हाल के दिनों में महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध के मामलों ने हमें ईमानदारी से आत्म निरीक्षण करने को मजबूर कर दिया है, ताकि इन कुत्सित घटनाओं के मूल कारणों को समझा जा सके।
भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु
कोलकाता के एक डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की वीभत्स घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है। जैसे ही मुझे इस घटना के बारे में पता चला... मैं तो सिहर उठी। अधिक अफसोस की बात यह है कि यह घटना महिलाओं के साथ घटित होने वाली एकमात्र घटना नहीं थी, बल्कि यह उनके साथ होने वाले अपराधों की श्रृंखला का एक हिस्सा मात्र है। यहां तक कि जब छात्र, डॉक्टर तथा आम नागरिक भी कोलकाता में विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, अपराधी बेखौफ कहीं भी घूम रहे थे। ऐसी घटनाओं की पीड़ितों में किंडरगार्टन कक्षाओं की बच्चियां भी शामिल हैं। कोई भी सभ्य समाज अपनी बेटियों और बहनों के साथ इस प्रकार के घृणित दुष्कर्म की अनुमति नहीं दे सकता। इस पर देशवासियों के साथ-साथ मेरा भी आक्रोशित और गुस्सा होना लाजमी है।
पिछले साल महिला दिवस के अवसर पर मैंने एक समाचार पत्र में लेख के रूप में महिला सशक्तिकरण के बारे में अपने विचार और उम्मीदें साझा की थीं। महिलाओं को सशक्त बनाने में हमारी पिछली उपलब्धियों के कारण ही मैं आशावादी बनी हुई हूँ। मैं खुद को भारत में महिला सशक्तिकरण की उस शानदार यात्रा का एक उदाहरण मानती हूँ। लेकिन जब मैं देश के किसी भी हिस्से में महिलाओं के खिलाफ क्रूरता के बारे में सुनती हूँ तो मुझे अत्यंत पीड़ा होती है।
हाल ही में, मैं एक अजीब दुविधा में तब फंस गयी थी, जब राष्ट्रपति भवन में राखी मनाने आए कुछ स्कूली बच्चों ने मुझसे बड़ी मासूमियत से पूछा कि, “क्या उन्हें भरोसा दिया जा सकता है कि भविष्य में किसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी”। मैंने उनसे कहा कि, हालांकि राष्ट्र प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन आत्मरक्षा और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण सभी के लिए, विशेष रूप से लड़कियों के लिए, उन्हें सशक्त बनाने के लिए आवश्यक है। लेकिन यह उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है, क्योंकि महिलाओं की कमजोरी कई कारकों से प्रभावित होती है। जाहिर है, इस सवाल का पूरा जवाब हमारे समाज से ही मिल सकता है।
ऐसा होने के लिए सबसे पहले जो ज़रूरी है वह है ईमानदार और निष्पक्ष आत्मनिरीक्षण। अब समय आ गया है जब हमें एक समाज के रूप में खुद से कुछ कठिन सवाल पूछने की आवश्यकता है। हमने कहाँ गलती की है? और हम इन गलतियों को दूर करने के लिए क्या कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब खोजे बिना, हमारी आधी आबादी दूसरी आधी आबादी की तरह आज़ादी से नहीं जी सकती।
इन प्रश्नों का उत्तर देने के क्रम में, मैं शुरू में ही स्पष्ट कर दूँ कि हमारे संविधान ने महिलाओं सहित सभी को समानता प्रदान की गई है। जबकि दुनिया के कई हिस्सों में यह बात केवल कागजों पर ही थी। हमारे राष्ट्र में तब इस प्रकार की समानता को स्थापित करने के लिए जहाँ भी ज़रूरत थी, संस्थाओं का निर्माण किया गया और इसे कई योजनाओं और पहलों के साथ बढ़ावा दिया गया। सिविल सोसायटी ने भी पहल की और इस संबंध में राष्ट्र द्वारा किए जाने वाले प्रयासों को आगे बढ़ाया। समाज के सभी क्षेत्रों में दूरदर्शी नेताओं ने लैंगिक समानता पर बल दिया। परिणामस्वरूप, कुछ असाधारण, साहसी महिलाएँ भी आगे आईं जिन्होंने अपनी कुछ पीड़ित बहनों के लिए इस सामाजिक क्रांति से लाभान्वित होना संभव बनाया। यही महिला सशक्तिकरण की गाथा रही है।
