‘कान्टेम्पराइजिंग टैगोर एंड द वर्ल्ड’ की प्रथम प्रति स्वीकार करने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

राष्ट्रपति भवन : 08.05.2013

डाउनलोड : भाषण ‘कान्टेम्पराइजिंग टैगोर एंड द वर्ल्ड’ की प्रथम प्रति स्वीकार करने के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण(हिन्दी, 238.25 किलोबाइट)

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सबसे पहले मैं ‘कान्टेम्पराइजिंग टैगोर एंड द वर्ल्ड’ नामक पुस्तक की प्रथम प्रति स्वीकार करने के लिए मुझे आमंत्रित करने के लिए, इस समारोह के आयोजकों का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं।

यह पुस्तक गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की 150वीं जन्म जयंती मनाने के भारत-बांग्लादेश के संयुक्त प्रयास का परिणाम है। यह उस सम्मान के अनुरूप है जो भारत और बांग्लादेश, दोनों देशों में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर को दिया जाता है। हम दोनों देशों ने हमारी साझा विरासत के अभिन्न भाग के रूप में इस महान आत्मा की धरोहर को संरक्षित रखा है और उसका आनंद लिया है। हमारे दोनों देशों में उनके द्वारा रचित गीत हमारे राष्ट्रगान बन गए। हमारे दोनों देशों की जनता समसामयिक चुनौतियों की जड़ में मौजूद मुद्दों पर टैगोर के गहन चिंतन की समसामयिक प्रासंगिकता को फिर से महसूस कर रहे हैं। चाहे राजनीति हो, लैंगिक समानता सहित सामाजिक सुधार हो, ग्रामीण विकास, धर्म, शिक्षा, सौंदर्यशास्त्र, दार्शनिक परिचर्चा और अंतरराष्ट्रीय संबंध, टैगोर ने अपनी बौद्धिकता तथा मानवीय दृष्टिकोण से हमारे बहुत से महान राष्ट्रीय नेताओं को प्रेरित किया है।

‘कान्टेम्पराइजिंग टैगोर एंड द वर्ल्ड’ पर मई, 2011 में ढाका में आयोजित सम्मेलन, जिसका प्रधानमंत्री शेख हसीना ने समर्थन करने का अनुग्रह किया था, निश्चय ही एक इस समारोह का खास कार्यक्रम था। इस सम्मेलन में प्रस्तुत परचों, जिन्हें इस प्रकाशन में शामिल किया गया है, में पर्याप्त रूप से टैगोर की बहुमुखी प्रतिभा तथा उनकी विद्वत्ता को रेखांकित किया गया है। इन परचों में अन्य बातों के साथ-साथ मानवता, राष्ट्रीयता, अंतरराष्ट्रीयता तथा सार्वदेशिकता पर उनके गूढ़ चिंतन, राज्य एवं समाज तथा विज्ञान एवं सभ्यता पर उनके नजरिए तथा शिक्षा और तुलनात्मक साहित्य पर उनमें विचारों का पुनर्मूल्यांकन तथा पुनर्विश्लेषण किया है। इन परचों से टैगोर को एक दार्शनिक, लेखक, रचनाकार तथा कलाकार के रूप में बेहतर ढंग से समझने की तथा वर्तमान कठिन परिस्थितियों में, चाहे वे राष्ट्रीय हों, क्षेत्रीय हों अथवा वैश्विक, समाधान ढूंढ़ने में उनके चिंतन तथा विचारों के महत्त्व को समझने का बेहतर सहयोग मिलेगा।

मैं इस सम्मेलन को, बांग्लादेश की समकक्ष संस्थाओं और एजेंसियों के सहयोग से, आयोजित करने में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद को बधाई देता हूं।

जब हम टैगोर का स्मरण करते हैं तो हमारे सामने एक खुले समाज के तहत, बहुलवाद तथा बहुसंस्कृतिवाद के प्रति उनके प्रेम और एक ऐसे अंतरराष्ट्रीयतावाद, जिसमें नए विचारों और पद्धतियों को सहज ही स्वीकार किया जाता हो, के साथ ही अपनी सभ्यतागत जड़ों के प्रति उनकी गहन प्रतिबद्धता का बिंब उभरता है। ये मूल्य आज कितने महत्त्वपूर्ण हैं। मैं इस विषय पर समुचित जोर नहीं दे सकता।

