उपसाला विश्वविद्यालय, स्वीडन में ‘‘टैगोर और गांधी : क्या विश्व शांति के लिए उनकी समसामयिक प्रासंगिकता है?’’ विषय पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

Stockholm, Sweden : 02-06-2015

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Public Lecture By The President Of India, Shri Pranab Mukherjee At Uppsala University, Sweden On The Topic ‘tagore Gandhi: Do They Have Contemporary Relevance For Global Peace?’

उपसाला विश्वविद्यालय में आकर भारत के राष्ट्रकवि और साहित्य के लिए प्रथम गैर यूरोपीय नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा भारत के राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी की समसामयिक प्रासंगिकता पर अपने विचार प्रकट करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

मैंने इस सुंदर देश में दो अत्यंत व्यस्त दिन गुजारे हैं। हमारे दोनों देश मजबूत बंधनों से बंधे हैं, जिनमें लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति दृढ़ समर्पण तथा वैश्विक शांति और अहिंसा के लिए बुनियादी प्रतिबद्धता शामिल है।

वैश्विक शांति एक ऐसा मूल्य था जिसका टैगोर और महात्मा गांधी दोनों ने समर्थन किया था। इसलिए इस विषय पर उपसाला विश्वविद्यालय में व्याख्यान विशेषकर दो कारणों से प्रासंगिक है :

प्रथम, महात्मा गांधी और हमारे देश के शेष लोगों द्वारा गुरुदेव अथवा सम्माननीय शिक्षक के रूप में संबोधित टैगोर ने 1921 और 1926 में स्वीडन की यात्राएं की थी। 1921 में अपनी यात्रा के दौरान वे उपसाला भी आए थे, जहां वे नोबेल विजेता आर्चबिशप नाथन सोडरब्लोम से मिले थे तथा उन्होंने ऑडिन्सलण्ड अर्थात् वाइकिंग काल के कब्रिस्तान को देखा। इसके बाद सार्वभौमिक भावना के तहत वे कैथीड्रल गए थे।

मैं, उपसाला विश्वविद्यालय द्वारा अपने विदेशी भाषा विभाग में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की आवक्ष प्रतिमा स्थापित करने के लिए मेरे शिष्टमंडल, मेरी तथा वास्तव में मेरे पूरे देश की ओर से उनके प्रति आभार व्यक्त करता हूं। यह आवक्ष प्रतिमा टैगोर को नोबेल प्राप्ति की शताब्दी का उत्सव है तथा उपसाला के साथ उनके विशेष रिश्ते की याद के रूप में स्थापित है। मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि टैगोर की 27 कृतियों का स्वीडिश भाषा में रूपांतरण हो चुका है उनकी चारों ओर प्रशंसा हुई है।

दूसरा कारण, जिसके चलते मुझे विश्व शांति के विषय पर आपको संबोधित करते हुए विशेष प्रसन्नता हो रही है, यह है कि आपके इस गौरवपूर्ण अध्ययन केंद्र ने स्वीडन के एक महान व्यक्तित्व तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वितीय महासचिव डाग हैमर्सक्जोल्ड को शिक्षा दी। वह 47 वर्ष तथा 255 दिनों की आयु में इस पद को धारण करने वाले सबसे कम आयु के व्यक्ति थे। उन्होंने 1953 से लेकर 12सितंबर 1960 तक, जब कांगों में एक विमान दुर्घटना में उनकी दुखद मृत्यु हुई, दो कार्यकालों के लिए यह पद धारण किया था। शांति की दिशा में उनके योगदान से उन्हें दुनिया भर में सम्मान तथा लोकप्रियता प्राप्त हुई।

मुझे नहीं मालूम कि आपमें से कितने लोगों को यह ज्ञात होगा कि इस महान कूटनीतिज्ञ को व्यापक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त था। संयुक्त राष्ट्र संघ को उनकी एक देन ‘शांति कक्ष’ की स्थापना थी जो आज भी मौजूद है। डाग हेमर्सक्जोल्ड यह मानते थे कि बाह्य शांति की प्राप्ति की दिशा में पहला कदम आंतरिक शांति की प्राप्ति है। उनको मालूम था कि इस खोज की दिशा में ध्यान तथा शांति महत्त्वपूर्ण शर्तें हैं।

देवियो और सज्जनो,

संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन का संविधान निम्न शब्दों के साथ आरंभ होता है,

‘‘क्योंकि युद्ध की शुरुआत मनुष्य के मन से होती है, इसलिए मनुष्य के मन में ही शांति की सुरक्षा दीवारों का निर्माण किया जाना चाहिए;

संपूर्ण मानवीय इतिहास के दौरान, विश्व के लोगों की एक-दूसरे की परंपराओं और जीवन के बारे में अनभिज्ञता ही उस संदेह और अविश्वास का सामान्य कारण रहा है जिसके चलते उनके मतांतर बहुधा युद्धों में तब्दील हुए हैं...’’

