक्ष अधिकारी, ऐसे महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी हैं जिन्हें सार्वजनिक वित्त की चौकसी का कार्य सौंपा गया है।
मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी हो रही है कि इस वर्ष के सम्मेलन का शीर्षक है ‘व्यावसायिक परिपाटियों का सुदृढ़ीकरण’। एक ज्ञान आधारित संगठन होने के नाते, यह जरूरी है कि विभाग द्वारा जिन प्रक्रियाओं को अपनाया जा रहा है उन्हें लगातार अद्यतन किया जाए तथा सभी पर समान रूप से और निष्पक्षता से लागू किया जाए।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की संस्था, हमारे देश की शासन व्यवस्था तथा जवाबदेही ढांचे का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। इसकी मौजूदगी से, सार्वजनिक प्राधिकारियों द्वारा किए गए सार्वजनिक व्यय की संसद के प्रति जवाबदेही की जरूरत को बल मिलता है, जो कि इस देश की जनता की सर्वोच्च इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। संसद जिन उपायों से यह जवाबदेही कार्यान्वित करती है, उनमें से एक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक का कार्यालय है। उसकी इस भूमिका को महत्त्व देते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को संवैधानिक दायित्व देने से यह भी प्रदर्शित होता है कि हमने अपने सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा और पारदर्शिता को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। हमारे देश के सभी सरकारी सेवक सबसे पहले जनता के प्रति जवाबदेह हैं। हम जो भी निर्णय लेते हैं, उनके पीछे हमारी जनता के सशक्तीकरण तथा कल्याण का तर्क होना चाहिए। यह किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए सबसे अनिवार्य है। किसी भी राष्ट्र के जीवन में ऐसे भी क्षण आएंगे जब उसकी संस्थाएं दबाव में प्रतीत होंगी परंतु जब तक हमें अपने बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों तथा अपनी जनता की सर्वोच्चता तथा अपनी संसदीय प्रक्रियाओं पर भरोसा है तब तक हम, हर उस संकट का सामना करने मंं सफल होंगे जो हमारे सामने आएगा।
नौवें दशक के दौरान, जिस समय हमने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला था तब सरकार को ऐसे बहुत से दूरगामी महत्त्व वाले निर्णय लेने पड़े थे जिनके परिणाम अब सामने आ रहे हैं। वित्तीय सेक्टर और सामाजिक सेक्टर के सुधारों से रातों-रात परिणाम नहीं निकलता और देश की आर्थिक और सामाजिक सेहत पर उसका पूरा प्रभाव काफी देर में दिखाई देता है।
इनमें से अधिकतर सुधारों पर जनता का धन तथा जनता के संसाधन लगते हैं। पूरी दुनिया में इन सार्वजनिक संसाधनों के लिए, विभिन्न विपरीत मांगों में संतुलन रखते हुए इन संसाधनों का प्रयोग, सभी सेक्टरों के निर्णयकर्ताओं के लिए चुनौती होती है। भारत जैसे देश में, इसके साथ ही, सरकारी प्रशासकों पर एक अन्य महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है—शीघ्र से शीघ्र निर्धन तथा जरूरतमंद लोगों की हालत में तेजी से सुधार लाना। जैसा कि मैंने देश के प्रथम नागरिक का पद ग्रहण करते हुए कहा था, सुविधाओं के छनकर नीचे तक पहुंचने के, विकास के सिद्धांतों का भारतीय संदर्भ में कारगर होना संभव नहीं है। जब हम इष्टतम निर्णय प्रक्रिया की बात करते हैं तो हमें यह याद रखना होगा कि जनता के धन के उपयोग से लम्बी अवधि में जनता के जीवन स्तर में सुधार होना चाहिए।
पिछले छह दशकों के दौरान शासन व्यवस्था बहुत जटिल हो गई है। सार्वजनिक व्यय कई गुना बढ़ गया है, नई-से-नई आपूर्ति प्रणालियों के बारे में सोचा गया है तथा उन्हें स्थापित किया गया है ताकि उसका लाभ लोगों तक पहुंच सके। सरकार की गतिविधियों की संख्या में भी कई गुणा वृद्धि हुई है। आजादी से पूर्व का प्रशासन उपनिवेशवादी था और वह मुख्यत: राजस्व संग्रह तथा कानून लागू करने के लिए जिम्मेदार था। आजादी तथा योजना निर्माण प्रक्रिया के शुरू होने के बाद, राज्य तथा केंद्र दोनों ही सरकारों ने ऐसी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली, जिनके बारे में पहले सोचना भी संभव नहीं था। सरकारों ने फैक्ट्रियां, सड़कें, बंदरगाह तथा सार्वजनिक अवसंरचना खड़ी की। उन्होंने स्वस्थ तथा शिक्षा जैसी सेवाएं सीधी प्रदान की। पूरी तरह राजस्व प्राप्ति तथा कानून और व्यवस्था प्रधान प्रशासनिक व्यवस्था से, विकासात्मक प्रशासन की ओर बदलाव वास्तव में एक बड़ा परिवर्तन था।