इसके साथ ही, बेहतर संतुलन बनाने के लिए अनिवार्य कारक के रूप में ग्रामीण ऋण सहित, ग्रामीण पुनर्संरचना तथा विकास कार्यनीतियों में टैगोर की गहरी रुचि थी। वह मानते थे कि, ‘‘समाज को प्रमुख स्थान मिलना चाहिए न कि राष्ट्र को’’ और इस बात पर आक्रोश व्यक्त करते थे कि भारत की ‘समन्वयवादी सभ्यता’ ‘जिसमें उनका पूर्ण विश्वास था, को ‘जातिवाद, सम्प्रदायवाद तथा अंध परंपरापवाद’ से खतरा है।

सीमांत किसानों की दयनीय हालत के बारे में उनका प्रत्यक्ष अनुभव अत्यंत लाचारी भरा था। उन्होंने लिखा है, ‘‘धीरे-धीरे ग्रामीणों का दु:ख तथा उनकी निर्धनता का मुझे अहसास हुआ और मैं इस बारे में कुछ करने के लिए बेचैन हो उठा। मुझे यह अत्यंत शर्मनाक लगा कि मैं एक ऐसे जमींदार के रूप में अपना समय बिताऊँ, जिसे केवल धन कमाने से तथा अपने लाभ और हानि से मतलब है।’’ उन्होंने एक बहुमुखी कार्यनीति बनाई जिसमें शिक्षा, सहकारिता, ग्रामीण ऋण तथा बैंक, कृषि प्रौद्योगिकी तथा चिकित्सा कार्यक्रम शामिल थे। हम जानते हैं कि इनमें से अधिकांश, न केवल प्रासंगिक हैं, वरन् उन समस्याओं का सरल समाधान प्रदान करते हैं जो कि हमारे क्षेत्र के विकास में होने वाले विलंब के लिए जिम्मेदार हैं।

एक शिक्षाविद् और सुधारक के रूप में टैगोर मानते थे कि सामुदायिक विकास, स्वयं सहायता तथा हमारे समाज के समक्ष मुद्दों के प्रति एक जागरूक, ज्ञान संपन्न दृष्टिकोण पर आधारित होना चाहिए। उनकी ‘पल्ली समाज’ अथवा ग्रामीण समाज की अवधारणा आज भी प्रासंगिक है। 20वीं शताब्दी के आरंभिक दिनों में उन्होंने अन्न बैंक और महिला उद्यमिता के आधुनिकीकरण तथा कृषक समुदाय की आय के वैकल्पिक स्रोतों के निर्माण के विषय में लिखा। आज ये सिद्धांत सरकार के कार्यान्वयनाधीन कार्यक्रमों की धुरी हैं। वास्तव में टैगोर ने पहले कुछ गांवों पर ध्यान केन्द्रित करने तथा ऐसे उदाहरण की रचना करने का निश्चय किया था जिसका देश में अनुकरण किया जा सके। उनके विचार कई मायनों में अपने समय से काफी आगे थे। टैगोर ने गहन चिंतन किया था और प्राय: बंगाल के समावेशी विकास के विषय और आवश्यकता के बारे में लिखा। उन्होंने गीतांजलि में लिखा था :

‘‘जिनका तुम दमन करोगे, वही तुम्हें जंजीरों में जकड़ेंगे

जिनको तुम पीछे छोड़ोगे, वही तुम्हें पीछे खींचेंगे

जितना तुम उन्हें अज्ञान के अंधेरे में बंद करोगे

अपने कल्याण से भी तुम उतने ही दूर हो जाओगे।’’

टैगोर को ‘‘सार्वभौमिक मानसिकता का मानवतावादी’’ कहा गया है, जिन्होंने लिखा था ‘‘मानुषेर प्रोति बिस्वास हरनो पाप, सेय बिस्वास शेष पोरजोंतो रक्खा कोरबो’’ अर्थात मैं मनुष्य में आस्था खो देने का गंभीर पाप नहीं करूंगा।