ये शब्द आज भी उतने ही सत्य प्रतीत होते हैं जितने 1994में यूनेस्को की स्थापना के समय थे।

स्थाई शांति केवल मनुष्य की नैतिक तथा बौद्धिक एकजुटता के आधार पर ही स्थापित हो सकती है। केवल राजनीतिक एवं आर्थिक सद्भावनाओं से ही स्थाई शांति स्थापित नहीं हो पाएगी। शांति केवल इस विश्वास से ही स्थापित हो सकती है कि मानव मात्र एक है, और टैगोर के शब्दों में :

‘‘जहां विश्व संकीर्ण घरेलू दीवारों से टुकड़ों में न बंट गया हो।’’

देवियो और सज्जनो,

रवीन्द्रनाथ टैगोर नवजागरण काल के व्यक्ति थे तथा ऐसे व्यक्ति इतिहास में कम ही पाए जाते हैं। वे न केवल उस समय को वाणी देते हैं जिसमें वे पैदा हुए हैं वरना बहुत से ऐसे जटिल प्रश्नों को भी वाणी प्रदान करते हैं जो भौगोलिक सीमाओं से परे विश्व भर के सभी राष्ट्रों और समुदायों के लिए प्रासंगिक होते हैं।

टैगोर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वह केवल कवि और लेखक ही नहीं थे वरन् संगीतकार, चित्रकार, दार्शनिक तथा शिक्षाविद् भी थे। वह उस समय में हमारे देश के सबसे सटीक दूत थे जब बाहरी विश्व को भारत के बारे में कम जानकारी थी। अपने पूरे जीवनकाल के दौरान वह विभिन्न सभ्यताओं के बीच उनकी संस्कृति तथा साहित्य, जो मानवीयता के सार्वभौमिक मूल्यों को प्रतिबिंबित करते हैं, के बारे में जानकारी के आदान-प्रदान के माध्यम से आपसी संपर्क बढ़ाने के विचार से आकर्षित रहे। जाति, वर्ग अथवा रंग की बेड़ियों से त्रस्त विश्व में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विविधता, खुलापन, सहिष्णुता तथा सह-अस्तित्व पर आधारित ऐसी विश्व व्यवस्था के लिए अंतरराष्ट्रीयवाद को प्रोत्साहन दिया था। उन्होंने सत्य और सौहार्द तथा प्रेम और करुणा के धर्म का उपदेश देने के लिए दूर-दूर तक यात्राएं की।

‘राष्ट्रवाद’ पर टैगोर के विचार संकीर्णता, जातीय भेदभाव तथा सामाजिक वर्गीकरण के प्रति उनकी अरुचि को व्यक्त करते हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि विश्व शांति तब तक स्थापित नहीं हो सकती जब तक बड़े और शक्तिशाली राष्ट्र अपनी सीमाओं के विस्तार तथा छोटे देशों के ऊपर नियंत्रण की अपनी इच्छा पर नियंत्रण नहीं कर लेते। उनकी नजर में, युद्ध उस उग्र पश्चिमी भौतिकवाद का परिणाम था जो 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों में आध्यात्मिकता रहित विज्ञान से विकसित हुआ था। कवि के अनुसार,पूर्व और पश्चिम को एक समान धरातल पर तथा समान सहयोगी की शर्त पर मिलकर कार्य करना होगा : ‘‘जहां ज्ञान दो धाराओं में—पूर्व से तथा पश्चिम से—बहता हो तथा उनकी एकात्मता में उस सत्य की एकात्मकता का आभास होता हो जो संपूर्ण ब्रह्मांड में मौजूद है तथा उसे बनाए हुए है’’ उन्होंने सारगर्भित शब्दों में कहा था, ‘‘विश्व को बुद्ध ने जीता था एलेक्जेंडर ने नहीं’’।

जहां टैगोर विश्व शांति के बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पथप्रदर्शक थे वहीं महात्मा अथवा महान आत्मा को, जिन्होंने विश्व को दिखाया कि सत्याग्रह को और अहिंसा को एक अधिक न्यायपूर्ण विश्व के निर्माण के लिए प्रयोग किया जा सकता है। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में हिंसा के विरुद्ध सत्य का प्रयोग करते हुए अपना प्रयोग शुरू किया था तथा इसके बाद भारत में एक ऐसे शांति आंदोलन को खड़ा करने के लिए इसको विकसित किया जैसा पहले कभी नहीं देखा गया था। यह आंदोलन न केवल भारत की स्वतंत्रता में परिणत हुआ बल्कि इसने विश्व भर में उपनिवेशवाद के सफाए का आरंभ किया। मुझे श्रोताओं को यह बताते हुए खुशी हो रही है कि इस वर्ष 9 जनवरी को भारत में हमने गांधी जी की दक्षिण अफ्रीका से वापसी की 100वीं वर्षगांठ मनाई है।

