केरल विधान सभा के सदस्यों को संबोधित करते हुए भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

तिरुअनंतपुरम, केरल : 30.10.2012

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आज आप सबके बीच आकर केरल के विधान मंडलों के 125वर्षीय समारोहों में भाग लेकर मुझे बहुत सम्मान का अनुभव हो रहा है।

मैं समझता हूं कि मेरे तीन सुप्रसिद्ध पूर्ववर्ती श्री के.आर. नारायणन,डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तथा श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस सदन को संबोधित किया है। मुझे इस सुंदर परिसर,जो कि परंपरागत वास्तुशिल्प और आधुनिक प्रौद्योगिकी का संगम है,में आकर प्रसन्नता हो रही है। विधान सभा परिसर के समक्ष स्थापित महात्मा गांधी,पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा डॉ. बी.आर. अम्बेडकर की मूर्तियां,राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने तथा इन महान नेताओं के आदर्शों का अनुपालन करने के प्रति केरल की महान परंपरा का प्रतीक है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि केरल विधानमंडल में एक स्वर्ण जयंती संग्रहालय है जो कि संभवत: भारत के किसी भी विधानमंडल में पहला संग्रहालय है। मुझे बताया गया है कि संग्रहालय की इमारत को विरासती इमारत घोषित किया गया है और इसमें एक नया बना हुआ हिस्सा भी है जिसमें अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से केरल की लोकतांत्रिक संस्थाओं के इतिहास को प्रदर्शित किया गया है। मुझे यह जानकर भी खुशी हो रही है कि राज्य विधानमंडल ने एक प्रशिक्षण सेल की भी स्थापना की है जिसमें विधयकों को संसदीय परिपाटियों और प्रक्रियाओं की शिक्षा दी जाती है।

मैं, केरल विधान सभा द्वारा शुरू की गई हरित पहलों से बहुत प्रभावित हुआ हूं। ये पहलें अध्यक्ष जी की सक्रियता और उनकी उद्यमशीलता तथा विधायकों की नवान्वेषण के प्रति तत्परता तथा समय की जरूरतों का ध्यान रखने और पर्यावरण को बचाने में नेतृत्व दर्शाने की इच्छा के प्रतीक हैं।

मित्रो, आप सौभाग्यशाली हैं कि आप हमारे देश के एक सबसे पुराने प्रतिनिधि निकाय के सदस्य हैं। आप पुराने त्रावनकोर राज्य द्वारा1888 में आरंभ की गई संसदीय परंपराओं के पथप्रदर्शक हैं। त्रावनकोर तथा कोच्चि की विधानमंडलों में जनता के प्रतिनिधित्व से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में गति आई और उन्होंने ऐसी लोकप्रिय विधानसभाओं की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया जो कि जनता की आकांक्षाओं और शासन की उसकी इच्छा का प्रतीक थी। त्रावनकोर को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने बहुत पहले1948में ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव आयोजित किए थे और यह कार्य करने वाला यह पहला देशी राज्य था।

इस विधानसभा ने पिछले बहुत से वर्षों में बहुत सी राजनीतिक पहलों की शुरुआत की जिन पर शेष देश की ही नहीं बल्कि समग्र विश्व की बहुत उत्सुकतापूर्ण नजरें रही हैं। भूमि सुधार,शिक्षा, सामाजिक कल्याण,लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण, भ्रष्टाचार-निरोध जैसे क्षेत्रों में केरल विधान सभा ने जो कानून बनाए थे,वे सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक परिवर्तन लाने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रयोग के सबसे अच्छे उदाहरण हैं। इन कानूनों का परिणाम केरल द्वारा साक्षरता,जनसंख्या नियंत्रण, श्रम कल्याण तथा सामाजिक-आर्थिक समानता लाने में केरल की उपलब्धियों में देखा जा सकता है। मैं इस अवसर पर केरल के उन कुछ महान व्यक्तित्वों को याद करना चाहूंगा जिन्होंने राज्य तथा राष्ट्रीय राजनीति पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उनमें श्री वी.के. कृष्णा मेनन,श्री ए.के. गोपालन पनमपल्ली, श्री गोविंद मेनन, श्री सी.एम. स्टीफन,श्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद, श्री सी. अच्युत मेनन और श्री के. करुणाकरण शामिल हैं।

