37वीं भारतीय समाज विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश : 27.12.2013

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Speech by the President of India, Shri Pranab Mukherjee at the Inauguration of the 37th Indian Social Science Congress - 2013मुझे, आज की सुबह आप लोगों के बीच आकर बहुत खुशी हो रही है। यह राष्ट्रीय समाज विज्ञान कांग्रेस की मेरी दूसरी सहभागिता है। मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1996 में उन्नीसवीं भारतीय समाज विज्ञान कांग्रेस का समापन व्याख्यान दिया था। मेरे विद्वान मित्र, प्रो. (स्वर्गीय) बसंत सरकार, भारतीय समाज विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष थे। मैं भारतीय समाज विज्ञान अकादमी और इसकी भारतीय समाज विज्ञान कांग्रेस से तभी से परिचित हूं तथा देश को इसके योगदान को बहुमूल्य मानता हूं।

मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि ‘एक पारिस्थितिकीय रूप से सतत् समाज का निर्माण’ इस अधिवेशन का केंद्रीय विषय है।

यह जरूरी है कि हमारा देश प्रकृति के साथ सद्भाव रखते हुए विकास करे। प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को आदान-प्रदान, सीमा, सहयोग तथा सततता के सिद्धांतों से निर्देशित होना चाहिए। आदान-प्रदान से मेरा तात्पर्य है कि हम जितना प्रकृति से लें, उसी अनुपात में उसे लौटाएं। सीमा से मेरा तात्पर्य है कि पृथ्वी के पास बहुत सीमित मात्रा में जीवन संचालन संसाधन और खूबियां हैं। हमारे राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी प्राय: कहा करते थे, ‘धरती मां के पास हमारी जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त है परंतु लालच के लिए नहीं।’ वह एक ऐसा हिंद स्वराज स्थापित करना चाहते थे जो ‘लालच से जरूरत की ओर’ के सिद्धांतों पर आधारित हो। मनुष्य का जन्म उद्विकास तथा ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से हुआ है। अभी तक काफी हद तक मानवीय कार्यकलापों का उद्देश्य प्रकृति का स्वामी बनना रहा है। इस इच्छा के स्थान पर अब प्रकृति पर विजय के दर्शन से हटकर प्रकृति से सहयोग के दर्शन पर आधारित होने की जरूरत है। हमें पारिस्थितिकीय रूप से सतत् विकास के नए आयामों का विकास करने की जरूरत है।

पृथ्वी की 3/4 सतह पर पानी होने के बावजूद केवल 1 प्रतिशत पानी पीने योग्य है तथा इसका बड़ा हिस्सा पहले ही दूषित हो चुका है। इसके साथ ही, नदियां सूख रही हैं तथा भूजल का अधिक दोहन हो रहा है। जहां पानी है, वहीं जीवन है तथा जहां पानी नहीं है, वहां जीवन नहीं है। इसलिए हमें अपने जल संसाधनों को संरक्षित करने तथा उनको पुन: संभरण की जरूरत है।

हमारी भूमि की उर्वरता को बिना विलम्ब किए वापस लाना होगा। हमें भोजन, पानी तथा पर्यावरण में विषाक्तता को कम करने के लिए अपनी खेती और उद्योग के तौर-तरीकों में बदलाव लाना होगा। जैव-विविधता और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर गंभीरता से ध्यान दिया जाना जरूरी है।

खाद्य तथा ऊर्जा सुरक्षा तथा प्राकृतिक संसाधनों का सतत् प्रयोग, सतत् विकास की हमारी कार्ययोजना का महत्त्वपूर्ण भाग होना चाहिए। हमने हाल ही में राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010 के तहत राष्ट्रीय हरित अधिकरण स्थापित किया है। इस अधिकरण में पर्यावरण की सुरक्षा तथा वनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के कारगर तथा त्वरित निपटारे की व्यवस्था की गई। इसके तहत राहत तथा क्षति पर क्षतिपूर्ति सहित पर्यावरण से संबंधित वैधानिक अधिकारों को लागू करना शामिल है।

राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण एक ऐसा दूसरा उदाहरण है जहां हम पवित्र नदी को बचाने के लिए संस्थागत नवान्वेषणों को अजमा रहे हैं। इस प्राधिकरण का उद्देश्य है गंगा नदी का संरक्षण सुनिश्चित करना तथा व्यापक नदी बेसिन नजरिया अपनाकर पर्यावरणीय बहावों को बनाए रखना। हमें उम्मीद है कि सभी भागीदारों के सहयोग तथा इस नए नजरिए से रचनात्मक परिणाम प्राप्त होंगे।

जलवायु परिवर्तन एक चुनौती है परंतु यह मिल-जुलकर काम करने का एक विशिष्ट अवसर भी प्रदान करता है। एक विकासशील राष्ट्र के रूप में जलवायु संवेदनशीलता के अग्रिम मोर्चे पर होने के कारण जलवायु परिवर्तन के सफल, मूल्य आधारित, समतापूर्ण तथा बहुपक्षीय प्रत्युत्तर विकसित करने में भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। घरेलू, स्तर पर ‘जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना’ की शुरुआत द्वारा एक अच्छी शुरुआत की गई है। इस कार्य योजना में विकास के समग्र संदर्भ में जलवायु परिवर्तन का व्यापक प्रत्युत्तर निर्धारित किया गया है और उसमें ऐसे उपायों को चिह्नित किया गया है जो हमारे विकास उद्देश्यों को बढ़ावा दें और साथ ही कारगर ढंग से जलवायु परिवर्तन के समाधान का भी लाभ दें। इस कार्य योजना के तहत आठ मिशनों में वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ ही अनुकूलन तथा न्यूनीकरण, शामिल है। भारत वर्ष 2005 को संदर्भ वर्ष बनाकर 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन प्रबलता में 20 से 25 प्रतिशत कमी लाना चाहता है।

यह उल्लेखनीय है कि ऊर्जा दक्षता के बढ़ावा देने तथा भारतीय अर्थव्यवस्था में ढांचागत परिवर्तन की नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था की ऊर्जा प्रबलता में तेजी से कमी आई है।

मुझे ‘एक पारिस्थितिकीय रूप से सतत् समाज के निर्माण’ पर 37वीं समाज विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए खुशी हो रही है तथा मैं इसमें उपयोगी विचार-विमर्श की कामना करता हूं। आपके जैसे संगठन तथा आपके सदस्य भारत को पारिस्थितिकीय रूप से सतत् समाज बनने की दिशा में मार्गदर्शन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

मैं इस अवसर पर विदेशों से आए प्रतिभागियों का स्वागत करता हूं। मैं इस सम्मेलन के दौरान उनके आरामदेह तथा उपयोगी प्रवास की कामना करता हूं। मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को भी ‘समाज विज्ञान साइबर पुस्तकालय’ विकसित करने पर बधाई देता हूं। मुझे इसका उद्घाटन करने पर प्रसन्नता हो रही है तथा उम्मीद करता हूं कि पूरे विश्व के समाज विज्ञानी इससे लाभान्वित होंगे।

धन्यवाद, 
जय हिंद!

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