अधिवक्ताओं के कल्याण, बार के सदस्यों, विशेषकर कनिष्ठ सदस्यों, अक्षमताग्रस्त सदस्यों और महिला सदस्यों, के कार्यकलापों पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
विज्ञान भवन, नई दिल्ली : 04.05.2013
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मुझे विधिक समुदाय के सदस्यों के कल्याणकारी कार्यकलापों पर अखिल भारतीय संगोष्ठी के उद्घाटन के अवसर पर यहां उपस्थित होने पर प्रसन्नता हो रही है और मैं इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की पहल के लिए दिल्ली बार काउंसिल को बधाई देता हूं।
मैं विधि का विद्यार्थी हूं और इस विषय पर स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। अधिवक्ता और उनका जीवन मुझे सदैव बेहद दिलचस्प लगता है।
यद्यपि मुझे अधिवक्ता के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ परंतु मैं अधिवक्ताओं, विशेषकर कनिष्ठ और महिला अधिवक्ताओं की कठिनाइयों से अवगत हूं। सामान्यत: लोगों के मन में एक अधिवक्ता की छवि, इस पेशे के ऐसे सबसे सफल सदस्यों की होती है जिसका बहुत सम्मान होता है, जिसके विचारों को महत्त्व दिया जाता है, उन्हें सुना जाता है, जो भारी फीस वसूल करते हैं, समाचार पत्रों में स्तंभ लिखते हैं तथा टेलिविजन चर्चाओं में नियमित रूप से दिखाई देते हैं।
परंतु वास्तविकता यह है कि पूरे समुदाय में ऐसे अधिवक्ताओं की संख्या बहुत थोड़ी सी है। अधिकांश अधिवक्ता रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करते हैं तथा मुश्किल हालात, लोगों द्वारा खास ध्यान न दिए जाने, घटिया बुनियादी सुविधाओं, मामूली आय तथा कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच कानून कायम रखते हैं। महिला और अन्य अक्षमताग्रस्त अधिवक्ताओं के लिए तो हालात और भी मुश्किल हैं।
मुझे इस बात की विशेष प्रसन्नता है कि यह संगोष्ठी महिलाओं पर केन्द्रित है क्योंकि कुल मिलाकर हमारे समाज में महिलाओं की सुरक्षा और हिफाजत सुनिश्चित करने की आवश्यकता को व्यापक रूप से अनुभव किया जा रहा है। महिला अधिवक्ता इस संबंध में एक अहम नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती हैं। परंतु पहले उनके लिए एक उपयुक्त और अनुकूल माहौल सुनिश्चित करना परम आवश्यक है। मुझे मालूम है कि उच्चतम न्यायालय की महिला अधिवक्ताओं के एक समूह ने न्यायालयों के भीतर महिला अधिवक्ताओं के लिए अधिक अनुकूल कार्यस्थल वातावरण प्रदान करने के संबंध में, विशाखा मामले में न्यायालय के अपने निर्णय को लागू करने के लिए एक याचिका दायर की है। मुझे विश्वास है कि उच्चतम न्यायालय मामले पर तेजी से ध्यान देगा।
हाल ही में दिल्ली में पाशविक हमले और बालिका दुष्कर्म की घटनाओं ने हमारे समाज की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर दिया है। इन घटनाओं से यह तात्कालिक आवश्यकता जाहिर होती है कि हमें मूल्यों के हृस तथा महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा और हिफाजत में हमारी लगातार विफलता पर आत्मविश्लेषण करना होगा। हमें हर हाल में महिलाओं की गरिमा और सम्मान सुनिश्चित करना होगा। विधिक समुदाय विशेषकर महिला अधिवक्ताओं को नैतिक दिशा के निर्धारण में राष्ट्र को सक्षम बनाने के लिए आगे आना होगा। अधिवक्ताओं और दिल्ली बार काउंसिल को मानव गरिमा और समानता के मूल्यों के प्रचार-प्रसार तथा हर हाल में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास करने होंगे।
देवियो और सज्जनो, न्यायपालिका हमारे जीवंत लोकतंत्र का एक सबसे महत्त्वपूर्ण आधार स्तंभ है। अधिवक्ताओं की, लोगों को न्याय प्राप्त करने में सक्षम बनाने तथा हमारे संविधान को एक जीती-जागती वास्तविकता बनाने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विधिक पेशे को ऐसे प्रत्येक समाज में एक नेक पेशा माना जाता है, जहां विधि का शासन विद्यमान हो। भारत में, महात्मा गांधी और पं. जवाहर लाल नेहरु सहित बड़ी संख्या में हमारे राष्ट्रीय नेता अधिवक्ता थे। वास्तव में, यह तर्क दिया जा सकता है कि हमारे नेताओं द्वारा भारत और विदेश में अधिवक्ता के तौर पर प्रशिक्षण और कानूनी प्रणालियों के अनुभव ने हमारे उस अनूठे राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई है जिसमें तर्क, बहस, शांति, अहिंसा और नैतिक साहस का प्रयोग करते हुए अंग्रेजों से स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार और लोकतंत्र को प्राप्त करने का प्रयास किया गया था।
