भारतीय विद्या भवन की प्लेटिनम जयंती तथा डॉ. के.एम. मुंशी की 125वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
Mumbai : 30.12.2012
मुझे आज भारतीय विद्या भवन की प्लेटिनम जयंती तथा इसके महान संस्थापक डॉ. के.एम. मुंशी की 125वीं वर्षगांठ के समारोहों के उद्घाटन के लिए यहां आकर खुशी हो रही है। डॉ. के.एम. मुंशी एक सच्चे स्वप्नद्रष्टा, संस्था-निर्माता और भारत के सच्चे सपूत थे। वह छोटे कद के थे। परंतु अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ उपलब्धियां हासिल की, वह किसी भी तरह छोटी नहीं थी। वह एक ऐसे विशाल व्यक्तित्व थे जो कि अपने जीवन काल में ही एक महान सख्शियत बन गए थे।
मुंशी जी ने मानवीय कार्यकलापों के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता का प्रदर्शन किया। वह एक लेखक, वक्ता, उपन्यासकार, अधिवक्ता, शिक्षक, भारतविद्, संवैधानिक विशेषज्ञ, प्रशासक, राजनेता, देशभक्त तथा सांस्कृतिक, नीतिपरक तथा नैतिक मूल्यों के पैरोकार और उनके रक्षक थे।
वर्ष 1938 में भारतीय विद्याभवन की स्थापना का उनका प्रयास देश की जनता के उद्धार के लिए किए गए उनके बहुत से प्रयासों में से एक सबसे महत्त्वपूर्ण कदम था। भवन की स्थापना में, शिक्षा की उपयोगिता के प्रति उनके गहन विश्वास को मूर्त रूप मिला था और उनका यह दृढ़ मत था कि इससे भारत की प्रगति और विकास को गति मिल सकती है।
गुजरात में भरुच में 125 वर्ष पूर्व जन्मे मुंशी जी सदैव एक उत्तम विद्यार्थी रहे। उनके जीवन पर श्री अरविंद घोष का बहुत प्रभाव था। उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई शुरू की और 1913 में अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण कराया। उन्होंने कम समय में ही एक मेहनती और अध्यवसायी अधिवक्ता के रूप में ख्याति प्राप्त की।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, वे डॉ. एनी बेसेंट के होम रूल आंदोलन से बहुत प्रभावित हुए और इसके बाद उन्हें गांधी जी द्वारा प्रदत्त शासन की बेहतर संकल्पना का पता चला। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने सरदार पटेल के बारदोली आंदोलन तथा गांधी जी के नमक सत्याग्रह का हृदय से समर्थन किया। उनकी सक्रिय भागीदारी से वे गांधीजी और सरदार पटेल के निकट आ गए और उन्होंने कांग्रेस के अंदर उनकी सक्रिय भागीदारी तय की। उन्होंने कांग्रेस के संसदीय विंग के लिए आंदोलन शुरू किया और 1938 में कांग्रेस संसदीय बोर्ड के सचिव बने तथा 1930 के दशक में सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में कार्यरत रहे।
गांधी जी ने सक्रिय राजनीति के माध्यम से देश सेवा के प्रति मुंशी जी के उत्साह को जगाया। यह कहा जाता है कि अरविंद घोष ने उनमें ज्ञानयोग के प्रति प्रेम जगाया और गांधी जी ने उन्हें कर्मयोगी बनाया।
राष्ट्र सेवा के प्रति मुंशी जी की एकनिष्ठता और उनका समर्पण अनन्य था। जब हैदराबाद के निजाम ने भारत संघ में विलय में आनाकानी की तो 1947 में मुंशी जी को भारत सरकार के एजेंट जनरल के रूप में हैदराबाद भेजा गया था। उन्होंने 1948 में इसके पूर्ण रूप से विलय होने तक वहां कार्य किया। कहा जाता है कि यदि सरदार पटेल भारत में हैदराबाद के विलय के वास्तुकार थे तो मुंशी जी वहां पर इसके इंजीनियर थे। मुंशी जी की भूमिका की सराहना करते हुए सरदार पटेल ने लिखा था: ‘‘सरकार की ओर से मैं यह कहना चाहता हूं कि हमें आपके सार्वजनिक कर्तव्य के प्रति उच्च परायणता का गहरा अहसास है जिसके चलते आप इस पद को स्वीकार करने के लिए तैयार हुए और बहुत सुयोग्य तरीके से आपने स्वयं को सौंपे गए दायित्वों का निर्वाह किया और जिसके कारण अंतिम परिणाम प्राप्त करने में बहुत सहयेग मिला।’’