शक्ति का विकेंद्रीकरण एक सच्चे लोकतंत्र का अनिवार्य तत्त्व है। केरल विधानसभा ने इस क्षेत्र में सबसे पहले प्रयास किए हैं जो कि स्थानीय निकायों के गठन और उनके विकास के बारे में इसके द्वारा बनाए गए बहुत से कानूनों से सिद्ध होता है।

मैं, इस अवसर पर केरल को स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए50 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए बधाई देना चाहूंगा। मैं,केरल को सेवा का अधिकार अधिनियम के कारगर क्रियान्वयन के द्वारा प्रशासन में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए भी बधाई देना चाहूंगा।

समाज के एकीकृत विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कार्यान्वयन के लिए एक टिकाऊ और स्थिर सरकार अपरिहार्य है। केरल में मिली-जुली सरकारें बिना व्यवधान पांच वर्षों तक चलती रही हैं। इस मामले में भी,केरल ने देश को एक व्यावहारिक मॉडल दिखाया है जिसका अब राष्ट्रीय स्तर पर भी परीक्षण किया जा रहा है।

विधायन के क्षेत्र में केरल का एक अन्य महत्त्वपूर्ण योगदान उसकी विषयवार समितियां रही हैं जिन्हें अब केंद्र स्तर पर संसदीय स्थाई समिति के रूप में अपना लिया गया है। मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि विषयवार समितियों की संख्या अब10 से बढ़र 14हो गई है। मुझे यह भी जानकर खुशी हो रही है कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में निहित कल्याण उपायों ने केरल की विधायिका में कई कल्याण समितियों को स्वरूप प्रदान किया है। वरिष्ठ नागरिकों,अनिवासी केरलवासियों, मछुआरों,महिलाओं तथा शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के कल्याण के लिए गठित समितियां प्रशंसा की पात्र हैं।

मुझे बताया गया है कि 1957 में अपनी स्थापना से केरल विधान सभा की3000 बैठकें हो चुकी हैं तथा इसका प्रतिवर्ष53/54 दिन बैठकें करने का कीर्तिमान है। हालांकि यह अन्य राज्यों की विधायिकाओं से आगे है परंतु आगे सुधार की काफी गुंजाइश है। पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में बार-बार इस बात की जरूरत दोहराई गई है कि प्रतिवर्ष कम से कम 100 दिन बैठकें होनी चाहिए। मैं विधायिका से अनुरोध करूंगा कि वे इस दिशा में यथासंभव प्रयास करें। केरल को100 प्रतिशत साक्षरता प्राप्त करने पर गर्व है। मुझे उम्मीद है कि इस विधानसभा के विधायक100 दिनों की बैठक को भी इसी तरह की चुनौती के रूप में स्वीकार करेंगे और इस लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे।

मित्रो, जनता का प्रतिनिधि होना बहुत सौभाग्य और गौरव की बात है। परंतु इस सौभाग्य के साथ-साथ बहुत जिम्मेदारी भी आती है। चयनित प्रतिनिधियों को बहुत सी भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है और अपने दल, विधानसभा तथा मतदाताओं से बहुत सी मांगें होती हैं। विधायक का सेवाकाल चौबीसों घंटे और सातों दिन होता है। उन्हें लोगों की समस्याओं और उनकी चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता और सहानुभूति रखनी चाहिए;उनकी शिकायतों, कठिनाइयों और समस्याओं को विधानमंडल के सदन में उठाकर उन्हें स्वर देना चाहिए और नेता तथा सरकार के बीच कड़ी के रूप में काम करना चाहिए।

