भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में सम्बोधन
नई दिल्ली : 05.12.2023
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अद्य श्रीलालबहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयस्य दीक्षान्त समारोहे उपस्थिता अहम् नितराम् प्रसीदामि।
अभी हमने पूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का सम्बोधन सुना जिसमें उन्होंने संस्कृत के महत्व का निरूपण किया है तथा इस संस्थान की एक आदर्श अंतर-राष्ट्रीय संस्थान के रूप में परिकल्पना व्यक्त की है। आप सब को इस संस्था के महान संस्थापक श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के सपनों को पूरा करना है। यह संस्थान प्रगति पथ पर और तेजी से आगे बढ़ सके इसी सोच के साथ केंद्र सरकार ने अप्रैल 2020 में इस संस्थान को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान किया।
देवियो और सज्जनो,
संस्कृत भाषा में एक लोकप्रिय कथन है:
भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतम् संस्कृतिस्तथा
इसका भावार्थ यह है कि भारत की प्रतिष्ठा के दो आधार हैं, देव-वाणी संस्कृत भाषा और हमारी समृद्ध संस्कृति।
संस्कृत भाषा हमारी संस्कृति की संवाहिका रही है, हमारे देश की प्रगति का आधार रही है और यह भाषा हमारी पहचान भी रही है। संस्कृत भाषा में हजारों वर्षों से निरंतर चली आ रही ज्ञान-परंपरा का अजस्र प्रवाह दिखाई देता है।
संस्कृत का व्याकरण इस भाषा को अतुलनीय वैज्ञानिक आधार देता है। 14 माहेश्वर सूत्रों की आधारशिला पर अष्टाध्यायी के रूप में संस्कृत व्याकरण का सुदृढ़ प्रासाद पाणिनि द्वारा निर्मित किया गया। यह व्याकरण एक menu driven software की तरह सु-सम्बद्ध है। मैं कहना चाहूंगी कि संस्कृत-व्याकरण मानवीय प्रतिभा की अप्रतिम उपलब्धि है। इस पर हमें गर्व होना चाहिए।
संस्कृत भाषा को कल्प, शिक्षा, छंद, निरुक्त, व्याकरण और ज्योतिष जैसे वेदांगों तथा प्रचुर ज्ञान-राशि से समृद्ध अन्य विषयों का महासागर कहा जा सकता है। यह भाषा ज्ञान-विज्ञान-रत्नाकर है। इसमें जितना विस्तीर्ण और गहन अवगाहन किया जाएगा उतने ही अमूल्य रत्न प्राप्त होंगे। यहां के विद्यार्थियों को संस्कृत में उपलब्ध शास्त्रों का अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त है। इसके लिए मैं सभी विद्यार्थियों को बधाई देती हूं।
प्यारे विद्यार्थियो,
जिस तरह आज विश्व में कई university towns स्थापित हैं वैसे ही विद्या केंद्र प्राचीन भारत में काशी, तक्षशिला और कांची जैसे स्थानों पर विद्यमान थे। लगभग एक ही कालखंड के दौरान, तक्षशिला में पाणिनि ने व्याकरण का निर्माण किया, कौटिल्य ने अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र के जरिए राज्य और समाज व्यवस्था से जुड़े कालजयी ग्रंथ लिखे तथा चरक ने औषधि-विज्ञान की आधारभूत संहिता रची।
अनेक मूर्धन्य पाश्चात्य विद्वानों ने यह उल्लेख किया है कि प्लेटो और प्लोटिनस जैसे विचारकों के ग्रन्थों की शैली, उनसे बहुत पहले लिखे गए उपनिषदों की शैली से मिलती-जुलती है। इसे विश्व स्तर पर संस्कृत की सौगात कहा जा सकता है। योग-पद्धति भी विश्व समुदाय को संस्कृत परंपरा की अमूल्य भेंट है।
संस्कृत पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था में गुरु अथवा आचार्य का सर्वाधिक महत्व रहा है। हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी अध्यापकों के केंद्रीय महत्व को रेखांकित करती है। मैं आशा करती हूं कि हमारी परंपरा के अनुरूप आज दीक्षांत समारोह के अवसर पर विद्यार्थी अपने अध्यापकों के प्रति ऋणी-भाव और कृतज्ञता की भावना से आगे बढ़ने का संकल्प लेंगे तथा साथ ही, अध्यापक-गण माता-पिता-अभिभावक की तरह विद्यार्थियों के आजीवन कल्याण हेतु आशीर्वाद एवं प्रेरणा व्यक्त करेंगे और उसे बनाए रखेंगे।
ब्रह्म पुराण में सत्य ही कहा गया है:
धन्यास्ते भारते वर्षे, जायन्ते ये नरोत्तमा:
अर्थात
वे श्रेष्ठ लोग धन्य हैं जिनका जन्म भारत वर्ष में होता है। इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को राष्ट्र-गौरव का यह भाव प्रसारित भी करना है तथा उसे और मजबूत भी बनाना है। राष्ट्र-गौरव का यह भाव आप सब के कार्यकलापों में भी परिलक्षित होना चाहिए।
प्यारे विद्यार्थियो,
संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्नि-मित्रम् के आरंभ में जो अंतर्दृष्टि व्यक्त की है वह आप सब के लिए भी सर्वथा उपयोगी है:
पुराणमित्येव न साधु सर्वम्
अर्थात