1950-52 के दौरान केंद्रीय खाद्य एवं कृषि मंत्री के रूप में तथा 1952 से 1957 तक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में मुंशी जी का योगदान बहुमूल्य रहा। उन्होंने भारत के संविधान को आकार देने में भी दूरगामी योगदान दिया। कानून की गहरी पकड़ तथा भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने की समझ के कारण वे संविधान सभा के सबसे महत्त्वपूर्ण सदस्यों में से एक थे। यह बात हैरत में डालने वाली है कि मसौदा निर्माण समिति में सदस्य होने के अलावा वे ग्यारह समितियों में सदस्य थे जिससे संभवत: वे एक ऐसे अकेले भारतीय बन गए हैं जिसने संविधान का मसौदा तैयार करने में इतनी व्यापक भूमिका अदा की। प्रत्येक भारतीय को कानून की समान सुरक्षा की गारंटी देने वाला सिद्धांत मुंशी जी और डॉ. अम्बेडकर द्वारा संयुक्त रूप से लिखे गए मसौदे का परिणाम था।
समानता के प्रति मुंशी जी की भावना केवल कानूनी सुरक्षा तक सीमित नहीं थी। उन्होंने विधवा विवाह की जमकर वकालत की और खुद 1926 में एक विधवा लीलावती सेठ से विवाह किया। बाल अपराधियों के सामाजिक बहिष्कार को देखते हुए वे 1939 में चैम्बूर, मुंबई में एक बाल अपराधियों के लिए बाल गृह की स्थापना के लिए प्रेरित हुए। इस प्रकार अपने देशवासियों के प्रति उनका प्रेम और सेवा भाव अनन्य था तथा वह उसके प्रति व्यक्तिगत रूप से संकल्पबद्ध थे।
एक सर्जनात्मक लेखक तथा ईमानदार पत्रकार, मुंशी जी ने भार्गव नामक गुजराती मासिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया और यंग इंडिया के सह संपादक रहे तथा 1954 में भवन की पत्रिका शुरू की। उनकी कुछ सुप्रसिद्ध पुस्तकें हैं : गुजरात और उसका साहित्य, अखंड हिंदुस्तान, ग्लोरी दैट वाज गुजरदेश, द र्यून दैट ब्रिटेन रौट, द एंड ऑफ एन इरा, और शिशु अणे सखि। वह संस्कृत विश्व परिषद, गुजराती साहित्य परिषद तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष थे।
मुंशी जी भारत के तीन महान स्वपनद्रष्टाओं में से एक थे। एक तो महात्मा गांधी खुद थे जिन्होंने हिंसा रहित तथा प्रेम और करुणा से भरपूर विश्व का स्वप्न देखा था। दूसरे स्वप्नद्रष्टा पंडित जवारह लाल नेहरू थे जिन्होंने एक मजबूत, संगठित और लोकतांत्रिक भारत का स्वप्न देखा था जो कि विश्व में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। मुंशी जी तीसरे स्वप्नद्रष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे सांस्कृतिक पुनरोत्थान का स्वप्न देखा था जिसमें हमारे देश की आध्यात्मिक विरासत में आधुनिक परिस्थितियों के लिए उपयुक्त ढंग से बदलाव जा जा सके। वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि उनके समय के तथा भावी पीढ़ी के प्रत्येक युवा भारत की सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक विरासत को आत्मसात करे और उससे लाभान्वित हो।
मुंशी जी ने लिखा था : ‘‘किसी भी संस्कृति के मूल्य पुन: व्याख्या निर्वचन, पुन: एकीकरण तथा अनुकूलन की एक सूक्ष्म प्रक्रिया द्वारा प्रत्येक पीढ़ी के लिए संजोए जाते हैं। जब वह संस्कृति जीवित होती है तब उस पीढ़ी के मेधावी युवक और युवतियों पर इसके मौलिक मूल्यों का असर पड़ता है। उनमें से हर एक संवेदनशील तथा सक्रिय युवा एक मानवीय प्रयोगशाला बन जाती है, जो कि भौतिक मूल्यों का शुद्धीकरण करता है और उसका केंद्रीय विचार से तादात्मय कराता है; उन्हें समय की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करता है; सहायक मूल्यों की नई व्याख्या करके नई शक्ति के साथ पुन: संयोजन करता है और न केवल सामूहिक इच्छा की शक्ति को ठसे पहुंचाए बिना बल्कि इसे एक नई शक्ति प्रदान करके परंपराओं और संस्थाओं को दिशा देता है।’’ तीन चौथाई सदी पूर्व मुंशीजी को नैतिक और नीतिपरक मूल्यों में उथल-पुथल का पूर्वाभास था। उनका मानना था कि आजादी तब तक निरर्थक तथा बेकार है जब तक कि लोगों के दिलों और दिमागों में सांस्कृतिक, नीतिपरक और नैतिक मूल्यों का समावेश न हो।