भारत के संविधान में विधान सभा को राज्य में शासन के केंद्र में रखा गया है तथा इसे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का बुनियादी उपकरण माना गया है। राज्य विधानमंडल की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य के सुशासन तथा प्रशासन के लिए कानून बनाना है। हमारे संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची-2 में66 मदें राज्य प्रशासन और कानून के संबंध में दी गई हैं।

कानून, धन और वित्त के मामलों में बहुत सावधानी बरते जाने की जरूरत है। चुने गए प्रतिनिधियों का धन तथा वित्त पर पूर्ण नियंत्रण होता है। कार्यपालिका द्वारा बिना विधायिका की अनुमति लिए कोई खर्च नहीं किया जा सकता। जब तक विधायिका कानून नहीं बना देती तब तक कोई कर नहीं लगाया जा सकता तथा विधयायिका के अनुमोदन के बिना राज्य की संचित निधि से कोई भी धन नहीं निकाला जा सकता। प्रशासन तथा विधायन की बढ़ती जटिलताओं को देखते हुए विधायकों को काई कानून पारित करने से पहले पर्याप्त चर्चा और जांच कर लेनी चाहिए। यह दु:ख की बात है कि पूरे देश में विधायकों द्वारा विधायन में लगाए जाने वाले समय में धीरे-धीरे कमी आती जा रही है।

विधान सभा इस मायने में भी कार्यपालिका की स्वामी है कि मुख्य मंत्री अपनी मंत्री परिषद सहित सामूहिक रूप से और पृथक रूप से विधानसभा के प्रति जवाब होते हैं। कार्यपालिका को कभी भी राज्य विधानसभा में साधारण बहुमत से अविश्वास का संकल्प पारित करके बर्खास्त किया जा सकता है। इसके अलावा, शासन के अधिकांश दस्तावेज विधान सभा द्वारा पारित समुचित कानूनों के द्वारा ही कार्यान्वित किए जाते हैं। विधायिका पर कार्यपालिका की पूर्ण निर्भरता है और यह अनिवार्य है कि विधायिकाएं संविधान द्वारा उन्हें सौंपे गए इस महत्त्वपूर्ण कार्य के प्रति जिम्मेदार और संवेदनशील हों जिससे हमारा कार्य लोकतांत्रिक ढंग से सुचारु रूप ढंग से चलता रहे।

संसदीय परिपाटियां, प्रक्रियाएं और परंपराएं कार्य के व्यवस्थित तथा तेज गति से संचालन के लिए बनाए गए हैं। सदन में अनुशासन और शालीनता बनाए रखने,नियमों, पंरपराओं तथा शिष्टाचार का पालन करने की बहुत जरूरत है,इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। असहमति एक मान्यता प्राप्त अभिव्यक्ति है परंतु इसे शालीनता तथा संसदीय व्यवस्थाओं की सीमाओं और मानदंडों के भीतर रहकर प्रकट करना चाहिए। संसदीय प्रणाली के कारगर संचालन का बुनियादी सिद्धांत यह है कि बहुमत शासन करेगा और अल्पमत विरोध करेगा, रहस्योद्घाटन करेगा और यदि संभव हुआ तो सत्ता से हटाएगा। परंतु यह सब विधानमंडल द्वारा खुद बनाए गए नियमों के ढांचे के भीतर ही किया जाना चाहिए। जहां अल्पमत को बहुमत के निर्णय को स्वीकारना पड़ेगा वहीं बहुमत को अल्पमत के विचारों का सम्मान करना होगा। व्यवधान को कभी भी एक कारगर संसदीय उपाय के रूप में प्रयोग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। प्रत्येक विधायक का यह प्रयास होना चाहिए कि सदनों में होने वाली चर्चा की सामग्री तथा उसका स्तर उनके जनप्रतिनिधि की हैसियत के मुताबिक उच्च स्तर की होनी चाहिए। विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्य होने के नाते प्रत्येक विधायक अपने-अपने दल के घोषणा-पत्र तथा राजनीति से निर्देशित होते हैं। परंतु विकास तथा जनता के कल्याण के ऐसे बहुत से मुद्दे होते हैं जो कि सभी राजनीतिक बाधाओं से ऊपर होते हैं। पूरी विधानसभा को जनता, राज्य तथा देश के भले के लिए एकजुट होकर कार्य करना चाहिए।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में अपने एक प्रसिद्ध व्याख्यान में एक बार कहा था, ‘‘संसदीय लोकतंत्र कई गुणों की मांग करता है। यह काम के प्रति कुछ निष्ठा की मांग करता है। परंतु यह अत्यधिक सहयोग,आत्म अनुशासन और आत्मसंयम की भी मांग करता है। यह स्पष्ट है कि इस जैसा सदन प्रत्येक समूह के बिना सहयोग के,बिना अत्यधिक आत्मसंयम और आत्म-अनुशासन के,कार्य नहीं कर सकता।’’

