सेंट जोसेफ्स स्कूल के 125वें वर्ष संबंधी समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल : 10.11.2013
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मुझे प्रख्यात सेंट जोसेफ्स स्कूल के 125वें वर्ष संबंधी समारोहों के अवसर पर दार्जिलिंग में आकर बहुत प्रसन्नता हो रही है। मैं आपको आपकी ऐतिहासिक यात्रा में इस विशिष्ट उपलब्धि की प्राप्ति के लिए बधाई देता हूं। इस प्रख्यात विद्यालय ने वर्ष 1888 से इस देश, इसकी जनता तथा इससे अधिक करीब से इसके विद्यार्थियों के भाग्य को बदलते देखा है।
स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू अक्सर कहा करते थे, ‘‘यदि भारत को एक महान राष्ट्र बनाना है तो इसकी शुरुआत उसकी कक्षाओं से होनी चाहिए।’’ सेंट जोसेफ्स स्कूल, नॉर्थ प्वाइंट तथा सेंट जेवियर्स कोलकाता, जहां गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अध्ययन किया, सेंट जेवियर्स मुंबई, एक्सएलआरआई जमशेदपुर और लोयोला कॉलेज, चेन्नै जैसी जेसुइट फादर्स द्वारा संचालित संस्थाएं समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं और इन्होंने हमारे राष्ट्र के निर्माण में योगदान दिया है। मुझे बताया गया है कि सेंट जेवियर्स कोलकाता और सेंट जेवियर्स मुंबई के संस्थापक भी वही हैं जो इस विद्यालय के हैं अर्थात बेल्जियम मूल के एक समर्पित पादरी, फादर हेनरी डेपेल्चिन। वास्तव में वह एक असाधारण व्यक्ति थे जो अपनी परिकल्पना, नेतृत्व, तपस्या तथा ईश्वर में दृढ़ आस्था के बल पर एक प्रभावशाली धरोहर छोड़ गए हैं।
एक कहावत है कि ‘वाटरलू का युद्ध इटोन के मैदान में जीता गया था।’ भारत के कल का निर्माण उत्तम विद्यालयों की भट्टियों, उनकी कक्षाओं, उनके खेल के मैदानों तथा उनकी सह-पाठ्यक्रम गतिविधियों में होता है। मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि इस स्कूल को ओपरेट्टा तथा संगीत की महान नाट्य परंपरा और वाद-विवाद, स्काउटिंग, एनसीसी, पर्वतारोहरण तथा नेतृत्व विकास सेवा का गौरव हासिल है। मैं यह भी समझता हूं कि यहां विद्यार्थी उन शरद शिवर में भाग लेते हैं जहां आस-पास के जरूरतमंद बच्चों को विद्यालय में बुलाकर उन्हें पढ़ाया जाता है और नि:शुल्क खाना, छात्रवृत्ति तथा सभी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। यह जरूरी है कि हमारे बच्चों में छोटी आयु में ही समाज में वंचितों के प्रति सहृदयता तथा सरोकार पैदा किया जाए ताकि वे परिवर्तन के ऐसे कारक बन सकें तो भारत की कायापलट करके उसे बेहतर भविष्य की ओर ले जा सकें। जहां बच्चों को स्वतंत्रता दी जाती है तथा उन्हें अपने कौशल, दक्षता, दृष्टिकोण तथा मूल्यों को विकसित करने की चुनौती मिलती है,ऐसे ही कार्यकलापों के माध्यम से सच्ची शिक्षा प्राप्त होती है ।
शिक्षा स्वयं जीवन का पर्याय है। आधुनिक समय में प्रासंगिक बने रहने के लिए निरंतर अनुकूलन करना होगा तथा नया स्वरूप ग्रहण करना होगा। हमारी शिक्षा प्रणाली को विद्यालय तथा विश्वविद्यालय दोनों ही स्तरों पर उन्नत करना होगा।
भारत ने अब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू कर दिया है जो एक ऐसा ऐतिहासिक कानून है जिसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि 14 वर्ष तक की आयु का प्रत्येक बच्चा स्कूल जाए। परंतु केवल स्कूल में उपस्थित होना ही काफी नहीं है। प्रदान की जानेवाली शिक्षा गुणवत्तापूर्ण होनी चाहिए और शिक्षक अच्छी तरह प्रशिक्षित होने चाहिएं। इस प्रणाली में बच्चों को इस तरह तैयार किया जाना चाहिए जो न केवल पढ़ाई में अच्छे हों बल्कि सभ्यतागत मूल्यों से ओतप्रोत हों तथा समाज की सेवा करने की ऊर्जा और इच्छा से भरे हुए हों।
अपने संविधान को अंगिकार करते समय हमने बच्चों को नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की शपथ ली थी। यह प्रतिबद्धता संविधान के अनुच्छेद 45 तथा राज्य के नीतिनिर्देशक सिद्धांतों में उल्लिखित है। इसे 2002 में 86वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से संविधान के अनुच्छेद 21ए को शामिल करके, मौलिक अधिकार बना दिया गया था। इस प्रकार 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम हमारी उस प्रतिबद्धता को पूर्ण करता है जो हमने 1950 में ली थी।
