राष्ट्रपति भवन : 18.01.2014
भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी ने आज (18 जनवरी, 2014) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में ‘नेहरू तथा संसदीय लोकतंत्र’ विषय पर 10वां नेहरू स्मृति व्याख्यान दिया।
इस अवसर पर बोलते हुए, राष्ट्रपति ने आगामी आम चुनावों का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘‘हर एक चुनाव को अधिकाधिक सामाजिक सौहार्द, शांति तथा समृद्धि की ओर हमारे देश की यात्रा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण पड़ाव बनना चाहिए। लोकतंत्र ने हमें दूसरा स्वर्ण युग पुन: सृजित करने का अवसर प्रदान किया है। हमें इस असाधारण अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।’’
राष्ट्रपति ने कहा कि प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति के परिणामस्वरूप देश की प्रगति की गति में कमी अथवा जनता की परेशानियों में बढ़ोत्तरी नहीं होनी चाहिए। विकास तथा जनकल्याण से संबंधित अधिकतर मुद्दे राजनीति से परे होते हैं। इस प्रकार के मुद्दों पर सहमति बनाना कठिन नहीं होना चाहिए।
संसद तथा विधान सभाओं में व्यवधानों के हालिया रुझानों के बारे में बात करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि कार्यवाहियों में व्यवधान किसी भी परिस्थिति में सहन नहीं किया जाना चाहिए। असहमति को शालीनता के साथ तथा संसदीय व्यवस्थाओं की सीमाओं और मापदंडों के अंदर व्यक्त किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में ‘बहस’, ‘असहमति’ तथा ‘निर्णय’ शामिल होना चाहिए न कि ‘व्यवधान’। उन्होंने कहा कि दसवीं लोक सभा का 9.95 प्रतिशत समय, ग्यारहवीं लोक सभा का 5.28 प्रतिशत समय, बारहवीं लोक सभा का 11.93 प्रतिशत समय, तेरहवीं लोक सभा का 18.95 प्रतिशत समय, चौदहवीं लोक सभा का 19.58 प्रतिशत समय तथा पंद्रहवीं लोक सभा (चौदहवें सत्र तक) का खेदजनक 37.77 प्रतिशत समय व्यवधानों की बलि चढ़ गया। यह अत्यधिक दुखद है कि व्यवधानों के परिणामस्वरूप बर्बाद होने वाले समय में पिछले दो दशकों से लगातार वृद्धि हो रही है।
राष्ट्रपति ने राजनीतिक दलों तथा हमारे देश के नेताओं का, मिल-बैठकर इस बात पर चिंतन करने का आह्वान किया कि संसद तथा विधान सभाओं का व्यवधान रहित संचालन कैसे सुनिश्चित हो तथा क्या इस उद्देश्य से मौजूदा नियमों में संशोधन की जरूरत है। सांसदों को विधि निर्माण अपना सबसे पहला दायित्व समझना चाहिए। 1992-57 के दौरान, पहली लोक सभा में 677 बैठकें हुईं और इनमें 319 विधेयक पारित हुए। इसके मुकाबले 2004-2009 के दौरान, चौदहवीं लोक सभा में 332 बैठकें हुईं तथा इसमें केवल 247 विधेयक पारित हुए। उन्होंने कहा कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि पूरे देश में विधि निर्माण पर लगाया जाने वाला समय लगातार घट रहा है। विधि निर्माण, धन तथा वित्त के मामलों में अत्यधिक सावधानी बरती जानी जरूरी है।
राष्ट्रपति ने कहा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के लिए जनता सदैव राजनीतिक प्रणाली के केंद्र में थी। उनका मानना था कि नेता तथा राजनीतिक वर्ग का अस्तित्व जनता की सेवा है न कि इसका उलट। राष्ट्रपति ने कहा कि लोकतंत्र में संसद, सुशासन तथा सामाजिक-आर्थिक बदलाव का बुनियादी उपकरण है। सांसदों को इसे यथोचित सम्मान देना चाहिए तथा इसी के साथ इसकी क्षमता को समझना चाहिए। सांसदों तथा विधायकों को जनता का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलने को बड़े सौभाग्य तथा सम्मान की बात मानना चाहिए। सांसदों को हर समय जनता की समस्याओं के प्रति संवेदनशील तथा सक्रिय होकर कार्य करना चाहिए।
राष्ट्रपति ने कहा कि जो भी व्यक्ति किसी पद पर है, उसे उस पद पर बैठने के लिए जनता ने आमंत्रित नहीं किया है। हर-एक ने मतदाताओं के पास जाकर उनसे मत तथा समर्थन मांगा है। जनता द्वारा राजनीतिक प्रणाली और चुने हुए लोगों पर जो भरोसा जताया है, उसे तोड़ा नहीं जाना चाहिए।
राष्ट्रपति ने कहा कि लोकपाल बिल के लिए आंदोलन ने दिखाया है कि नागरिक समाज भी विधि निर्माण की शुरुआत की पहल कर सकता है। भारतीय राजनीति में पहली बार, विधि निर्माण संघीय अथवा राज्य विधायिका के विशेषाधिकार से बाहर हुआ है। नागरिक समाज ने दिखा दिया है कि विधि निर्माण प्रक्रिया में उनकी महत्त्वपूर्ण और कारगर भूमिका है तथा इसने संसदीय राजनीति में एक नया आयाम जोड़ा।
राष्ट्रपति ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों तथा विद्यार्थियों का आह्वान किया कि वे संसदीय लोकतंत्र के संदर्भ में नेहरू जी के आदर्शों तथा उनकी कार्यों को परिचर्चा के केंद्र में लाने में प्रमुख भूमिका निभाएं। उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे संसदी चुनाव नजदीक आ रहे हैं, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नेहरू-काल के जज्बे तथा परिपाटियों को पुन: स्थापित करने के लिए एक अनुकूल परिवेश तैयार करने के लिए बौद्धिक दृष्टिकोण तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।
यह विज्ञप्ति 1430 बजे जारी की गई।