एक बड़ा परिवर्तन आज हो रहा है। हमने यह महसूस किया है कि सरकारें अकेले ही सब कुछ नहीं कर सकती। परिणामस्वरूप, अब ऐसे बहुत से पक्षकार हैं जो कि सार्वजनिक व्यय तथा आपूर्ति सेवाओं के लिए जिम्मेदार हैं। इनमें न केवल केंद्र और राज्य सरकारें हैं बल्कि स्थानीय निकाय, पंजीकृत सोसाइटियां तथा गैर सरकारी संगठन आदि भी हैं। खासकर, अवसंरचना के लिए धन की व्यवस्था के लिए, जरूरी धन की मात्रा को देखते हुए सार्वजनिक-निजी भागीदारी एक संस्थागत ढांचे के हिस्से के रूप में सामने आई है। वे सरकार की इस स्वीकृति का प्रतीक हैं कि सरकार को, विस्तृत तथा सतत् विकास को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से निजी सेक्टर से विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग लेना होगा।
इससे फंड के उपयोग, व्यय, लेखा-जोखा तथा मूल्यांकन में बहुत जटिलताएं पैदा हुई हैं। अपने देश के कोने-कोने में निर्धनों तथा जरूरतमंदों को सेवा उपलब्ध कराने के हमारे प्रयासों के तहत, हमें आपूर्ति के तेज-से-तेज चेनलों को विकसित करना पड़ा है। ऐसे भी अवसर आए हैं जब प्रणाली पूरी तरह विकसित नहीं हो पाई, लेखा-जोखा की प्रक्रिया पूरी तरह शुरू नहीं हो पाई और जो स्थानीय कर्मचारी सरकारी धन का लेन-देन करते थे, वे अपने विभिन्न तरह के कार्यकलापों में पूरी तरह दक्ष नहीं थे। परंतु यह एक वास्तविकता है जिसे हमें स्वीकार करना होगा और इस स्थिति को लगातार क्षमता निर्माण तथा मानवीय दक्षता में वृद्धि करके दूर करना होगा।
मुझे खुशी है कि पिछले कई वर्षों के दौरान नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने इस पर एक सकारात्मक रुख अपनाया है और उसने सरकारों और स्थानीय निकायों को वित्तीय प्रबंधन में दक्षताओं का विकास करने तथा उनमें सुधार के लिए सहायता देने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। आपके विभाग ने विभिन्न संगठनों के अपने अनुभवों से वित्तीय प्रबंधन में काफी विशेषज्ञता हासिल की है। अत: यह उचित होगा कि इस विशेषज्ञता का पूरी तरह उपयोग हो। मुझे उम्मीद है कि आप इस दिशा में अपने प्रयास जारी रखेंगे।
मुझे मालूम है कि सार्वजनिक लेखा परीक्षा, वित्तीय प्रशासन का केवल एक पहलू है। ज्यादा जरूरी यह है कि हम सरकारी क्रियाकलापों के सभी क्षेत्रों में एक मजबूत आंतरिक नियंत्रण प्रणाली शुरू करें। इस दिशा में कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा चुके हैं। उदाहरण के लिए, रक्षा मंत्रालय ने पूंजीगत अधिप्राप्ति के लिए एक व्यापक ‘रक्षा अधिप्राप्ति प्रक्रिया’ तैयार की है। ‘सार्वजनिक अधिप्राप्ति विधेयक’ 2012 को लेकसभा में प्रस्तुत किया जा चुका है। बहुत सी राज्य सरकारों ने अब सरकारों के अंदर ही पूर्ण आंतरिक लेखापरीक्षा विभागों की स्थापना कर ली है। केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा इस समय भारत सरकार में ‘आंतरिक लेखा परीक्षा तंत्र’ को मजबूत करने के लिए गठित कार्य समूह की रिपोर्ट का अध्ययन किया जा रहा है। मुझे उम्मीद है कि यदि ये सिफारिशें सरकार द्वारा स्वीकार कर ली जाती हैं तो इससे आंतरिक लेखापरीक्षा, शासन व्यवस्था तथा आंतरिक नियंत्रण का कारगर साधन बन जाएगी और यह नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के सहयोगी की तरह कार्य करेगी। ये सभी पारदर्शिता तथा अच्छे वित्तीय प्रशासन की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
अत: समता तथा न्याय, निष्पक्षता तथा पारदर्शिता, हमारी राजव्यवस्था की आधारशिला बनी हुई है। भारत एक बार फिर से बदलाव के मुहाने पर खड़ा है। हमने जो बदलाव का एजेंडा खुलकर अपनाया है, उसके लिए नवान्वेषण तथा कार्य निष्पादन की जरूरत है। इसके लिए बहुत संसाधनों की जरूरत है परंतु इसके लिए सबसे जरूरी है इन संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग ताकि हम इन संसाधनों से अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकें। सरकार में, हर संस्था को इन महत्त्वपूर्ण बदलावों के लिए स्वयं को फिर से तैयार करना होगा और इसमें सहयोग देने के लिए तैयार रहना होगा।