मात्र पुरानी होने के कारण कोई बात या वस्तु उचित और सुंदर नहीं हो जाती है और केवल नई होने के कारण कोई बात या वस्तु गलत या खराब नहीं हो जाती है। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग करके श्रेष्ठ वस्तु को अंगीकार करते हैं। नासमझ लोग दूसरों के कहने पर किसी बात या वस्तु को अपनाते हैं या नकारते हैं। इसलिए, आप सब विद्यार्थी-गण इस बात का ध्यान रखें कि हमारी परम्पराओं में जो कुछ विज्ञान-सम्मत तथा उपयोगी है उसे स्वीकार करना है और जो कुछ रूढ़िगत, अन्यायपूर्ण और अनुपयोगी है उसे अस्वीकार करना है। संस्कृत में हंस के नीर-क्षीर विवेक की सराहना की गई है। यह विवेक सदैव जागृत रखना चाहिए।
देवियो और सज्जनो,
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के Vision का यह सार तत्व है कि हमारे युवा विद्यार्थी भारतीय परम्पराओं में निष्ठा रखते हुए 21वीं सदी के विश्व में अपना समुचित स्थान बनाएं। हमारे यहां, सदाचार, धर्माचरण, परोपकार तथा सर्व-मंगल जैसे जीवन-मूल्यों पर आधारित प्रगति में ही शिक्षा की सार्थकता मानी गई है। मैं तो यह मानती हूं कि जो व्यक्ति सदैव दूसरे के हित में लगे रहते हैं उनके लिए संसार में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास ने सर्व-कल्याण के द्वारा आत्म-कल्याण की हमारी संस्कृत-परंपरा को अवधी भाषा में निबद्ध करते हुए कहा है:
परहित बस जिनके मन माहीं,
तिन कंह जग दुर्लभ कछु नाहीं।
सर्व-समावेशी प्रगति, किसी भी संवेदनशील समाज की पहचान है। मैं समझती हूं कि वेद-वेदांग का अध्ययन-अध्यापन करने वाले इस संस्थान में गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, रोमशा, लोपामुद्रा और मंडन मिश्र की भार्या उभय भारती जैसी विदुषी महिलाओं के विषय में विशेष जानकारी भी है और सम्मान भी। इसलिए, मैं चाहूंगी कि इस विश्वविद्यालय में छात्राओं को और अधिक प्रोत्साहन मिले तथा उन्हें अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने के पर्याप्त अवसर मिलें। हाल ही में, एक अन्य शिक्षण संस्थान में भी मैंने छात्रों की तुलना में छात्राओं की कम संख्या तथा पदक विजेता विद्यार्थियों में भी उनकी कम संख्या देखकर यही सुझाव दिया। अन्य सभी संस्थानों में, यहां तक कि तकनीकी संस्थानों में भी, पदक विजेताओं में अब छात्राओं की संख्या छात्रों से अधिक हुआ करती है। आज यहां मंच पर आकर पदक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में एक भी बेटी नहीं थी। मुझे विश्वास है कि विश्वविद्यालय समुदाय द्वारा शीघ्रता से बेटियों को आगे बढ़ाने के समुचित प्रयास किए जाएंगे तथा यह स्थिति बदली जाएगी।
प्यारे विद्यार्थियो,
संस्कृत साहित्य से परिचित होने के कारण आप सब यह जानते हैं कि हमारे महानतम कवियों में अपना परिचय छिपाने की आदत थी। इस विश्वविद्यालय में ज्योतिष का अध्ययन-अध्यापन भी किया जाता है। ज्योतिष के अध्येता यह जानते हैं कि ‘सूर्य सिद्धान्त’ जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ के लेखक का नाम आज तक अज्ञात है। ऐसी अहंकार-विहीन उदात्त जीवन-दृष्टि ने ही वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट और जयदेव जैसे कालजयी महाकवि प्रदान किए हैं।
महर्षि ऑरोबिंदो के विचारों का मुझ पर और मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा है। महान दार्शनिक श्री ऑरोबिंदो ने देश-प्रेम के भी अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किए थे। संस्कृत में उन्होंने भवानी-भारती नामक राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत काव्य लिखा था। श्री ऑरोबिंदो कहते थे कि संस्कृत हमारे महान अतीत को जानने के साथ-साथ भारत के भविष्य निर्माण की भाषा भी है। उन्होंने कहा था:
“The vital question is how we are to learn and make use of Sanskrita and the indigeneous languages so as to get to the heart and intimate sense of our own culture and establish a vivid continuity between the still-living power of our past and the yet uncreated power of our future.”
मैं आशा करती हूं कि ‘अमृत काल’ के दौरान भारत के स्वर्णिम भविष्य के निर्माण में इस विश्वविद्यालय के आप सभी विद्यार्थी-गण श्री ऑरोबिंदो की परिकल्पना के अनुरूप संस्कृत के माध्यम से अर्जित ज्ञान और शिक्षा का प्रभावी उपयोग करेंगे। मैं आप सब के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूं और ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि आपका मार्ग निष्कंटक रहे:
शुभास्ते संतु पंथान:।
धन्यवाद!
जय हिन्द!
जय भारत!