मुझे आज यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भारतीय विधिक प्रणाली, कुल मिलाकर लोगों की आस्था और विश्वास पर खरी उतरी है। अधिवक्ता और न्यायाधीश दोनों इस उल्लेखनीय उपलब्धि के लिए निस्संदेह प्रशंसा के पात्र हैं। गुणवत्ता और तेजी के साथ न्याय प्रदान करना लोकतंत्र का मूलमंत्र है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि विधिक समुदाय विद्वान, सुप्रशिक्षित, सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध तथा सर्वोत्तम सुविधाओं और अवसंरचना से सुसज्जित हो। अधिवक्ताओं को अपने पेशे में आत्मविश्वास और सुरक्षा महसूस होनी चाहिए। तभी वे यह सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर सकते हैं कि हमारे देश में न्याय प्रणाली सर्वोत्तम परिणाम प्रदान करे।
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि दिल्ली बार काउंसिल महात्मा गांधी के इन शब्दों को हकीकत में बदलने के लिए प्रतिबद्ध है कि अधिवक्ताओं को अपने पेशे को अपनी जेब के हितों का अनुगामी नहीं बना लेना चाहिए बल्कि उन्हें हमारे देश की सेवा के लिए अपने कौशल का इस्तेमाल करना चाहिए। मैं समझता हूं कि 1961 में अधिवक्ता अधिनियम पारित होने के समय देश भर में केवल लगभग 3000 अधिवक्ता थे। आज अकेले दिल्ली बार काउंसिल में 70000 सदस्य है और मैं समझता हूं कि पूरे राष्ट्र में लगभग 17 लाख अधिवक्ता हैं। इस पेशे में सबसे ऊपर स्थित अभिजात्य अधिवक्ताओं तथा उन्हें सहयोग देने और उनकी सफलता को संभव बनाने वाले युवा अधिवक्ताओं के बीच बड़ा अंतर मौजूद है। विधिक पेशे में आए नए प्रवेशार्थियों की अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करना जरूरी है।
विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा लागू किया जाने वाला, अधिवक्ता कल्याण निधि अधिनियम 2001 इस संबंध में एक शुरुआत है। इस अधिनियम में देश भर के अधिवक्ताओं के हित के लिए एक कल्याण निधि के निर्माण की व्यवस्था की गई है तथा यह व्यवस्था की गई है कि राज्य बार काउंसिल में पंजीकृत अधिवक्ताओं के वार्षिक शुल्क का 20 प्रतिशत इस कल्याण कोष में जमा किया जाएगा, जिसका उसी राज्य बार काउंसिल द्वारा रखरखाव किया जाएगा। अधिवक्ताओं के प्रवेश शुल्क के अलावा, इस कल्याणकारी निधि में धन प्राप्ति के अन्य स्रोतों में स्वैच्छिक योगदान, अन्य अधिवक्ताओं का योगदान, भारत की बार काउंसिल का योगदान तथा वकालतनामे पर लगाई जाने वाली कल्याण टिकटों की बिक्री से एकत्र राशि भी शामिल है।
अधिवक्ता कल्याण निधि अधिनियम में व्यवस्था की गई है कि न्यासी समिति को किसी भी अधिवक्ता सदस्य को अनुग्रह राशि प्रदान करने का अधिकार है और ऐसे प्रत्येक सदस्य अधिवक्ता को, जो पांच वर्षों तक इस निधि का सदस्य रहा हो, एक निश्चित राशि प्राप्त करने का हकदार होगा। यह राशि ऐसे सदस्य की वकालत के मूल्यांकन तथा वकालत के वर्षों की संख्या को ध्यान में रखने के बाद तय की जाएगी। अधिनियम में यह व्यवस्था भी है कि यदि कोई अधिवक्ता स्थायी अशक्तता के परिणामस्वरूप वकालत नहीं कर पाता तो न्यासी समिति ऐसे सदस्य को उतनी राशि का भुगतान कर सकती है, जितनी अपनी वकालत की अवधि के अनुसार वह प्राप्त करने का हकदार होगा। ऐसी निधियों की न्यासी समिति, निधि के सदस्यों के लिए समूह जीवन बीमा कराएगी तथा निधियों का प्रयोग अपने सदस्यों के लिए सामान्य सुविधाओं के निर्माण और रख रखाव के लिए भी करेगी।