कई ऐसे मुद्दे हो सकते हैं जो सदस्यों के दिमाग को उद्वेलित कर रहे हों,इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि वे इन्हें सदन के सामने लाना चाहते हैं। कभी-कभी आपको कार्यवाहियों में कारगर ढंग से भाग न ले पाने के कारण भी हताशा महसूस हो सकती है। परंतु याद रखें कि उस छोटे से मौके को पाने के लिए भी यह जरूरी है कि सदन कार्य करे।

किसी भी जन प्रतिनिधि को यह शोभा नहीं देता कि वह संसद में अभद्र आचरण करे या फिर असंसदीय भाषा का प्रयोग करे। सदन का बार-बार स्थगित होना तथा किसी सदस्य का अभद्र आचरण जनता के दिमाग में नकारात्मक छवि पैदा करता है,खासकर जबकि कार्यवाहियां सीधी प्रसारित हो रही हैं। इस तरह की घटनाओं से जनता में,खासकर युवाओं के मन में, खुद हमारी शासन प्रणाली की व्यवहार्यता के बारे में आलोचना की भावना बढ़ती है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रणाली को बने रहने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है इस प्रणाली की कारगरता में जनता का विश्वास तथा उनकी उम्मीदों और चिंताओं का समाधान कर पाने में इस प्रणाली की योग्यता।

हमारे राजनीतिक दलों तथा हमारे देश के नेताओं को एकजुट होकर इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि संसद तथा विधान सभाओं का व्यवधान रहित संचालन कैसे सुनिश्चित हो और क्या इसके लिए मौजूदा नियमों में से कुछ में संशोधन किए जाने की जरूरत है। हमें इस बात की भी जांच करनी चाहिए कि क्या हमारी समितियां विभिन्न मंत्रालयों को किए गए बजटीय आबंटन की अनुमोदनोपरांत जांच कर सकती हैं।

मित्रो, संसदीय लोकतंत्र के सफलतापूर्वक संचालन के लिए हमें जरूरत है अधिक से अधिक कौशल,योग्यता, बुद्धिमत्ता तथा उच्च स्तर की निष्ठा से युक्त विधायकों की। हमें लोगों की बढ़तती अपेक्षाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना होगा। उन लोगों का कल्याण,जो कि हमारे वास्तविक स्वामी हैं,हमारा अंतिम और साझा लक्ष्य होना चाहिए।

नोबल विजेता अमृत्य सेन ने कहा था कि जन आंदोलन के माध्यम से सामाजिक और मानवीय विकास के समतापूर्ण वितरण तथा अपेक्षाकृत कम औद्योगीकरण के बावजूद उच्च जीवन स्तर का केरल एक ज्वलंत उदाहरण है। केरल बहुत से क्षेत्रों में अग्रणी तथा पुरोगामी रहा है। लगभग सार्वभौमिक साक्षरता तथा स्कूलों में पंजीकरण का लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया है। इसकी जनता का प्रजनन स्तर प्रतिस्थापन दर से नीचे पहुंच गया है। समग्र लैंगिक अनुपात महिलाओं के पक्ष में है और महिलाएं पुरुषों के मुकाबले लंबा जीवन जीती हैं। शिशु तथा मातृत्व मृत्युदर कम है। केरल की आर्िथक विकस दर राष्ट्रीय औसत के मतुकाबले ऊंची है। पिछले कुछ वर्षों से पर्यटन तथा सूचना प्रौद्योगिकी खास तौर पर सफल रही है। केरल में अखबारों तथा पत्रिकाओं की प्रति व्यक्ति पाठक संख्या सबसे ऊंची है। यह समृद्ध तथा जीवंत साहित्यिक,नाट्य तथा सिनेमा संस्कृति का और उद्यमितापूर्ण तथा सामाजिक रूप से जागरूक लोगों का राज्य है।