देवियो और सज्जनो, शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है। महिलाओं और बच्चों पर पाशविक आक्रमण की कुछ हाल ही की घटनाओं ने देश की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया है। ये दुर्भाग्यशाली घटनाएं हमें आत्मनिरीक्षण करके अपने समाज में हो रहे नैतिक मूल्यों के हृस को रोकने के लिए उपायों को तलाशने की जरूरत को रेखांकित करती है। सेंट जोसेफ्स जैसे विद्यालयों को हमारे समय की नैतिक चुनौतियों का सामना करने तथा हमारी नैतिकता की दिशा के पुननिर्धारण में आगे आना चाहिए तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अपनी मातृभूमि के लिए प्रेम; दायित्वों का निर्वाह; सभी के प्रति करुणा; बहुलवाद के प्रति सहनशीलता; महिलाओं और बुजुर्गों के प्रति सम्मान; जीवन में सच्चाई और ईमानदारी, आचरण में अनुशासन तथा आत्मसंयम, तथा कार्यों में उत्तरदायित्व को हमारी सभ्यतागत मूल्यों का युवा मस्तिष्कों में अच्छी तरह समावेश हो।
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि शिक्षा से चरित्र का निर्माण होना चाहिए। उन्होंने एक बार कहा था ‘शिक्षा सूचना की वह मात्रा नहीं है जो हम अपने मस्तिष्क में भरते हैं.... हमें जीवन के निर्माण, मानव का निर्माण, चरित्र का निर्माण तथा विचारों को आत्मसात करना चाहिए। यदि आपने पांच विचारों को आत्मसात् कर लिया है और उन्हें अपना जीवन और चरित्र बना लिया है तो आपने उस व्यक्ति से कहीं अधिक शिक्षा प्राप्त कर ली है जिसने एक पूरा पुस्तकालय रट डाला है...।’
हमें यह जान लेना चाहिए कि हमारी शिक्षा प्रणाली की उपलब्धि केवल उपाधि प्राप्त करने वालों की संख्या से नहीं बल्कि ऐसे जागरूक नागरिकों की विशाल संख्या से नापी जाएगी जो मानवीयता का सम्मान करें और घृणा, क्षेत्रीयता, हिंसा, भेदभाव की संकीर्ण भावनाओं से स्वयं ऊपर उठें तथा एक बेहतर मजबूत जीवंत भारत के लिए अपना सार्थक योगदान दें। जैसा कि रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ‘सर्वोच्च शिक्षा वह है जो जीवन को संपूर्ण अस्तित्व के साथ एकात्म बनाती है।’
हमारे देश के युवा मेधा अथवा प्रतिभा के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं। हमारे देश को जरूरत है ईमानदारी और समर्पण की। केवल ऐसा व्यापक नजरिया ही, जो क्षेत्रीयता से कुंठित न हो, संकीर्णता से ग्रस्त न हो, पूर्वाग्रहों से दूषित न हो, इस देश को महान तथा इतना आदर्श बना सकता है, जो पूरे विश्व का अग्रणी बन सके।
हमें अपने आसपास के लोगों के प्रति तथा इस बात के प्रति अधिक से अधिक संवेदनशील होना चाहिए कि उन पर हमारे शब्दों और कार्यों का क्या प्रभाव पड़ेगा। जहां हम उन समस्याओं की समाप्ति के प्रयास को, जो हमारे सामाजिक विकास में व्यतिक्रम पैदा कर रहे हैं और असंतुलनों को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं वहीं हमें मिलजुलकर उन मूल्यों की पहचान करनी चाहिए जिन्होंने सदियों से हमारे समाज के बहुलतावादी तथा पंथनिरपेक्ष तानेबाजी को बनाए रखने में सहायता दी है तथा हमें इन मूल्यों को फिर से सशक्त करना होगा जिससे जब हम वैश्विक दुनिया में आगे बढ़ें तो हम भारतीयों के रूप में इन विशिष्ट परंपराओं के प्रति वफादार बने रहें। इसी प्रकार हमें अपने लोकतांत्रिक समाज के सभी वर्गों के बीच अधिक सहनशीलता तथा समझबूझ पैदा करने के भी प्रयास करने चाहिएं।
मैं इस सभा में बैठे हुए विद्यार्थियों से आग्रह करना चाहूंगा कि वे सकारात्मक नजरिए और दृढ़ उत्साह के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ें। प्रशिक्षण तथा शिक्षा के अलावा चरित्र, मस्तिष्क तथा उद्देश्य की दृढ़ता आपको सफलता प्रदान करेगी। मैं चाहूंगा कि आप यह याद रखें कि ज्ञान का प्रयोग सदैव लोगों और समाज की सेवा के लिए करना चाहिए।
मैं प्रोविंसियल, फादर रेक्टर, जेसुइट समुदाय के सदस्यों, शिक्षकों, सहयोगी कर्मिकों, सहायक कर्मचारियों, विद्यार्थियों तथा पूर्व तथा वर्तमान माता-पिताओं को उनके द्वारा दार्जिलिंग, भारत तथा समग्र विश्व की पिछले 125 वर्षों सेवा के लिए बधाई देता हूं। मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि विभिन्न देशों और विभिन्न वर्गों के इतने अधिक नेता आपके इतिहास तथा आपकी पहचान से जुड़े हैं। भूटान, नेपाल तथा पूर्व सिक्किम में शाही परिवारों के बहुत से सदस्यों ने यहीं पर राजनीति सीखी।
125 वर्षों के इस लंबे दौर में बहुत से लोग तथा घटनाएं आपके इतिहास की इस समृद्ध यवनिका में सम्मिलित हैं। मैं अपने साथ एक ऐसी संस्था की यादें तथा चित्र लेकर जा रहा हूं जो आज की तथा भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है।
मैं इस अवसर पर अपने देशवासियों की ओर से जेसुइट समुदाय को इतने अधिक संस्थानों और संगठनों को प्रदान करने के लिए, आपके धर्मार्थ कार्यों तथा उस मानव संसाधन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए धन्यवाद देता हूं जो आपके हाथों से पोषित होकर विकसित हुआ है। मैं आप सभी को एक बार फिर बधाई देता हूं तथा आपकी सफलता की कामना करता हूं।
धन्यवाद,
जयहिन्द!