गांधी जी ने कहा था, ‘‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’’। हमारी पूर्व प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी ने गांधी जी की रचनाओं के भव्य संकलन—‘संपूर्ण गांधी वांङ मय’ की प्रस्तावना में इन शब्दों के महत्त्व पर प्रकाश डाला था। उन्होंने लिखा था, ‘‘वह ऐसे लोगों में से थे जो वही बोलते थे जो सोचते थे तथा वही करते थे जो बोलते थे। उन कुछ लोगों में से जिनकी कथनी और करनी के बीच कोई छाया नहीं थी। उनके वचन ही कर्म थे तथा उन्होंने एक ऐसे आंदोलन और देश खड़ा किया जिसने अनगिनत लोगों का जीवन बदल डाला’’। आखिर वह कौन सी छाया है जिसकी बात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कर रही थी? यह गैर सच्चाई तथा झूठ की छाया है। केवल वही व्यक्ति अपने जीवन को अपना संदेश कह सकता है जिसने सच्चाई को ईश्वर माना हो।

अहिंसा के अग्रदूत, महात्मा गांधी का भी मानववाद तथा मन के खुलेपन में उतना ही दृढ़ विश्वास था जितना टैगोर का था। वह कहते थे, ‘‘मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों ओर दीवारें खड़ी हो जाएं तथा मेरी खिड़कियां बंद कर दी जाएं। मैं चाहता हूं कि सारे विश्व की संस्कृतियों की बयारें ज्यादा से ज्यादा आजादी से मेरे घर में प्रवाहित हों। परंतु मैं नहीं चाहूंगा कि इनमें से कोई मेरे पांव उखाड़ दे। मैं दूसरे लोगों के घर में किसी घुसपैठिए,भिखारी अथवा गुलाम की तरह नहीं रहना चाहूंगा।’’

टैगोर की तरह ही गांधी जी के भी प्रकृति के प्रति तथा प्रकृति के साथ मानवीय अन्त:प्रज्ञा की गूढ़, अंतरंग तथा सद्भावनापूर्ण संबंधों के रूप में स्थापना के प्रति चिरंतन सरोकार थे। एक अन्य महत्त्वपूर्ण संदेश गांधी जी ने यह दिया था कि बिना नैतिकता के अर्थशास्त्र निरर्थक है। यह साधारण से निषेध ने एक ऐसे नैतिक ढांचे का निर्माण किया है जिसके तहत मानवीय विदग्धता को कार्य करना है। मानवीय लोलुपता की सीमा का निर्धारण आंतरिक आवश्यकता से करना होगा न कि बाहरी दबावों से। यह आंतरिक आवश्यकता, जिसे उन्होंने ‘महीन सी आवाज’का सुंदर नाम दिया था, हम सभी को उपलब्ध है, सिर्फ हमें उसको सुनने तथा उसके आदेश का पालन करने की क्षमता को संवारना होगा।

नैतिकता को अर्थशास्त्र के केंद्र में रखकर गांधी जी ने हमें एक ऐसा विचार दिया है जिसका महत्त्व कालातीत है। यह भरोसे पर आधारित सरपरस्ती का विचार है जो एक विशिष्ट मानवीय क्षमता है। हम सभी भरोसे पर तथा उसके माध्यम से जीते हैं। गांधी जी ने हमें सरपरस्त बनने तथा अपने दिलों तथा दूसरों के दिलों की अच्छाई पर भरोसा करने को कहा। यह अच्छाई हमें उस सबका सरपरस्त के रूप में कार्य करने में सहायता देगी जो हमारा है और जो हमारा नहीं भी है।

महात्मा गांधी के लिए अहिंसा एक पद्धति अथवा साधन नहीं था। इसके तहत, जिन्हें हम चुनौती दे रहे हैं उन सहित, दूसरों की मानवीयता को सम्मान देने की जरूरत होती है। अहिंसा इस विचार पर आधारित है कि भले ही कुछ समय के लिए कोई कितना भी दिग्भ्रमित अथवा दमनकारी क्यों न हो जाए वह अंतत: सच्चाई को स्वीकार करने और उस पर चलने में सक्षम होता है। अहिंसा केवल किसी को चोट न पहुंचाना नहीं है। वह यह सक्रिय शक्ति है जो मैं और तुम के बीच के अंतर को समाप्त करके दूसरे को अपना लेती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा गांधी जी दोनों यह स्वीकार करते थे कि अहिंसा का उपयोग करके अंतत: अन्यायी और दमनकारी अन्याय तथा दूसरों को कष्ट देने की जरूरत और इच्छा से मुक्त होता है।