ये शानदार उपलब्धियां अन्य बातों के साथ-साथ आपकी विधानमंडल तथा आपके प्रख्यात पूर्वजों द्वारा प्रदर्शित प्रेरणादायक नेतृत्व के कारण ही संभव हो पायी हैं। परंतु ह आत्मसंतुष्ट होने का समय नहीं है। केरल को अभी भी बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पिछले कुछ समय से राजनीतिक हिंसा चर्चा का प्रमुख विषय रहा है। लोकतांत्रिक तथा शांतिपूर्ण राजनीतिक सहभागिता की प्रक्रिया में भरोसा लौटाने की जरूरत है। औद्योगीकरण तथा नौकरियों के सृजन में तेजी लाने की जरूरत है। गैर-आवासी केरलवासियों से जो आय प्राप्त होती है उसे दीर्घकालीन विकास कार्यों तथा अवरंचना तैयार करने पर लगाया जाना चाहिए। विकसित अर्थव्यवस्थाओं की जीवन-शैली संबंधी बीमारियां,मानसिक बीमारियां, अवसाद,आत्महत्या, तलाक आदि जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। बढ़ती उम्र की जनसंख्या को देखते हुए वयोवृद्धों की देखभाल एक बड़ी चिंता है। सघन आबादी वाले इस राज्य के तेजी से शहरीकरण के कारण अपशिष्ट प्रबंधन तथा व्ययन जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे जैसे विवाद बढ़ रहे हैं।

पूर्व में केरल ने प्रगतिशील कानून, सामाजिक कल्याण उपायों तथा शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में शानदार उपलब्धियों के द्वारा देश को रास्ता दिखाया है। अब समय आ गया है कि यह राज्य इन दूसरी पीढ़ी की चुनौतियों का नवान्वेषी समाधान ढूंढ़कर तथा सामूहिक कल्याण के लिए समाज को एकजुट करने के नए तीरके ढूंढ़कर भी रास्ता दिखाए। अब समय आ गया है कि ‘केरल मॉडल-संस्करण-2’का विकास किया जाए और इसके लिए राज्य के चयनित प्रतिनिधियों को आगे आना होगा।

मुझे विश्वास है कि आप सभी अपने उत्तरदायित्वों के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं तथा आप केरल की जनता के प्रति अपने पुनीत कर्तव्यों को पूरा करने के लिए बिना रुके काम करेंगे। अंत में,मैं 19 अगस्त, 1939को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की उपस्थिति में महाजाति सदन अथवा‘राष्ट्र सदन’के उद्घाटन के अवसर पर गुरुदेव टैगोर के शब्दों का स्मरण करना चाहूंगा। मेरे राज्य बंगाल के बारे में बात करते हुए टैगोर ने कहा था, ‘‘बंगाल की ताकत भारत की ताकत बने और बंगाल का संदेश भारत के संदेश को सच्चाई में बदल दे।’’

मैं उनके शब्दों को दोहराते हुए कहना चाहूंगा, ‘‘केरल के कार्य से भारत को ताकत मिले और बहुलवाद,सहिष्णुता, प्रगतशील चिंतन तथा समतापूर्ण,समावेशी विकास का केरल का संदेश भारत का संदेश बने।’’

धन्यवाद,  
जय हिंद!

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