मुझे इस बात की खुशी है कि पिछले वर्षों के दौरान, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की लेखापरीक्षा, रुटीन अनुपालन लेखा परीक्षा से आगे बढ़कर अधिक बड़े परिप्रेक्ष्य में पहुंच गई है। तथापि, मुझे यह बात जोर देकर कहनी है कि अपनी संगठनात्मक भूमिकाओं और सीमाओं को पुन: परिभाषित करते हुए सभी संवैधानिक प्राधिकारियों को नियंत्रण एवं संतुलन की उस बेहतरीन तथा समंजित प्रणाली का पालन करना चाहिए जो कि हमारी शासन व्यवस्था के ढांचे की आधारशिला है। राज्य के किसी भी अंग के सीमा के विस्तार से, व्यवस्था में अनावश्यक रूप से असंगति पैदा होगी। अत: यह जरूरी है कि सभी संवैधानिक प्राधिकारी अपनी-अपनी भूमिकाओं के बारे में आत्मचिंतन करें।
मुझे जानकारी है कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने, लेखापरीक्षा प्रक्रिया में नागरिक समाज संगठनों तथा लाभभोगियों को शामिल करने की पहल शुरू की है। इससे लेखापरीक्षा प्रक्रिया में सुदृढ़ता आती है तथा ऐसी प्रतिक्रियाएं प्राप्त होती हैं जो कि प्रासंगिक तथा समयानुकूल होती हैं। आपके पास सुप्रशिक्षित कर्मचारी हैं तथा बहुत बड़ा भौगोलिक क्षेत्र है। हम सभी को उन अच्छी परिपाटियों के रिकार्ड से लाभ हो सकता है जो आपको सामाजिक कार्यक्रमों की लेखापरीक्षा के दौरान गांवों, विकास खंडों तथा जिलों में दिखाई देंगी, ताकि इन परिपाटियों का अन्य स्थान पर अपनाया जा सके।
लेखा परीक्षा रिपोर्टों से, मूलत: सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों पर प्रतिक्रिया प्राप्त होती है। इसलिए इस प्रतिक्रिया की शैली तथा समय महत्त्वपूर्ण है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारों तथा जिला स्तर पर स्थानीय निकायों को भी धन निर्मुक्त करती है। इस धन के उपयोग के बारे में केंद्र सरकार को केवल उपयोग प्रमाण पत्र की प्रणाली द्वारा ही जानकारी हो पाती है। जब तक ये उपयोग प्रमाण पत्र प्राप्त होते हैं तब तक वह कार्यक्रम पूर्णत: कार्यान्वित हो चुका होता है। इसलिए यह जरूरी है कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्टें समय से प्रस्तुत की जाएं, जिससे कि यदि जरूरत हो तो इन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के बीच में उनमें सुधार लाया जा सके।
हमारे पास एक अच्छे ढंग से स्थापित ‘लोक लेखा समिति’ तथा ‘सार्वजनिक उपक्रमों संबंधी समिति’ की प्रणाली मौजूद है। इन समितियों के माध्यम से, संसद तथा राज्य विधान सभाएं उन निगरानी कार्यों का संचालन करती हैं जिनकी उनसे अपेक्षा की जाती है। ये संस्थाएं सदैव से द्विभागीय पद्धति से संचालित होती रही हैं तथा उन्होंने काफी हद तक पारदर्शिता तथा बेहतर शासन व्यवस्था के लिए सहयेग दिया है। विधायिका की यह एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करें कि इस तरह की समितियां सक्रिय रहें तथा लेखापरीक्षा की सभी महत्त्वपूर्ण टिप्पणियों पर पूरी गंभीरता के साथ विचार किया जाए, जिसकी वे हकदार हैं।
मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी हो रही है कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारत की एक सर्वोच्च लेखा परीक्षा संस्था के तौर पर, अंतरराष्ट्रीय लेखा परीक्षा में अग्रणी रही है। लगभग दो दशकों तक संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य एजेंसियों के लेखा परीक्षा बोर्ड का सदस्य होने के अलावा, आपने संयुक्त राष्ट्र तथा अन्य कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों की भी लेखापरीक्षा की है। आपने अपने ज्ञान, दक्षता तथा उच्च पेशेवराना क्षमता के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय से बहुत सराहना पाई है।
मैं इस बात का उल्लेख करना चाहूंगा हूं कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की इस विशिष्ट संस्था ने, जो कि 150 वर्षों पुरानी हो चुकी है, यह सुनिश्चित करने के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है कि हमारी शासन व्यवस्था पारदर्शक तथा जवाबदेह रहे। हमारी जनता के एक समृद्धशाली तथा समतापूर्ण भविष्य की दिशा में अपनी यात्रा में, मुझे इस संस्थान से बहुत अपेक्षाएं हैं। मैं भारतीय लेखा एवं लेखा परीक्षा विभाग के सभी सदस्यों को शुभकामनाएं देता हूं।
धन्यवाद,
जय हिंद!