इतिहास में ऐसा मुश्किल से होता है कि दो द्रष्टा, दो ऐसे व्यक्ति निरंतर संवाद में हों जो न केवल अपने समय को बल्कि भावी पीढ़ियों को भी प्रभावित करने में सक्षम हों। कवि टैगोर तथा महात्मा गांधी की एक साथ उपस्थिति एक ऐसा विशिष्ट वरदान है जो आधुनिक भारत को प्राप्त हुआ तथा हमारा विश्वास है कि इस सौभाग्य के कारण हम पर विभिन्न धर्मों, विश्वासों,संस्कृतियों तथा सभ्यताओं के बीच संवाद को बढ़ावा देने में सक्रिय सहभागिता करने की विशेष जिम्मेदारी आ गई है।

देवियो और सज्जनो,

अपनी 1.25 बिलियन जनसंख्या के साथ भारत सदियों से विभिन्न जातीयताओं और धर्मों की संगम स्थली रही है। हमारा स्पष्ट मत है कि स्थाई शांति की स्थापना केवल पारस्परिक सम्मान की आधारशिला पर ही हो सकती है, जिसका टैगोर और गांधी जी दोनों द्वारा निरंतर और खुलकर समर्थन किया गया था।

महात्मा गांधी ने अपने विचारों और कार्यों से मार्टिन लूथर किंग जूनियर, लेक वालेसा, स्टीव बाइको, नेल्सन मंडेला, डेस्मंड टूटू, दलाई लामा तथा आंग सान सू की सहित बहुत से नेताओं को प्रभावित किया था। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने यहां तक कहा था कि, ‘‘मसीह ने जज्बा और प्रेरणा प्रदान की थी जबकि गांधी ने उनका उपाय दिया’’। एक दूसरे मौके पर उन्होंने कहा था : यदि मानवता को आगे बढ़ाना है तो गांधी का कोई विकल्प नहीं है। वह सदैव शांति और सद्भावनापूर्ण विश्व की ओर विकसित होती मानवता के स्वप्न से प्रेरित होकर जिए, चिंतन करते रहे तथा कार्य करते रहे।’’

महात्मा जी ने एक बार पूछा था, ‘‘मृतकों,अनाथों अथवा बेघर व्यक्तियों को इससे क्या फर्क पड़ सकता है कि अविचारित विध्वंस अधिनायकवाद के नाम पर किया गया कि स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र के पवित्र नाम पर’’।

देवियो और सज्जनो, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि असहिष्णुता, कट्टरता तथा आतंकवाद से ग्रस्त विश्व के आगे बढ़ने के लिए टैगोर और गांधी जी द्वारा प्रचारित सत्य, खुलेपन,संवाद तथा अहिंसा के विचार सबसे अच्छी राह दिखाते हैं। उनके मूल्य और परिकल्पनाएं हताश होकर, संघर्षों और तनावों के स्थाई समाधान के लिए प्रयासरत विश्व में आज जितनी प्रासंगिक हैं उतनी पहले कभी नहीं थी। इसलिए इन आदर्शों को दूर-दूर तक, विशेषकर युवाओं के बीच फैलाने की जरूरत है।

मैं, उपसाला विश्वविद्यालय को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के साथ भारतीय अध्ययन के लिए एक पीठ की स्थापना के करार पर हस्ताक्षर करने के लए धन्यवाद देता हूं और मुझे विश्वास है कि इससे स्वीडन की जनता के बीच टैगोर और महात्मा गांधी के जीवन और उनके कार्यों के बारे में जानकारी फैलाने में सहायता मिलेगी।

मुझे, टैगोर द्वारा नोबेल पुरस्कार जीतने पर स्वीडिश अकादमी के भेजे गए उनके सुप्रसिद्ध टलीग्राम से कुछ शब्दों को उद्धरित करते हुए अपना व्याख्यान समाप्त करने की अनुमति दें। मैं आप सभी और हर एक के प्रति‘‘सद्भावना के उस अंतराल के लिए हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूं जिसने दूर को नजदीक कर दिया तथा अजनबी को अपना भाई बना लिया है’’।

निष्कर्ष के रूप में, यह समझने की इच्छा कि दूर और भिन्न क्या है,सही मायने में वैश्विक शांति सुनिश्चित करने का मार्ग है।

धन्यवाद।

जय हिंद!

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