देश के बहुत से कानूनों की भांति इस कानून का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना भी एक चुनौती है। मुझे विश्वास है कि कल्याण निधि के लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने की भी जरूरत है। मुझे उम्मीद है कि संगोष्ठी में इस विषय पर ध्यान दिया जाएगा कि अधिवक्ता कल्याण निधि के लक्ष्यों की प्राप्ति कैसे हो और प्रभावी कार्यान्वयन के रास्ते की रुकावटों को दूर कैसे किया जा सकता है।
विधि बहुत चुनौतीपूर्ण पेशा है और विशेषकर उन महिलाओं सदस्यों के लिए संघर्षपूर्ण हो सकता है जिन्हें पेशागत कार्यों के साथ-साथ पारिवारिक दायित्व भी निभाने होते हैं। मुझे, इसमें कोई संदेह नहीं है कि महिला अधिवक्ता अपने पुरुष सहकर्मियों से बेहतर, नहीं तो उनके बराबर तो हैं ही। दुर्भाग्यवश, उनको अपनी पूरी हिस्सेदारी मिलना अभी बाकी है। उच्चतम न्यायालय में अभी तक केवल मुठ्ठी भर महिला न्यायाधीश बन पाई हैं तथा नामित वरिष्ठ अधिवक्ता भी बहुत कम संख्या में है। इस संबंध में एक बराबरी के अवसर प्रदान करने के सुविचारित प्रयास करने आवश्यक हैं।
अधिवक्ताओं को लोकतांत्रिक मूल्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रयास करना चाहिए और समूह के तौर पर अधिवक्ताओं को समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की मुहिम चलानी चाहिए। अपने मुवक्किलों के प्रतिनिधित्व के जरिए कानून के शसन की हिफाजत करते हुए और नागरिकों के वैयक्तिक अधिकारों की रक्षा करते हुए, अधिवक्ताओं को हमारे संवैधानिक लोकतंत्र में बड़ी भूमिका निभानी है, और उन्हें इस जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए।
मुझे विश्वास है कि संगोष्ठी में विचार-विमर्श से, शुरू किए जा सकने वाले नए कल्याण कार्यकलापों और उन्हें कैसे पूरा किया जाए, इस पर विचार सामने आएंगे। मैं इस अवसर पर न्यायाधीशों का आह्वान करना चाहूंगा कि वे स्थानीय उत्तरदायित्वों के लिए तथा लोक महत्त्व के मामलों में ‘न्याय मित्र’ के रूप में नियुक्ति के द्वारा बार के युवा सदस्यों को प्रोत्साहित करने पर विचार करें। मुझे विश्वास है कि ऐसे प्रयासों से विधिक समुदाय के युवा सदस्यों के आत्मविश्वास और मनोबल में वृद्धि होगी।
मैं इस प्रकार की संगोष्ठी, जो पूरे देश के अधिवक्ताओं के लिए महत्त्वपूर्ण है, के आयोजन के लिए आगे आने के लिए दिल्ली बार काउंसिल को बधाई देता हूं। मैं संगोष्ठी और इसके प्रतिभागियों की सफलता की कामना करता हूं। मुझे उम्मीद है कि इन विचार-विमर्शों के परिणामस्वरूप दिल्ली बार काउंसिल तथा सभी संबंधित प्राधिकारियों द्वारा ठोस कार्रवाई हो पाएगी।
मैं, विधि के दो विद्वानों, श्री रेनार्ड स्ट्रिकलैंड और श्री फ्रेंक टी. रीड के उद्घरण से अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। उनके अनुसार, ‘‘सबसे व्यावहारिक स्तर पर, अधिवक्ता समाज के पेशेवर समस्या निवारक हैं। अधिवक्ताओं से अन्तर स्पष्ट करने और यह बताने की अपेक्षा की जाती है, कि मामले या अनुभव कैसे और क्यों एक जैसे या अलग हैं। अधिवक्ताओं से संतुलन बनाने और संतुलनकर्ता बनने की अपेक्षा की जाती है। प्रत्येक विधा, प्रत्येक पेशे, प्रत्येक कार्य और प्रत्येक व्यवसाय में एक सीमा होती है। इस सीमा पर रेखा खींची जाती है। अधिवक्ता और न्यायाधीश समाज के अंतिम रेखाकार होते हैं। रेखा के एक तरफ आचरण, कार्रवाई अथवा अकर्मण्यता उचित है; परंतु रेखा के दूसरी तरफ नहीं। ’’
मैं, अपने युवा अधिवक्ताओं के समक्ष अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति और स्वयं एक विख्यात अधिवक्ता अब्राहम लिंकन के शब्दों को भी दोहराना चाहूंगा ‘‘कोई भी युवा, जो कानून को पेशे के रूप में अपनाना चाहता है उसे एक क्षण के लिए भी प्रचलित मान्यता के भूलभुलैया में नहीं पड़ना चाहिए - हर हालत में ईमानदार बनने का संकल्प लें और यदि आपको लगता है कि आप एक ईमानदार अधिवक्ता नहीं बन सकते तो अधिवक्ता बने बिना ईमानदार बनने का संकल्प लें।’’
धन्यवाद,
जय हिन्द!