इस तरह के मार्गदर्शन से हमें पूरे मन से, उस रास्ते का सुधार करने का प्रयास करना चाहिए जिस पर हमारा समाज वर्तमान में चल रहा है। हमारी नैतिक संरचना में कुछ दोष है और जब तक हम इसके लक्षण एवं कारणों का विश्लेषण करने के सुविचारित प्रयास नहीं करते तब तक हम किसी पर दोषारोपण नहीं कर पाएंगे। टैगोर उपनिषदों और गीता, भारत के भक्ति आंदोलन तथा बंगाल के बाउल दर्शन से प्रभावित थे। उन्होंने इन सब में स्वयं में ईश्वर को खोजने और तदनुसार धर्म और उद्देश्य के साथ उसी दिशा में अपने कार्यों को करने की जरूरत को महसूस किया। ये सिद्धांत आज कितने महत्त्वपूर्ण हैं—भले ही हम किसी भी धर्म को मानते हों।

अपनी चित्रकारी और गीत दोनों में टैगोर ने सदैव नारी का तथा एक बेहतर समाज के विकास में उनकी भूमिका के प्रति सम्मान प्रकट किया। हम शिक्षा की परिवर्तनकारी भूमिका पर उनके गूढ़ विचारों तथा बच्चों, महिलाओं एवं युवाओं पर इसके प्रभाव और महिलाओं के सशक्तीकरण और परिवार तथा वृहत समुदाय दोनों में सामाजिक मानसिकता के बदलाव में उनकी भूमिका पर उनके द्वारा दिए गए बल से भली भांति परिचित हैं। उन्होंने लिखा था, ‘‘मैं भारत में महिलाओं को दिव्य ऊर्जा की सजीव प्रतीक, शक्ति, के रूप में दी गई मान्यता को स्वीकार करता हूं जिसका आंतरिक स्वरूप मानव स्वभाव की गहन अवचेतना में निहित है, और बाहरी स्वरूप सेवा की मुधरता, आत्मसमर्पण की सरलता तथा नित्य त्याग के मौन साहस में झलकता है।’’ ये सदैव भारत में मौलिक मूल्य प्रणालियों का आधार रहे हैं। हमें, अपनी जीवनशैली के लिए अनिवार्य, इन दिशानिर्देशक सिद्धांतों को पुन: जीवित करना होगा। हम भारतीय जीवन शैली के हृस का खतरा नहीं उठा सकते। टैगोर ने ऐसे भारत का वर्णन किया है जिसे वह ‘‘भौगोलिक अभिव्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक विचार के रूप में’’ प्रेम करते थे। हमें अपने देश और देशवासियों के प्रति ऐसे ही गौरव और प्रेम को जगाने की जरूरत है।

टैगोर ‘‘सामान्य मानवता’’ के प्रति समर्पित थे और उन्होंने बहुत मुखरता के साथ इस विषय पर कहा और लिखा। उन्हें ‘‘अपनी समस्याओं का हल खोजते हुए हम... विश्व समस्या को भी हल करने में मदद करेंगे’’ में विश्वास था।

इस विचार को आपके सामने प्रस्तुत करके, मैं ढाका विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अरेफिन सिद्दीकी के प्रति उनकी आज की उपस्थिति के लिए गहरा आभार प्रकट करता हूं। वह भारत और बांग्लादेश के उन विद्वान और प्रभावी लोगों में से हैं, जो अपने कार्य और नेतृत्व के माध्यम से हमारे दोनों देशों के लोगों को पहले से अधिक एक दूसरे के निकट लाए हैं। उनके अनवरत् प्रयासों ने हमारे द्विपक्षीय संवाद का रूपांतरण किया है और अनेक स्तरों पर हमारे राष्ट्रों के बीच एक विशिष्ट पारस्परिक सद्भावना पैदा की है।

मैं, उन्हें और उनके माध्यम से इस प्रकाशन के सभी योगदानकर्ताओं को उनके भावी प्रयासों की सफलता की शुभकामनाएं देता हूं।

धन्यवाद!

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