भारतीय राजस्व सेवा के 65वें बैच के दीक्षांत समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
नागपुर, महाराष्ट्र : 29.04.2013
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नमस्कार!
मुझे भारतीय राजस्व सेवा के 65वें बैच के दीक्षांत समारोह के अवसर पर आप सबके बीच आकर खुशी हो रही है। सबसे पहले, मैं उन सभी अधिकारियों को बधाई देना चाहूंगा, जिन्होंने अपना व्यावसायिक प्रशिक्षण पूरा किया है।
70 के दशक के दौरान वित्त मंत्रालय में वित्त राज्य मंत्री रहने के समय से मेरा इस विभाग के साथ कई दशकों का संबंध रहा है। मैं राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी में कई बार आ चुका हूं। इसलिए मैं इस प्रमुख अकादमी के विकास और इसकी प्रगति का साक्षी रहा हूं।
आयकर अधिनियम, भारत का सबसे पुराना अधिनियम है। इसे 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने 1860 में, दंडात्मक कर के रूप में शुरू किया गया था। भारत में श्री जेम्स विल्सन द्वारा आयकर की शुरुआत के बाद यह विभाग बहुत प्रगति कर चुका है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 1860-61 में प्रत्यक्ष करों से कुल आमदनी 30 लाख रुपए थी। उसके मुकाबले 2012-13 के लिए इसका संशोधित लक्ष्य 5,65,835 करोड़ रुपए था। वर्ष 2013-14 के लिए प्रत्यक्ष कर संबंधी बजट प्राक्कलन के अनुसार प्रत्यक्ष कर से आय के 8 लाख 68 हजार करोड़ रुपए होने की संभावना है, जो कि केंद्र सरकार के सकल कर राजस्व का लगभग 54 प्रतिशत है। न केवल प्रत्यक्ष करों के संग्रह में ही बहुत वृद्धि हुई है बल्कि अब यह कर संग्रहों का सबसे बड़ा हिस्सा है। प्रत्यक्ष कर से, अप्रत्यक्ष करों के मुकाबले महंगाई पर असर नहीं पड़ता। इन करों का संग्रह अभी भी उस लक्ष्य से नीचे है जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं परंतु इसके राजस्व के 50 प्रतिशत से ऊपर होना एक सकारात्मक बात है।
कर संग्रह न तो आसान और न ही लेकप्रिय कार्य है। कर संग्राहकों को नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्यों के बारे में जागरूक रहना चाहिए। करदाता को हमारे सभी राष्ट्रीय प्रयासों के लिए राजस्व अर्जन में महत्त्वपूर्ण साझीदार के रूप में देखा जाना चाहिए। उनके द्वारा दिए गए कर से ही हमारी कल्याण योजनाओं को धन मिलता है, कानून और व्यवस्था के रखरखाव में सहायता मिलती है तथा हमारी सीमाओं की रक्षा आदि होती है। भूतकाल में बहुत से साम्राज्य इसीलिए समाप्त हो गए क्योंकि उनके पास अपने सैनिकों का वेतन देने के लिए धन नहीं था। कौटिल्य की यह उक्ति कि, ‘कोश मूलो दण्ड:’ अर्थात् ‘‘कर प्रशासन की रीढ़ रज्जु है’’, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी हजारों वर्ष पूर्व थी।
आज की वैश्वीकृत दुनिया में दो तिहाई से ज्यादा व्यापार संबंधित समूह निकायों के बीच होता है। अन्तर-समूह व्यापार से बहुराष्ट्रीय उद्यमों को ऐसे अनुकूल देशों में अपने लाभ को रखने का अवसर मिल जाता है जहां कम कर लगते हैं अथवा कर नहीं लगते हैं। इसके अलावा अंतरण मूल्य निर्धारण जैसे मुद्दे भी बहुत जटिल होते हैं। इसीलिए कराधान में राजनीतिक, कानूनी तथा अंतरराष्ट्रीय निहितार्थों के साथ नई जटिलताएं आ गई हैं। भारत अपने हितों की रक्षा के लिए दोहरे कराधान बचाव करारों तथा कर सूचना आदान-प्रदान करारों के माध्यम से कदम उठा रहा है। इससे पहले, विभिन्न देश सूचना को बांटने के लिए अनिच्छुक रहते थे। 2008 के वित्तीय संकट का एक अप्रत्यक्ष लाभ यह हुआ कि ऐसे अनिच्छुक देशों को सूचना साझी करने के लिए बाध्य होना पड़ा है।
आयकर विभाग, हमारे करदाताओं की सुविधा के लिए प्रौद्योगिकीय पहलों का सहारा लेने वाली सबसे पहली संस्थाओं में से एक है। इसके लिए कर संग्रह का केंद्रीकरण, कर प्रपत्रों का सरलीकरण, कर जमा करने के तरीकों में सुधार, कर कानूनों को आसान बनाना जैसे कई कदम उठाए गए हैं। हमारे कर कानूनों का आधुनिकीकरण बहुत महत्त्वपूर्ण है।
सरकार, जनता से दक्षतापूर्ण ढंग से करों की उगाही के लिए आप पर निर्भर है। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आप मातृभूमि के प्रति अपने दायित्वों को दक्षता और विश्वास के साथ पूरा करेंगे।
अपनी बात समाप्त करने से पूर्व, मैं आपको अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा दिए गए मंत्र की याद दिलाना चाहूंगा :
‘‘जब भी आप शंका में हों, अथवा जब भी आप आत्म पर अधिक केंद्रित हो जाएं, तब यह परीक्षा करें। आप उस निर्धनतम और निर्बलतम् पुरुष (महिला) को याद करें, जिसे आपने देखा हो, और तब खुद से यह सवाल करें, क्या आप द्वारा विचाराधीन कदम उसके लिए उपयोगी होगा। क्या उसे इससे कुछ प्राप्त होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और भाग्य पर नियंत्रण प्राप्त हो पाएगा? दूसरे शब्दों में, क्या इससे भूखे और आध्यात्मिक रूप से क्षुधापीड़ित लाखों लोगों को स्वराज (आजादी) प्राप्त होगा? तब आपको अपनी शंका तथा अपना आत्म, विलीन होता दिखाई देगा।’’
मैं आप सभी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूं।
जय हिंद!