फिर भी, यह यात्रा निर्बाध नहीं रही। महिलाओं को अपनी जीती हुई हर इंच ज़मीन के लिए संघर्ष करना पड़ा है। सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ-साथ कुछ रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं ने हमेशा महिलाओं के अधिकारों के विस्तार का विरोध किया है। यह एक बहुत ही निंदनीय मानसिकता है। मैं इसे पुरुष मानसिकता नहीं कहूँगी, क्योंकि इसका महिला-पुरूष से कोई लेना-देना नहीं है: ऐसे बहुत से पुरुष हैं जिनकी ऐसी विचारधारा नहीं है। यह मानसिकता महिला को कमतर इंसान, कम शक्तिशाली, अक्षम तथा अल्प बुद्धिमान के रूप में देखती है। जो लोग इस तरह के विचार रखते हैं, वे इस कड़ी में महिला को एक वस्तु के रूप में देखते हैं।
महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के पीछे कुछ लोगों द्वारा महिलाओं को वस्तु के रूप में पेश करने की यही कुत्सित मानसिकता काम करती है। यह भावना ऐसे लोगों के दिमाग में गहराई तक समाई हुई है। मैं यहां यह भी कहना चाहूंगी कि यह बेहद अफसोस की बात है कि यह दुष्प्रवृति सिर्फ भारत में ही नहीं है, बल्कि यह पूरी दुनिया में एक कुप्रथा के रूप में व्याप्त है। एक स्थान और दूसरे स्थान पर अंतर केवल किस्म से ज्यादा हद का होता है। इस मानसिकता का मुकाबला करना राज्य और समाज दोनों के लिए एक चुनौती है। भारत में पिछले कई सालों से दोनों ने गलत रवैये को बदलने के लिए कड़ी लड़ाई लड़ी है। अनेक कानून बने हैं और सामाजिक अभियान भी चले हैं। फिर भी, कुछ ऐसा है जो आड़े आता रहा है और हमें अंदर तक झकझोर देता है।
दिसंबर 2012 में, हम सबने इस कुत्सित मनोवृति का सामना किया था, जब एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई। हर तरफ सदमे और गुस्से का माहौल था। तब हम दृढ़ संकल्पित थे कि किसी और निर्भया को ऐसा न सहना पड़े। हमने योजनाएँ बनाईं और रणनीतियां तैयार की। इन पहलों से कुछ हद तक बदलाव भी हुए। फिर भी, जब तक कोई महिला जहाँ वह रहती या काम करती है, उस माहौल में असुरक्षित महसूस करती रहेगी, तब तक हमारा कार्य अधूरा ही रहेगा।
राष्ट्रीय राजधानी में उस त्रासदी के बाद से बारह वर्षों में, इसी तरह की अनगिनत त्रासदियाँ हुई हैं, हालाँकि केवल कुछ घटनाओं ने ही पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। उन्हें भी जल्द ही भुला दिया गया। क्या हमने कोई सबक सीखा? जैसे-जैसे सामाजिक विरोध कम होते गए, ये घटनाएँ सामाजिक स्मृति के गहरे और दुर्गम कोने में दब गईं, जिन्हें केवल तभी याद किया जाता है जब कोई और जघन्य अपराध होता है।
मुझे डर है कि सामूहिक भूलने की यह बीमारी उतनी ही घृणित है जितनी कि एक सभ्य समाज के लिए वह मानसिकता जिसके बारे में मैंने पीछे उल्लेख किया था।
विगत में घटित घटनाएं अक्सर हमें दुखी कर देती हैं। इतिहास का सामना करने से डरने वाले समाज सामूहिक स्मृतिलोप का सहारा लेते हैं और एक प्रचलित कहावत के अनुसार अक्सर लोग शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर रेत में छुपा लेते हैं। अब समय आ गया है कि हम न केवल इतिहास का सामना करें बल्कि अपनी आत्मा के भीतर झांकें और महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध की विकृति का विश्लेषण करें।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि हमें इस तरह के अपराध की घटनाओं पर स्मृतिलोप को हावी नहीं होने देना चाहिए। आइए हम इस विकृति से व्यापक तौर पर निपटें, ताकि इसे शुरू में ही रोका जा सके। हम ऐसा तभी कर सकते हैं जब हम पीड़ितों की यादों का सम्मान करें और उन्हें याद करने की एक सामाजिक संस्कृति विकसित करें ताकि हमें अतीत की हमारी असफलताओं की याद दिलाई जा सके और हमें भविष्य में और अधिक सतर्क रहने के लिए तैयार किया जा सके।
हमारी बेटियों के प्रति यह जिम्मेदारी है कि हम उनके भय से मुक्ति पाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें। तभी हम सब मिलकर अगले रक्षाबंधन पर उन बच्चों की मासूम जिज्ञासाओं का दृढ़ता से उत्तर दे सकेंगे। आइये, हम सब मिलकर कहें कि ‘बस, बहुत हो गया’।
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