अत: मुंश जी को लगा कि एक ऐसी संस्था की स्थापना होनी चाहिए जो शिक्षा के माध्यम से ठोस बदलाव ला सके, भले ही वे थोड़े ही क्यों न हों। भारतीय विद्या भवन जो कि एक संस्थान के रूप में शुरू हुआ था, अब एक विशाल सांस्कृतिक और शैक्षणिक आंदोलन है। यह एक ऐसा नैतिक आंदोलन है जो लोगों को नीतिपरक मूल्यों से निर्देशित जीवन की ओर ले जाता है। भवन आज हमारे देश के लोगों की और उनके माध्यम से मानवता की महती सेवा कर रहा है। भवन ने अपने ध्येय वाक्य के रूप में न केवल ऋग्वेद की उद्घोषणा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को अपनाया है बल्कि वह अपने वचनों और कर्मों से भी इसको कार्यान्वित कर रहा है। मुंशी जी भवन के माध्यम से जो प्राप्त करना चाहते थे, उसे संक्षेप में तीन बिंदुओं में कहा जा सकता है: सबसे पहले वह लोगों की विचारधारा में पारलौकिकता के स्थान पर उनके जीवन में खुशी की भावना लाना चाहते थे जैसा कि जीवना होना चाहिए। दूसरे, उनका मानना था कि ऐसी पुरातनपंथी परंपराएं जो कि व्यक्ति की सृजनात्मक शक्ति का तथा सामूहिक जीवन का गला घोंट देती हैं के स्थान पर जीवन के प्रति सजीव लचीला दृष्टिकोण लाया जाना चाहिए। और तीसरे, हमारी संस्कृति को जिन भौतिक मूलयों ने सदियों से प्रेरणा दी है उन्हें हमारी भावी पीढ़ियों के लिए फिर से स्थापित किया जाना चाहिए।
भवन जैसे आंदोलनों की इस समय जरूरत है। भारतीय विद्या भवन समय की कसौटी पर खरा उतरा है और इसने संतुलित और समृद्ध जीवन जीने की राह पर भारतीयों और विदेशियों दोनों का मार्गदर्शन किया है। भारत में 119 केंद्रों और अमरीका तथा यू.के. सहित अन्य देशों में 7 केंद्रों सहित भारतीय विद्याभवन ने दैनिक जीवन में नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों को बढ़ावा देने के मुंशी जी के स्वप्न को सफलतापूर्वक पूर्ण किया है। मैं भारतीय विद्याभवन के कर्मचारियों को मुंशी जी की परिकल्पना को यथार्थ में बदलने के लिए उनके अथक प्रयासों के लिए बधाई देता हूं।
भारतीय विद्याभवन उन व्यक्तियों को अपने उच्चतम् सम्मान अर्थात् अपनी मानद सदस्यता प्रदान करता है, जिन्होंने हमारे देश के तथा विश्व के लोगों की शानदार सेवा की है। आज यह सम्मान उन्होंने तीन लब्ध-प्रतिष्ठ नागरिकों को प्रदान किया है। उनमें से हर एक अपने-अपने चुने गए क्षेत्र का प्रकाशनमान सितारा है। मैं भवन को इसके शानदार चयन के लिए बधाई देता हूं।
श्रीमती किशोरी अमोनकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक प्रख्यात आचार्या हैं और जयपुर अतरौली घराने की प्रख्यात गायिका हैं और उन्होंने हमें आधी सदी से अधिक समय तक शुद्ध आनंद से ओतप्रोत किया। गांधीवादी, श्रीमती इला भट्ट सामाजिक कार्यों की एक अनुकरणीय समर्थक हैं। उनके कार्यों से हमारे देश को विश्वस्तर पर नाम और ख्याति प्राप्त हुई। उन्होंने निर्धन और वंचित महिलाओं को हमारे देश की गर्व से परिपूर्ण, विश्वास से भरी हुई, आत्मसंगठित तथा साहसी नागरिकों में बदल दिया। श्री एन.आर. नारायणमूर्ति जिन्होंने हमारे देश को सूचना प्रौद्योगिकी में विश्व का नेता बनने का रास्ता दिखाया, हमारे देश के युवाओं के लिए एक प्रेरणा हैं।
मुझे भारतीय विद्या भवन की प्लेटिनम जयंती तथा इसके महान संस्थापक, कुलपति के.एम. मुंशी की 125वीं जन्म जयंती समारोह का उद्घाटन करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है।
धन्यवाद।